अरुण जी
आपने बजट पेश किया । करना ही था । यह एक प्रकार से जनता के पसीने की कमाई का वार्षिक श्राद्ध है जिसे हर वित्त मंत्री को करना होता है । इस साल आप कर रहे हैं । सब अपने-अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रहे हैं । ये सब वे हैं जिन पर किसी बजट का कोई असर नहीं पड़ता । इन सब के अपने-अपने साधन-स्रोत हैं । हम तो आपकी इस बात से खुश हैं कि शाब्दिक ही सही कुछ सहानुभूति तो ज़ाहिर की ।
आपने कहा- काश ! मैं टेक्स-पेयर को कुछ दे पाता । हम तो आपके पैदा होने के दस-बारह वर्ष पहले से देखते आ रहे हैं । सब बेचारे टेक्स-पेयर से लेने के चक्कर में ही रहते हैं । सो आप भी लें । हम तो इसे खाने से पहले अछूता निकालने की तरह दरिया में डाल देते हैं । मछली-मगरमच्छ जो चाहे खाए ।
आपने अपनी कुछ न दे पाने की मज़बूरी ज़ाहिर कर दी, हमारे लिए तो यही बहुत है । हम तो 'उल्फत न सही, नफ़रत ही सही, इसको भी मुहब्बत कहते हैं ' वाले आशिक हैं । आपने सीनियर सिटिज़न के लिए टेक्स की सीमा बढ़ाई, बहुत-बहुत धन्यवाद । यदि दस-बीस हजार घटा भी देते तो हमें हुछ फर्क पड़ने वाला नहीं था ।
आप मात्र इकसठ वर्ष के हैं । हम तो आपका खल्वाट देखकर आपको अडवाणी जी की उम्र समझते थे । और आप निकले हमसे भी दस-बारह वर्ष छोटे ।
सच, काम और बोझ की अधिकता आदमी को समय से पहले बूढ़ा बना देती है । ठीक है कि आप बहुत कर्मठ हैं लेकिन यह भी तो ठीक नहीं कि आप पर दस मंत्रियों का बोझ डाल दिया जाय । दो-दो विभाग और वे भी तगड़े वाले । तभी आज तक किसी भी वित्त मंत्री को बजट पेश करते हुए कमर दर्द नहीं हुआ । इतने लोग पड़े हैं लेकिन एक अकेले आप पर ही इतना बोझ क्यों डाला गया ?
दिन में एक सौ बीस करोड़ की चाय-बीड़ी, नमक-तेल का हिसाब रखें और रात को पकिस्तान, चीन और बंगलादेश की सीमाओं पर पहरा दें । अब कमर दर्द नहीं होगा तो क्या होगा । अब तक जो वित्तमंत्री थे वे यहीं आसपास से सामान जुटा कर रख देते थे । पर ‘अच्छे दिनों’ के चक्कर में मोदी जी ने आपको द्रोणाचल से संजीवनी लाने भेज दिया । हनुमान जी की बात और थी । वे तो वज्र के थे । हम तो साधारण आदमी हैं । ठीक है, आप में उत्साह और लगन है लेकिन आदमी की शक्ति की भी एक सीमा होती है । कमर की भी क्या गलती । उठाने वाला एक और बोझ एक सौ बीस करोड़ आदमियों का । लोगों के लिए एक छोटा-सा परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है ।
यह कमर-दर्द भी दाँत-दर्द की तरह बहुत गन्दी तकलीफ़ है । ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ’ । हमें पता है । बाहर से कुछ नहीं दीखता लेकिन ज़रा-सा भी पोस्चर गड़बड़ हुआ तो दर्द का ऐसा काँटा-सा चुभता है कि बस ।
खैर, आपको विभाग दिए तो महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन ये ही वे दो विभाग हैं जिनमें सबसे अधिक आलोचना झेलनी पड़ती है । अब तक हमने देखा है कि सब वित्त मंत्री आज तक घाटे का बजट बनाते रहे हैं । अरे, जब है ही घाटा तो किससे क्या उम्मीद कर रहे हो ? और आपको पता है कि सारे झगड़े होते ही घाटे के हैं । जब अनाप-शनाप पैसा हो तो किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं रहती । चाहे दो सौ करोड़ खर्च करके पत्नी का जन्मदिन मनाओ या बेटे को दो करोड़ की कार भिड़ा देने के लिए दे दो ।
अब जब पैसा लिमिटेड हो और देश को बनाना हो पेरिस और लन्दन, तो खींचतान तो होगी ही । इस देश के लोग भी वास्तव में बड़े लीचड़ हैं । न मूर्तियाँ देखकर खुश होते हैं, और न टी.वी. से, न कम्प्यूटर से, न आधुनिकतम सेल-फोन से । हर समय आलू-प्याज, रोटी-पानी । पता नहीं, किस अकाल की पैदाइश हैं ये लोग !
