Sep 28, 2024

ड्राइविंग सीट के डेंजर्स


ड्राइविंग सीट के डेंजर्स 



 

न तो डी ए के 18 महिने के बकाया एरियर के भुगतान की घोषणा हुई, न सामान्य डी  ए की और न ही कोई आवश्यक वस्तु सस्ती हुई फिर भी पता नहीं आज तोताराम क्यों ‘मोदी-मोदी’ शैली में बहुत खुश था । पूछने पर बोला- खुशी की बात तो है ही । कल अपने राजस्थान में डबल इंजन की सरकार की कृपा से तीसरा सैनिक स्कूल खुल गया । जयपुर में सीकर रोड़ पर भवानी निकेतन स्कूल में । 


हमने कहा- स्वतंत्रता प्राप्ति से बाद राष्ट्रीय सोच और चरित्र विकसित करने दृष्टि से सुरक्षा, साहित्य, कला, विज्ञान, शिक्षा, अर्थव्यवस्था,उद्योग आदि के क्षेत्र में अनेक आधारभूत संरचना और संस्थाएं स्थापित और विकसित की गईं ।  लेकिन अब देश में कुछ वर्षों से इन सभी संस्थाओं और व्यवस्थाओं में निजी हितों को ध्यान में रखते बहुत से चरित्रगत परिवर्तन किए गए हैं । यह वैसा ही सैनिक स्कूल है । 


बोला- मतलब ? 


हमने कहा- मतलब यह कि यह वैसा ही संचार मंत्रालय है जिसमें संचार का कोई साधन मंत्री के कब्जे में नहीं है । वैसा ही नागरिक उड्डयन मंत्रालय है जहां सभी अड्डे और विमानन निजी हाथों में हैं । आजादी से पहले अंग्रेजों ने अपने हिसाब से कई मिलिटरी स्कूल खोल रखे थे । जैसे मौलाना आजाद ने आई आई टी की योजना बनाई थी वैसे ही वी के कृष्ण मेनन ने 1961 में सैनिक स्कूलों की योजना बनाई । 


अपने राजस्थान में केवल दो सैनिक स्कूल हैं पहला चित्तौड़गढ़ में 1961 में खुला और दूसरा 2012 में पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के प्रयत्नों से झुंझुनू जिले में खुला क्योंकि पाटिल झुंझुनू जिले की बहू हैं । अब जयपुर में खुला स्कूल वैसा ही सैनिक स्कूल है जैसा सिंधिया वाला मंत्रालय । वैसा ही नकली जैसा कि योजना आयोग को नष्ट करके बनाया गया ‘नीति आयोग’ । न कोई नीति न कोई जिम्मेदारी । 


बोला- लेकिन अखबार में तो सैनिक स्कूल ही लिखा है । 






हमने कहा- लिखने से क्या होता है । तुझे पता होना चाहिए कि ये मात्र स्कूल नहीं थे ।इनके माध्यम से सेना को एक संतुलित राष्ट्रीय चरित्र प्रदान करना था । पहले राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और  महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार के ग्रामीण इलाकों से ही अधिक लोग सेना में जाते थे ।इसलिए इस क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए सभी राज्यों में लगभग निःशुल्क, अच्छी और आवासीय शिक्षा देकर पूर्व प्रशिक्षित अधिकारी उपलब्ध कराने के लिए सैनिक स्कूल खोले गए ।  सन 2021 तक इनकी संख्या केवल 33 थी ।  इन स्कूलों के माध्यम से सेना का सच्चा राष्ट्रीय चरित्र विकसित हो रहा था । लेकिन अचानक 100 स्कूलों की योजना आ गई । यह क्या कोई घासफूस है ? कोई कागजों पर शौचालय बनाने जैसा काम है ? 


बोला- यही तो डबल इंजन की सरकार का कमाल है । जो  70 साल में हैं नहीं हुआ उससे तिगुना 7 साल में । 


हमने कहा- वैसे ही जैसे 70 साल में विदेशी कर्ज 50 लाख करोड़ और दस साल में तिगुना 155 लाख करोड़ ।  



बोला- कर्ज विकास की निशानी होता है । जब भारत पर कोई कर्ज नहीं था तो वह पिछड़ा हुआ देश हुआ करता था और आज ! सुना नहीं, मोदी जी ने अमरीका में क्या कहा- आज भारत पीछे पीछे नहीं, आगे आगे चलता है । 


हमने वाक्य पूरा किया- और उगाही करने वाले पीछे-पीछे। 


बोला- मास्टर, तुझे परेशानी क्या है ? हर बात में खुचड़ । तुझे 2021 में एक ही झटके में  100 सैनिक स्कूल खुलने में क्या बुराई नजर आ रही है ? 


