Oct 28, 2012

पिटाई और अकल

माल्या जी,
हम आपको यह पत्र बिना कोई बीयर-शीयर पिए लिख रहे हैं । २७ अक्टूबर २०१२ के अखबारों में आपके वक्तव्य से यह भी पता चल गया है कि धन का नशा तो आपका भी उतर ही गया है । हम कामना करते हैं कि आपको प्राप्त हुई यह समझ बनी रहे, न कि श्मशान-वैराग्य की तरह श्मशान से बाहर निकलते ही समाप्त हो जाए ।

हालाँकि हमने विश्व के पत्र-साहित्य में दर्ज़ होने लायक सैंकडों पत्र विभिन्न हस्तियों को लिखे हैं, लेकिन हम आप जैसे ‘पहले वाले माल्याओं’ को कभी पत्र नहीं लिखते क्योंकि उनके पास लगभग नंगी कुँवारी कन्याओं के फोटो खींच कर कलेंडर बनाकर बेचने, दारू बेचने, क्रिकेट के कुछ खिलाड़ी खरीदकर जगह-जगह उनके तमाशे दिखाते फिरने या फिर ऐसी ही और बच्चोंवाली हरकतें करते फिरने के अलावा और कोई काम नहीं होता था । हमें पता नहीं है कि आप इस समय कहाँ हैं लेकिन इतना विश्वास अवश्य है कि जिस तरह से आपका वक्तव्य किसी न किसी तरह हमारे पास यहाँ अमरीका में भी पहुँच गया तो हमारा यह पत्र भी कैसे न कैसे आप तक पहुँच ही जाएगा । यदि नहीं पहुँचा तो आपका दुर्भाग्य । हमारा तो इससे कुछ बनने-बिगड़ने वाला हैं नहीं क्योंकि हम न तो अरबपतियों में कल शामिल थे और न आज और न ही कभी इस क्लब में शामिल होने की संभावना, कामना और इच्छा ही रही है ।


तो पहले आप एक सौ दस करोड़ डालर की संपत्ति के साथ ४९वें स्थान पर थे और अब पतित होकर ८० करोड़ डालर के साथ ७३वें स्थान पर आ गए हैं मतलब कि कोई २३-२४ सीढ़ियाँ गिरे । वैसे हम तो एक बार कोई साठेक बरस पहले पतंग उड़ाते हुए कोई ८-९ सीढ़ियाँ नीचे गिरे थे तो आँखें खराब हो गईं और ४ नम्बर का चश्मा लग गया । २३-२४ सीढ़ियाँ नीचे गिर कर तो आदमी का जिंदा बच पाना ही मुश्किल होता है । आप पर भगवान की कृपा है कि आप जिंदा बच गए । उसका शुक्रिया अदा कीजिए ।

वैसे शुक्रिया तो आपने अपने वक्तव्य में भगवान का अदा किया ही है कि अब लोग आपसे ईर्ष्या नहीं करेंगे और बिना बात आपकी टाँग नहीं खेंचेंगे । ईर्ष्या करने वाले लोग भी बड़े अभागे होते हैं । अब देखिए ना, आप मज़े से फार्मूला-वन रेस देख रहे थे या किसी माडल की कमर में हाथ डाले फोटो खिंचवा रहे थे और लोग थे कि बिना बात अपने घरों में बैठे जल रहे थे । आपको कोई फर्क नहीं पड़ा था जब कि लोग बेचैन थे । ईर्ष्या बहुत बुरी बीमारी है । ईर्ष्या में किसी को कोई दंड देने की ज़रूरत ही नहीं है । ईर्ष्या का मारा व्यक्ति खुद ही ईर्ष्या करने का दंड भुगतता रहता है ।


हमें तो सच बताएँ, आपको इतनी सारी अँगूठियाँ, ब्रेसलेट आदि पहने देख कर ईर्ष्या नहीं होती थी बल्कि दया आती थी । सच ही, बाल रँगने वाले, नकली दाँत लगाने वाले, विग लगाने वाले या और इसी तरह से लोगों के सामने बन कर आने वाले लोगों को कितना सतर्क और सावधान रहना पड़ता होगा । हमें तो बाहर जाने के लिए तैयार होने में दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता । खूँटी से कुर्ता उतारने और पैरों में चप्पल डालने में समय ही कितना लगता है ? हम तो यही सोच कर परेशान होते रहते हैं कि आप और भप्पी लाहिरी इतने गहने और तामझाम को लिए सो कैसे पाते होंगे । हमें तो शादी में एक घड़ी और चेन मिली थी । हमसे तो वे भी नहीं पहनीं गईं । चेन के बिना ही चैन से कट रही है ।

तो अब आपको अक्ल आ गई कि धन-संपदा का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए । धन संपदा का प्रदर्शन करने वाला हमारे अनुसार हीन भावना से ग्रस्त होता है । तभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सुपीरियरिटी जैसा कोई कम्प्लेक्स नहीं होता । वास्तव में वह हीन-भावना या इनफीरियारिटी का ही एक रूप होता है । जो अपने को छोटा समझता है वही तो अपने को बड़ा दिखाने की कोशिश करता है । अब तो आपके पास फुर्सत होगी सो उचित समझें तो प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ पढ़ लीजिए ।

