Aug 21, 2009

प्रेमपत्र - हत्या, आत्महत्या और वीरगति


आदरणीय बूटा सिंह जी,

सत श्री अकाल । प्रिय स्वीटी को रिश्वत-काण्ड में फँसाये जाने के षडयंत्र के विरुद्ध आपने वीरों जैसा स्टेटमेंट दिया कि इस्तीफ़ा देने से तो मर जाना बेहतर है । ठीक है वीर लोग रण में पीठ दिखाने से मरना बेहतर समझते हैं । यदि पचास साल की जन-सेवा का यही पुरस्कार है तो यही सही । इस ज़ालिम संसार ने सेवकों को सदा ही दुःख दिया है । ईसा, कबीर, गाँधी किस को चैन से जीने दिया लोगों ने ?

मरने के तीन रूप हैं । हत्या में किसी व्यक्ति को छल से धोखे से मरवा दिया जाता है । राजनीति में किसी से उसके पद से इस्तीफ़ा ले लेना ही हत्या है । हालाँकि पद से इस्तीफ़ा देने के बाद शरीर तो जीवित रहता है लेकिन आदमी मरे से भी ज़्यादा हो जाता है । मरने के बाद तो आत्मा सुख-दुःख से शायद मुक्त हो जाती होगी पर इस्तीफ़ा देने के बाद तो अपनी दुर्गति व्यक्ति अपने सामने ही देखता है । जो झुक-झुक कर सलाम करते थे वे अनदेखा करके, सिर उठाये हुए चले जाते हैं । जो भेंट लाते थे वे दस रुपये उधार नहीं देते । बिजली, पानी, टेलीफोन, मकान किराया सब जेब से देना पड़ता है । अचानक नोन, तेल, लकड़ी का भाव मालूम हो जाता है ।

एक ही क्षण में चक्रवर्ती चूहा हो जाता है । पद पर होते हुए तो थानेदार भी परमीशन लेकर थाने ले जाता है मगर पद से हटने के बाद तो लाइन तोड़कर टेलीफोन का बिल भी जमा नहीं करवा सकते । वास्तव में इस्तीफ़ा देना तो आत्महत्या करने के समान है और वीर आत्महत्या नहीं करते । युद्ध में लड़ते-लड़ते मरना ही उनकी शोभा है । यदि पार्टी कोई और पद देने का आश्वासन दे तो अनुशासित सिपाही की तरह इस्तीफ़ा दे देना चाहिए । पहले आपने इस्तीफ़ा दिया था कि नहीं ? जन आक्रोश से बचने के लिए यदि कुछ दिन बिना पद के रहने की बात हो तो भी ठीक है पर यहाँ न तो बाद में कोई पद दिए जाने का आश्वासन और न ही मामले में बचाने की पुख्ता गारंटी । तब इस्तीफ़ा देने से क्या फायदा ? बिल्कुल मत दीजियेगा ।

आप संवैधानिक पद पर हैं और ऐसे में हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया है जो बहुत लम्बी है । तब तक क्या पता पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ जाए या क्या पता फैसला होने तक अगला चुनाव ही आ जाए । किसका क्या हुआ है जो आपका होगा । और फिर तब तक आपकी उम्र भी पचासी हो जायेगी और इतनी उम्र में तो और वह भी इतने पुराने जन सेवक को क्षमा दान भी आसानी से मिल जायेगा ।

न्याय, सत्य आदि के चक्कर में इस्तीफ़ा देना तो न वीरगति गति है और न ही समझदारी है वह तो शुद्ध मूर्खता है । हमारा विश्वास है कि आप इतने मूर्ख नहीं हैं । सांसद-रिश्वत-कांड में भी आपने बड़े धैर्य और समझदारी का परिचय दिया और देखिये आपको न्याय प्राप्त हुआ । भारतीय लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था पर विश्वास रखिये । सिबू सोरेन, लालू प्रसाद, सुखराम आदि की तरह आप भी खरे कंचन बन कर निकलेंगे । हमें तो यह भी लगता है कि यह सरकार अल्पसंख्यकों, हरिजनों की पक्षधर और धर्म निरपेक्ष बनने का दावा भी झूठा ही करती है वरना आप हरिजन, दलित और अल्पसंख्यक भी हैं फिर भी आपके साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखला रही है ।