हमने कहा- क्या तूने उद्घाटन में पधारे रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के एक वाक्य पर ध्यान दिया या नहीं ? उन्होंने कहा है- अर्थव्यवस्था की गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर प्राइवेट सेक्टर बैठा है । 


इसका क्या मतलब है ? यही की अनुदान सरकार का और धंधा लाला का ? क्यों भाई, पुराने वाले सरकारी सैनिक स्कूलों में क्या बुराई है ? कमी पैसों की नहीं है । खोट नीयत में है । निजी क्षेत्र वाले कैसी व्यवस्था करेंगे और कैसी शिक्षा देंगे यह समझना कोई मुश्किल नहीं है । जिन निजी स्कूलों को सैनिक स्कूलों का दर्जा दिया है और अनुदान दिया जाएगा उनकी सूची और वैचारिक प्रतिबद्धता का पता करेगा तो तुझे पता चलेगा कि वे किसी खास तरह की संकुचित विचारधारा से संबंध रखते हैं और हो सकता है कि सेना में भी वैसा ही वैचारिक विभाजन पैदा कर दें जैसा कि आज हमें समाज में दिखाई देता है । 


बोला- मास्टर, इतनी गूढ बातों से तो मेरा दिमाग चकराने लगा है । 


हमने कहा- दिमाग चकराने से कोई फायदा नहीं । एकदम सीधी बात है कूरियर वाला एक चिट्ठी  तमिलनाडु पहुंचाने के 100 रुपए माँगता है तो सरकारी पोस्टकार्ड 50 पैसे में पहुँच जाता है । सरकारी अस्पताल में 100-200 रु. में पीछा छूट जाता है तो प्राइवेट में मरीज के घरवालों की लंगोटी भी उतार ली जाती है । ये स्कूल भी अनुदान लेंगे सरकार से और नेताओं से मिलकर 50-50 । 


खैर, तू तो राजनाथ सिंह जी की ‘ड्राइविंग सीट’ पर एक किस्सा सुन-


आज से कोई 70-80 साल पहले एक ठाकुर साहब ने एक ड्राइवर रखा । 


बोला- इसमें क्या खास बात है । ठाकुर हैं ।रुतबा है । कोई काम अपने हाथ से थोड़े करेंगे । रथों के साथ सारथी होते थे तो बग्घी के साथ कोचवान । 


हमने कहा- ये ड्राइविंग सीट वाले ही पासा पलट देते हैं । अर्जुन को युद्ध जिताने में सारथी कृष्ण का बड़ा  योगदान था तो कर्ण  को हराने में नकुल सहदेव के मामा शल्य का । लेकिन हम तुझे ठाकुर साहब के जिस ड्राइवर का किस्सा सुना रहे हैं वह इनसे अलग है ।


हुआ यूं कि उन दिनों साइकल नई नई आई थी । आई तो कार भी नई नई ही थी लेकिन ठाकुर साहब की औकात कार खरीदने की थी नहीं । दारू पी पीकर रुतबे में मूँछें मात्र रह गई थीं । सो ठाकुर साहब ने किसी तरह से एक साइकल खरीदी । अब चूंकि ठाकुर साहब हैं तो ड्राइवर तो चाहिए ही । खुद कैसे चलाएं । 


तोताराम की उत्सुकता बढ़ी, बोला- फिर क्या हुआ ? 


हमने कहा- हुआ क्या ? ड्राइवर सीट पर और ठाकुर साहब पीछे कैरियर पर । ड्राइवर गाँव का ही कोई ‘अग्निवीर’ था । सो पहले ही दिन ‘अवसर में आपदा’ आ गई । अग्निवीर ने ठाकुर साहब को गिरा दिया और ठाकुर साहब के घुटने में जबरदस्त फ्रेक्चर हो गया । उम्र ज्यादा थी । हड्डी ठीक से जुड़ी नहीं, आज भी  लँगड़ाते हैं और अगर कोई साइकल की बात करे गालियाँ निकालने लगते हैं, मारने दौड़ते हैं; हालांकि दौड़ नहीं पाते । 



सो अब राजनाथ जी जाने और उनकी अर्थव्यवस्था की ड्राविंग सीट पर बैठे लाला जी । अपन ने तो चलने की बजाय ‘छलांग लगाने वाली अर्थव्यवस्था’  में पेंशन से गुजारा करना सीख लिया है । 


 



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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