Aug 10, 2009

विक्रम और वेताल - सांसद की समस्या


जैसे ही वीक एंड पर अंधेर नगरी के आजीवन राष्ट्राध्यक्ष महाराज चौपटादित्य जी संसद के कुँए से सत्य के शव को निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए राजधानी से बाहर निकले तो उसमें अवस्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम बड़े हठी हो । तुम कभी किसी की बात मानते ही नहीं । राजा को सत्य, न्याय जैसे छोटे मोटे कामों में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए । ये काम तो उसे अपने मातहतों पर छोड़ देने चाहियें । उसे तो नृत्य देखने, गाने सुनने, उद्घाटन करने, पुरस्कार बाँटने जैसे सात्विक और सांस्कृतिक कामों पर ध्यान देना चाहिए ।

तुम जाने कितने बरसों से सत्य को ठिकाने लगाने में समय बर्बाद कर रहे पर क्या सफलता मिली ? तुम्हें पता है, यह सत्य बड़ा चीमड़ होता है । पक्का नकटा । कुटेगा, पिटेगा, जला दिया जाएगा, काट दिया जाएगा, गाड़ दिया जाएगा पर जैसे ही दो बूँद पानी पड़ेगा तो दूब की तरह जाने कहाँ से निकल आएगा । जैसी खरपतवार किसान का पीछा नहीं छोड़ती वैसे ही राजाओं को यह सत्य बड़ा परेशान करता है । तुम्हें पता है दानवों ने संजीवनी विद्या सीखने आए कच को मारकर कूँए में डाल दिया, मारकर जला दिया, राख को दारू में मिला कर शुक्राचार्य को पिला दिया तो भी, भले ही शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ही सही पर कच के रूप में सत्य निकल ही आया ।

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, तू भले ही मुझे कच के रूप में धरती में गाड़ दे पर भगवान के लिए अब और भाषण मत झाड़ । मेरा सिर दुखने लगा है । बेताल ने उत्तर दिया- ठीक है राजन, मैं तुम्हें श्रम भुलाने के लिए एक कहानी सुनाता हूँ । और उस कहानी के अंत में एक प्रश्न पूछूँगा । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।

बेताल सुनाने लगा- दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यों तो चुनावों में सारे पहुँचे हुए लोग ही चुनाव जीतते थे पर एक बार ऐसा हुआ की एक थोड़ा कम पहुँचा हुआ आदमी लोकसभा का चुनाव जीत गया । निरा अनुभवहीन तो वह नहीं था फिर भी सफलता औकात से ज़्यादा थी । उसके स्वागत में शहर के भूमाफियाओं, सट्टेबाजों, घूसखोरों, दलालों, चोरों, उचक्कों ने जगह-जगह गेट बनवाये , अख़बारों में बधाई के विज्ञापन छपवाए, जुलूस निकले । साधारण लोगों ने भी मौके की नजाकत को समझ कर यही कहा कि उन्होंने उसे ही वोट दिया था । भले ही वे वोट डालने ही न गए हों । जब संसद ने हिसाब लगाया तो पाया कि उसके चुनाव क्षेत्र में जितने वोट पड़े थे
उनसे ज्यादा वोट उसे मिले हैं । वह समझ ही नहीं पाया कि उसे किसने वोट दिया और किसने नहीं । उसके लिये समर्थकों और विरोधियों को पहचानना मुश्किल हो गया । हे राजन, बताओ कि वह किसको अपना माने, किसका काम पहले करे ?

महाराज चौपटादित्य ने उत्तर दिया- हे बेताल, लोकतंत्र में सब कुछ अनिश्चित है । काम करनेवाला हार जाता है,हरामी जीत जाता है । पता नहीं कब सरकार गिर जाए । इसलिए लोकतंत्र में न कोई अपना है और न कोई पराया,न कोई समर्थक है और न विरोधी । सब मतलब से स्वागत करते हैं, बधाई संदेश छपवाते हैं । हारनेवाला कैसा भी हो मगर कोई उसका हाल चल पूछने भी नहीं जाता । बहुत से तो जीते हुए को खुश करने के लिए हारे हुए को गाली तक निकालने लग जाते हैं । इसलिए उसे किसी का काम नहीं करना चाहिए । जिस काम में अपना ख़ुद का फायदा हो वह काम करना चाहिए । हर काम की नीलामी करनी चाहिए । जो ज़्यादा पैसे दे उसका काम पहले करवाए ।

उत्तर सुनते ही बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२२-६-२००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

3 comments:

  1. अतिउत्‍तम....

    और क्‍या कहूं। मेरी खोपड़ी के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं। ही ही ही ही

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  2. wah maza a gaya betal

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  3. THATS THE REALITY , BECAUSE EVERYTHING IN THIS WORLD IS ILLUSION..............

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