Aug 9, 2009
तोताराम के तर्क - लोकतंत्र का पाँचवाँ स्तम्भ
दोपहर बाद की चाय पी रहे थे कि दरवाज़े पर एक कड़क आवाज़ सुनाई दी- बच्चा, दरवाज़ा खोल और दस का एक नोट निकाल । हमें बड़ा अजीब लगा । वैसे और भी कई लोग सुबह-सवेरे आते हैं जैसे- सब्जीवाला, छाछवाला, कबाड़ी आदि, पर पहले पैसा कोई नहीं माँगता । पहले भाव तय होता है, फिर नाप-तोल और फिर कहीं रुपये-पैसे की बात आती थी । मगर यह तो कुछ लेन-देन के बिना ही सीधे-सीधे ही दस का नोट माँग रहा है और वह भी दादागीरी के साथ । दरवाज़ा खोला तो देखा, न कोई साधु, न कोई भिखमंगा; खड़ा है तो एक फकीर टाइप मलंग ।
ठीक मुँह के सामने हाथ फैलाकर बोला- ला । हमने जानबूझकर अनजान बनते हुए पूछा- क्या ? बाबा और ज़ोर से बोले- क्या-क्या क्या कर रहा है ? दस का नोट निकाल । हमने टालने के लिए फिर बहाना बनाया-बाबा,आजकल आचार-संहिता लगी हुई है । आपको दस रुपया देकर कहीं जसवंत सिंह, मुलायम सिंह और वरुण गाँधी की तरह चुनाव आयोगवालों के चक्कर में तो नहीं फँस जायेंगे ?
बाबा ने ठहाका लगाया- तो तू अपने आपको जसवंत सिंह के बराबर समझता है ? अरे, वे तो राजा हैं राजा । जहाँ से चाहें जीत जायें, जहाँ से चाहे हार जायें । बड़े दिलवाले और दबंग इंसान हैं । चुनाव आयोग क्या राजाओं को दान-धर्म करने से रोक सकता है ? पहले जैसे पोते के जन्म दिन पर 'केसरिया' घुट्टी पिलायी थी तो लोगों ने बड़ा बवाल मचाया था पर क्या कर लिया ? अब भी उनका कुछ बिगड़ने वाला है । और फिर तू कौनसा चुनाव लड़ रहा है और हम कौन से वोटर हैं । जैसा तू वैसे हम । और फिर यहाँ कौनसा मीडिया वाला देख रहा है । फिर झुंझला कर बोले- हम भी साले किस फालतू बातों में लग गए । चल, ज़ल्दी से निकाल दस का नोट । टाइम खोटी मत कर ।
हमने बचने की एक और तरकीब सोची, बोले- बाबा,अप्रेल का पहला सप्ताह चल रहा है । मार्च के चक्कर में अभी पेंशन नहीं मिली है । कुछ दिन बाद आना । बाबा कौन से कम, बोले- तो ला चेक काट दे । हमने झूठ कहा- चेक बुक ख़तम हो गई है । बाबा फिर चिपके, ठीक है केश नहीं तो काइंड में ला । हम अन्दर गए और पीछा छुडाने के लिए एक सौ ग्राम आटा ला कर बाबा के सामने रख दिया । अब तो बाबा का पारा चढ़ गया । चिल्लाये- पच्चीस पैसे का आटा देकर बड़ा दानवीर बनना चाहता है । तुझे पता है इसकी कीमत है पच्चीस पैसे । अरे पच्चीस और पचास पैसे का तो लेन-देन भी ख़त्म हो गया । हमने कहा- पर यह बी.पी.एल. वाला गेहूँ नहीं है । वे बोले- हमारे लिए तो सब गेंहूँ सामान हैं । हम कौनसे गेहूँ ख़रीदते है । घर में चार-चार कार्ड हैं पर हमने तो सब चक्की वाले को दे रखे हैं । वह पाँच रुपये किलो के हिसाब से पाँच सौ रुपये महीने के दे जाता है । खाना तो हम 'अक्षय कलेवा' में खाते हैं ।
हमने बाबा को लपेटना चाहा, सुझाया- बाबा, क्यों न आप नरेगा में नाम लिखवा लीजिये । बाबा भी पहुँचे हुए- बोले उसमें भी नाम लिखवा रखा है पर आजकल नई-नई सरकार आई हैं ना सो ज़रा सख्ती चल रही है इसलिए एक सौ पर दस्तखत करके केवल तीस मिलते हैं । हमने कहा- पर इतने में तो आपका काम चल ही जाता है फिर यह माया मोह क्यों ?
बाबा की पिच ही हो गई- तो क्या तू हमें अपनी तरह समझ रखा है जो दो रोटी खाई और सो गए । क्या मोबाइल में सिम फ्री में डलती है ? क्या पौव्वा वाला मेरा बाप लगता है ? इसके बाद बाबा ने फोन लगाया- साले, अभी आ रहा हूँ । गुमटी बंद मत कर जाना । आज एक खूँसत मास्टर से फँस गया हूँ । ना कमबख्त ने धेला दिया और दिमाग चाट गया सो अलग ।
हमने कहा- बाबा, आपको तो किसी पार्टी का फंड मैनजर होना चाहिए । बाबा हँसे- तो क्या तू समझता है हम ऐसे ही हैं । अरे, हम हर जीतने वाली पार्टी के ग्रास रूट कार्यकर्ता हैं । हमने हाथ जोड़ कर कहा- आप विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के बाद लोकतंत्र के पाँचवें खम्भे हैं, पर हाथ, पैर, कान, आँख सभी दो-दो के पेयर में होते हैं । फिर आपकी इस विषम संख्या की क्या उपयोगिता हो सकती है ?
अबकी बाबा वास्तव में दिल से मुस्कराए-अरे, जब सारे खम्भे खिसक जायेंगे तब यह लोकतंत्र हमारे इस खम्भे पर ही टिका रहेगा ।
४-५-२००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
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