वैसे अज़हरुद्दीन के साथ तो कुल मिलाकर ठीक ही किया । पहले अल्पसंख्यक होने के कारण कप्तान बना दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण हटा दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण फिर सांसद बना दिया । सो धैर्य रखने में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती ।

मगर बच्चों को फँसाने की बात तो समझ से परे है । यदि मास्टर का बेटा आपने बाप के साथ स्कूल में जाता है और एक चाक उठा लेता है तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा । पंडित जी के साथ क्या उनका बेटा जीमने नहीं जाता ? जब व्यक्ति जन सेवा करता है तो आपने बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दे पाता । स्वार्थी लोग तो देशहित से आँखें फेर कर बस अपने बच्चों का कैरियर ही संभालते रहते है तो उनके बच्चे अच्छी नौकरी भी पा जाते हैं । पर नेताओं के बच्चे इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं । ऐसे में क्या बच्चे दो रोटी भी न खाएँ । ऐसे प्यारे-प्यारे बच्चे क्या नरेगा में काम करेंगे ? हमने तो कभी अपराध करने वाले कालू, घीसू, बुधिया ही देखें है, कभी स्वीटी या सोनू, मोनू या लवली आदि को कोई अपराध करते नहीं देखा ।

अधिकतर नेता अपने बाप की कुर्सी पर बैठते हैं । उनका अपना कोई राजनीतिक योगदान नहीं होता । आप तो अपने बल पर नौकरी कर रहे थे- सन १९६० में ७५ रुपये की नौकरी । हमने भी १९६१ में नौकरी शुरू की थी एक सौ रुपये पर और २००२ में कोई १८ हज़ार की तनख्वाह पर रिटायर हुए । यदि नौकरी करते रहते तो आप भी पन्द्रह हज़ार पर रिटायर हुए होते और आज दस हज़ार रुपये पेंशन ले रहे होते । पर तब तो पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ी तो नौकरी छुड़वाकर चुनाव लड़वा दिया और अब नैतिकता झाड़ रहे हैं । अब जब जन सेवा की आदत पड़ गई तो कहते हैं घर बैठो । सेवकों को क्या घर बैठे चैन पड़ता है ? अगर यहाँ पार नहीं पड़ती है तो कोई घर देखते हैं । सच्चे जन सेवक किसी एक से बँध कर नहीं रहते । आपने जनसेवा के लिए ही तो १९९८ में कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सेवा की थी । वह नहीं तो अपनी माया भैन जी के साथ ही सही । उनको भी आजकल दलित होने के कारण लोग बहुत सता रहे हैं ।

हमने और आपने करीब-करीब एक साथ ही नौकरी शुरू की थी पर पता नहीं कैसे आप अस्सी को पर कर गए और हम तो मात्र सड़सठ के ही हुए हैं । हो सकता है कि आपने बहुत ओवर टाइम सेवा की है तभी हम से पन्द्रह साल बड़े हो गए । हममें इतना सेवा भाव नहीं था । बस घंटी बजी और घर आ जाते थे । हिन्दी विषय होने के कारण ट्यूशन की बीमारी भी नहीं लगी ।

आप तो इस उम्र में भी जन सेवा के लिए मन बनाये हुए हैं । हम आपकी जन सेवा की भावना को प्रणाम करते हैं । हमारा तो आपसे यही आग्रह है कि जन सेवा किसी भी हालत में नही छोड़ियेगा । हो सकता है कोई आपके पास संन्यास का प्रस्ताव लेकर आए तो उसे कहियेगा कि जब संन्यास का विचार सचिन को भी डराता है जिसकी कि उम्र कोई ज्यादा नहीं हैं और कहीं भी कोच की नौकरी पा सकता है तो आपको ही आखिरी वक्त में मुसलमान बनाने पर क्यों तुला है । किसी न किसी कुर्सी पर से ही सीधे विमान पर बैठ कर प्रभु के पास जाइयेगा तो उस स्थिति में वहाँ भी कोई न कोई पद मिल जाएगा वरना हमारी तरह यमदूत किसी वृद्धाश्रम में पटक देंगे ।

७-८-२००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

1 comment:

  1. जोशी जी ये लेख आज की गंदगी भरी राजनीति और राजनेताओ पर अति उत्तम और सटीक व्यंग है

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