धन की तीन ही गतियाँ होती हैं - दान, उपभोग या विनाश । आप धन का जो कुछ कर रहे थे वह हमारे हिसाब से न तो उपभोग ही था और दान तो खैर था ही नहीं; तो फिर उसका यही हश्र होना था । और यदि नहीं सँभाला तो बचे-खुचे को आपका सुपुत्र आपसे भी तीव्र गति से फूँकेगा । उसके लिए दुखी मत होइए । कुछ लोग दूसरों को गिरते देखकर सँभल जाते हैं, कुछ खुद गिरकर सँभल जाते हैं और कुछ बार-बार गिर कर भी नहीं सँभलते और बार-बार उसी गड्ढे में गिरते हैं । भगवान करे आपको जो यह अक्ल मिली है वह स्थाई रहे और आप अपने बचे-खुचे धन का सदुपयोग कर सकें ।

आजकल तो तरह-तरह के स्कूल हैं लेकिन हमारे ज़माने में तो एक ही तरह के स्कूल हुआ करते थे जिनमें धनी-गरीब सबके बच्चे समान रूप से पढ़ते थे । उस युग में कहा जाता था – ‘गुरु की चोट, विद्या की पोट’ मतलब कि जिसकी जितनी ज्यादा पिटाई होती थी माना जाता था कि उसके हिस्से में उतनी ही विद्या आएगी । इसी तरह से पिताजी के भी स्टेंडिंग इंस्ट्रक्शंस होते थे कि ‘गुरुजी, हड्डी-हड्डी हमारी और मांस आपका’ मतलब कि आप अपने शिष्य का सारा मांस छील सकते हैं बस हड्डियाँ छोड़ दीजिएगा । मांस का क्या है, कभी भी हड्डियों पर चढ़ जाएगा ।

आजकल बाज़ारवाद के कारण स्कूलों को भी फाइव स्टार होटल बनाने का चलन हो रहा है तो देख लीजिए कैसे तथाकथित बड़े स्कूलों में कुँवारी लड़कियाँ गर्भवती होने लगी हैं, स्कूल से गायब होकर लड़के-लड़कियाँ बुद्ध जयंती पार्क या किसी होटल में पाए जाते हैं या उनके एम.एम.एस. बन कर मोबाइलों में घूम रहे हैं । उस गुरु की चोट का अर्थ था अनुशासन । और देख लीजिए उस समय के उन अनुशासनप्रिय गुरुओं के शिष्यों ने क्या-क्या बड़े काम कर दिखाए । वैसे यहाँ हमारा मतलब आपको शिक्षा व्यवस्था के बारे में बताना नहीं है । हम तो आपको पिटाई का महत्त्व बताना चाहते हैं । कहते हैं ‘मार के आगे भूत भागते हैं’ तो अपने कर्मों के फलस्वरूप पड़ने वाली मार आदमी के दुर्गुण रूपी भूतों को भगाती है और बहुत कुछ सिखाती है बशर्ते कि कोई सीखना चाहे ।

और धन के सदुपयोग के बारे में हम आपको एक उदहारण देना चाहते हैं । हमारे एक ८५ वर्षीय वरिष्ठ मित्र हैं । हैं तो हमसे उम्र में कोई पन्द्रह वर्ष बड़े लेकिन विचार और पेशे से हमारे मित्र माने जा सकते हैं । वे कोई पिछले पचास वर्ष से गणित पढ़ने-पढ़ाने के लिए अमरीका आ रहे हैं और अब तो यहीं बस गए हैं । उनके तीनों बेटे शादी करके यहीं बस गए हैं । अब हमारे मित्र पर कोई जिम्मेदारी नहीं है । अब पचासी वर्ष की उम्र में भी वे विश्वविद्यालय में अपने कार्यालय जाते हैं और शोधार्थियों की सहायता करते हैं और इसके बदले में उन्हें विश्वविद्यालय से एक ठीक-ठाक राशि मिल जाती है । वे हर वर्ष चार महिने के लिए हमारे गृह-जिले झुंझुनू (राजस्थान) जाते हैं और अपनी सारी बचत जो कोई १०-१५ लाख होती होगी, सामाजिक कार्यों में गुप्त रूप से सहयोग के रूप में दे आते हैं । इस तरह अब तक कोई ५ करोड़ रुपए दान कर चुके होंगे । बहुत सादगी से रहते हैं, उनके मन में एक अद्भुत शांति है और इसी कारण अब भी पूर्ण स्वस्थ हैं ।

आप चाहें तो हमारे इन मित्र से धन का सदुपयोग सीख सकते हैं । जब हमारे मित्र लाख-डेढ़ लाख डालर वार्षिक कमाकर ही इतना कुछ कर सकते हैं तो आपके पास तो अब भी अस्सी करोड़ डालर बचे हैं । वरना जीवन तो किसी का भी स्थाई नहीं है । बीतते कितनी देर लगती है । फिर न तो गहनों का भार उठेगा, न खाना पचेगा और आईना भी डराने लगेगा । किराए की सुन्दरियाँ यदि पैसों के लालच में आपसे कमर में हाथ डलवा भी लेंगी तो भी आप तो अपनी हालत जान ही रहे होंगे ।

भगवान आपकी यह आर्थिक झटके से प्राप्त सद्बुद्धि बनाए रखे जिससे आप अपने बचे हुए धन और समय का सदुपयोग कर सकें वरना कबीर जी ने तो कह ही रखा है-

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ।

और अगर आजकल की हिंदी में समझना चाहें तो हम एक बहुत प्यारे इंसान और अपने कवि मित्र भगवत रावत की कविता से उद्धृत करते हैं-

डोंगियाँ नहीं डूबतीं
डूबते हैं माल-असबाब से भरे जहाज ।

२७-१०-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. बहुत नेक सलाह दी है माननीय..

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ३० /१०/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |

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  3. वाह क्या व्यंग कसा है. एक एक पंक्ति प्रहार करती है. बहुत खूबसूरत. आभार.

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