आप तो अपनी गति से चलते रहिए जैसे अब तक के वित्तमंत्री चलते रहे हैं । हाथी को अपनी मस्ती में चलते रहना चाहिए । भौंकने वाले ऐसे ही भौंकते रहते हैं । घाटे का बजट बनाइए, और टेक्स लगाइए और जो कमियाँ हैं उनके लिए पिछली सरकार को दोष दीजिए । यही भारत की राजनीति की समृद्ध परम्परा है ।
आपने कुछ न कर पाने का अफसोस जता कर हमारे दुखते घुटनों पर महानारायण तेल लगा दिया । अब आप जो संजीवनी लाए हैं वह सडसठ साल से बेहोश लक्ष्मण को जिंदा करने के लिए सूर्योदय से पहले पहुँचेगी या नहीं यह विधाता जाने । हो सके तो इस संजीवनी की दो बूँदें आत्महत्या कर चुके किसानों, भूख और कुपोषण से मर चुके बच्चों के नाम से भी आकाश में छींट दीजिएगा । क्या पता, अब तक नेतृत्वों का पाप प्रक्षालन हो जाए ।
हमने तो जो सुख देखने थे सो इन बहत्तर वर्षों में देख लिए ।
११ जुलाई २०१४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
आपने बजट पेश किया । करना ही था । यह एक प्रकार से जनता के पसीने की कमाई का वार्षिक श्राद्ध है जिसे हर वित्त मंत्री को करना होता है । इस साल आप कर रहे हैं । सब अपने-अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रहे हैं । ये सब वे हैं जिन पर किसी बजट का कोई असर नहीं पड़ता । इन सब के अपने-अपने साधन-स्रोत हैं । हम तो आपकी इस बात से खुश हैं कि शाब्दिक ही सही कुछ सहानुभूति तो ज़ाहिर की ।
आपने कहा- काश ! मैं टेक्स-पेयर को कुछ दे पाता । हम तो आपके पैदा होने के दस-बारह वर्ष पहले से देखते आ रहे हैं । सब बेचारे टेक्स-पेयर से लेने के चक्कर में ही रहते हैं । सो आप भी लें । हम तो इसे खाने से पहले अछूता निकालने की तरह दरिया में डाल देते हैं । मछली-मगरमच्छ जो चाहे खाए ।
आपने अपनी कुछ न दे पाने की मज़बूरी ज़ाहिर कर दी, हमारे लिए तो यही बहुत है । हम तो 'उल्फत न सही, नफ़रत ही सही, इसको भी मुहब्बत कहते हैं ' वाले आशिक हैं । आपने सीनियर सिटिज़न के लिए टेक्स की सीमा बढ़ाई, बहुत-बहुत धन्यवाद । यदि दस-बीस हजार घटा भी देते तो हमें हुछ फर्क पड़ने वाला नहीं था ।
आप मात्र इकसठ वर्ष के हैं । हम तो आपका खल्वाट देखकर आपको अडवाणी जी की उम्र समझते थे । और आप निकले हमसे भी दस-बारह वर्ष छोटे ।
सच, काम और बोझ की अधिकता आदमी को समय से पहले बूढ़ा बना देती है । ठीक है कि आप बहुत कर्मठ हैं लेकिन यह भी तो ठीक नहीं कि आप पर दस मंत्रियों का बोझ डाल दिया जाय । दो-दो विभाग और वे भी तगड़े वाले । तभी आज तक किसी भी वित्त मंत्री को बजट पेश करते हुए कमर दर्द नहीं हुआ । इतने लोग पड़े हैं लेकिन एक अकेले आप पर ही इतना बोझ क्यों डाला गया ?
दिन में एक सौ बीस करोड़ की चाय-बीड़ी, नमक-तेल का हिसाब रखें और रात को पकिस्तान, चीन और बंगलादेश की सीमाओं पर पहरा दें । अब कमर दर्द नहीं होगा तो क्या होगा । अब तक जो वित्तमंत्री थे वे यहीं आसपास से सामान जुटा कर रख देते थे । पर ‘अच्छे दिनों’ के चक्कर में मोदी जी ने आपको द्रोणाचल से संजीवनी लाने भेज दिया । हनुमान जी की बात और थी । वे तो वज्र के थे । हम तो साधारण आदमी हैं । ठीक है, आप में उत्साह और लगन है लेकिन आदमी की शक्ति की भी एक सीमा होती है । कमर की भी क्या गलती । उठाने वाला एक और बोझ एक सौ बीस करोड़ आदमियों का । लोगों के लिए एक छोटा-सा परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है ।
यह कमर-दर्द भी दाँत-दर्द की तरह बहुत गन्दी तकलीफ़ है । ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ’ । हमें पता है । बाहर से कुछ नहीं दीखता लेकिन ज़रा-सा भी पोस्चर गड़बड़ हुआ तो दर्द का ऐसा काँटा-सा चुभता है कि बस ।
खैर, आपको विभाग दिए तो महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन ये ही वे दो विभाग हैं जिनमें सबसे अधिक आलोचना झेलनी पड़ती है । अब तक हमने देखा है कि सब वित्त मंत्री आज तक घाटे का बजट बनाते रहे हैं । अरे, जब है ही घाटा तो किससे क्या उम्मीद कर रहे हो ? और आपको पता है कि सारे झगड़े होते ही घाटे के हैं । जब अनाप-शनाप पैसा हो तो किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं रहती । चाहे दो सौ करोड़ खर्च करके पत्नी का जन्मदिन मनाओ या बेटे को दो करोड़ की कार भिड़ा देने के लिए दे दो ।
अब जब पैसा लिमिटेड हो और देश को बनाना हो पेरिस और लन्दन, तो खींचतान तो होगी ही । इस देश के लोग भी वास्तव में बड़े लीचड़ हैं । न मूर्तियाँ देखकर खुश होते हैं, और न टी.वी. से, न कम्प्यूटर से, न आधुनिकतम सेल-फोन से । हर समय आलू-प्याज, रोटी-पानी । पता नहीं, किस अकाल की पैदाइश हैं ये लोग !
आप तो अपनी गति से चलते रहिए जैसे अब तक के वित्तमंत्री चलते रहे हैं । हाथी को अपनी मस्ती में चलते रहना चाहिए । भौंकने वाले ऐसे ही भौंकते रहते हैं । घाटे का बजट बनाइए, और टेक्स लगाइए और जो कमियाँ हैं उनके लिए पिछली सरकार को दोष दीजिए । यही भारत की राजनीति की समृद्ध परम्परा है ।
आपने कुछ न कर पाने का अफसोस जता कर हमारे दुखते घुटनों पर महानारायण तेल लगा दिया । अब आप जो संजीवनी लाए हैं वह सडसठ साल से बेहोश लक्ष्मण को जिंदा करने के लिए सूर्योदय से पहले पहुँचेगी या नहीं यह विधाता जाने । हो सके तो इस संजीवनी की दो बूँदें आत्महत्या कर चुके किसानों, भूख और कुपोषण से मर चुके बच्चों के नाम से भी आकाश में छींट दीजिएगा । क्या पता, अब तक नेतृत्वों का पाप प्रक्षालन हो जाए ।
हमने तो जो सुख देखने थे सो इन बहत्तर वर्षों में देख लिए ।
११ जुलाई २०१४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
क्या आसानी से अपने इतनी गहरी बात कह दी।काश हमारी तरह अरुण जेटली को भी यह लेख पढ़ने का अवसर मिले।
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