Dec 5, 2011

हाथ, हाथी और हाथीपाँव



दिग्विजय जी,

जय माता जी की । माताजी मतलब कि शेराँ वाली, अपन क्षत्रियों की आराध्या । आप का १७ नवंबर २०११ का ट्वीट पढ़ा । वैसे हमें यह ट्वीट वाला धंधा कुछ जँचता नहीं क्योंकि इसमें मेंढक के टर्राने की सी ध्वनि आती है या फिर तोते की टें-टें जैसी दर्दनाक आवाज़ सुनाई देती है । तुलसी बाबा होते तो इस टर्राने में भी वेद-पाठ की ध्वनि सुन लेते मगर हम में इतनी योग्यता कहाँ ? हमें लगता है कि लोग अपने ट्वीट के अनुयायियों के अनुसार अपनी लोकप्रियता मापते हैं । वैसे पाठक कम और दर्शक तो पूनम पांडे के ट्वीट पर भी बहुत जाते हैं मगर वह मामला दूसरा है । और फिर आपको किसी की फोलोइंग की ज़रूरत ही क्या है ? आप तो पहले ही 'दिग्विजय' हैं, दसों दिशाओं को जीते हुए । आजकल तो गली का कुत्ता भी जब देखता है कि गली में कोई दूसरा कुत्ता नहीं है तो अपने को गली का दिग्विजय समझने लगता है ।

हमें राजनीति में कोई रुचि नहीं है क्योंकि हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि राजनीति सीधे लोगों के बस का काम नहीं है । इसमें बहुत उल्टा-सीधा करना, कहना पड़ता है ।

तो आपने अपने ब्लॉग में बसपा के एक नारे की पैरोडी की ।
मूल-

चढ़ गुंडों की छाती पर ।
मोहर लगाओ हाथी पर ।

आपकी पैरोडी थी-

गुंडे चढ़ गए हाथी पर ।
गोली खाओ छाती पर ।

वैसे पैरोडी को लोग साहित्य नहीं मानते और यहाँ भी आपने मूल की पैरोडी ही की है । वैसे यह मूल भी किसी पैरोडी से कम नहीं है । एक साथ दो काम कैसे होंगे ? गुंडा कोई मरा हुआ थोड़े ही है ? हिल-डुल रहा होगा । अब ऐसे में मोहर गलत जगह लगाने के चांस रहते हैं । और फिर हाथी पर मोहर लगानी है जिसके लिए कुछ तो ऊँचाई पर जाना ही होगा । यदि सावधानी नहीं रही तो हो सकता है हाथी के पाँव तले शरीर का कुछ हिस्सा कुचल ही जाए ।

खैर, न आपको हाथी पर मोहर लगानी और न हमें । पर आपकी पैरोडी की पैरोडी पढ़ कर अच्छा लगा । चलो किसी में तो कविता के कीटाणु बचे हैं वरना इससे पहले ज़फर ने शायरी की और अंग्रेजों ने रंगून की जेल में डाल दिया । अटल जी ने शायरी की तो लोगों ने उन्हें कवि सम्मेलनों में उलझा लिया । इसके बाद जसवंत सिंह जस्सोल जी ने बजट में कुछ पैरोडी के चिह्न दिखलाए यो शीघ्र ही उन्हें पूर्णतया गद्यात्मक होना पड़ा और वह भी विवादास्पद गद्य । अब आपकी बारी है ।

इब्तदा-ए-इश्क में सारी रात जागे ।
अल्ला’ जाने क्या होगा आगे ?

वैसे कविता में बहुत शक्ति होती है यदि कविता हो तो । बिहारी के एक दोहे ने जयपुर के राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य की याद दिला दी थी । रत्नावली के एक दोहे ने तुलसीदास जी को राम भक्ति की ओर मोड़ दिया था । आजकल जो कविता होती है उससे लोग प्रभावित कम और आतंकित अधिक होते हैं और मंच पर कवि के आने से पहली ही खिसकने लग जाते हैं । आप कविता के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं पर आपकी कविता में राजनीति और स्वार्थ अधिक है इसलिए पता नहीं सब को अच्छी लगेगी या नहीं । यहाँ हम तो आपके इस मार्ग पर आने में ही खुश हैं ।

आपकी इस पैरोडी में वैसे तो मात्रा-दोष हो सकता है मगर कविता की तुक और मात्रा को आजकल कम देखा जाता है क्योंकि इतना समय ही किसके पास है ? बस सामने वाले को हलकान कर दे वही कविता श्रेष्ठ है । जैसे कि एक मियाँ जी ने जाट के पग्गड़ को लक्ष्य करके कहा-
जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट ।
जाट ने भी मियाँ की झब्बे वाली टोपी पर तत्काल उत्तर दिया-
मियाँ रे मियाँ, तेरे सिर पर कोल्हू ।

मियाँ ने गलती निकाली- मगर तुक तो नहीं मिली ।
जाट ने कहा- तुक से क्या होता है, जब उठाएगा तब पता चलेगा ।

सो आपकी पैरोडी भी वजनदार तो है ही । और साथ में इसमें आपके क्षत्रियत्व की भी झलक मिल जाती है कि गोली पीठ में नहीं, छाती पर खाओ । काश, इस गोली से बचने का उपाय भी साथ-साथ बता देते । मगर लोकतंत्र में नारे ही होते हैं । गरीब को तो गोली या जूते खाने ही पड़ते हैं चाहे सिर पर हों या पीठ पर या छाती पर । चाहे दिल्ली में हों या लखनऊ में हों । एक किस्सा सुनाते हैं । तब की बात है जब दलितों से बेगार ली जाती थी । इससे तंग आकर एक बेचारा आत्महत्या करने के लिए कुएँ में जा गिरा । वहाँ एक मेंढक ने उससे जाति पूछी और फिर कहा- चल, मुझे अपने सिर पर बैठाकर कुएँ की सैर करा । गरीब को तो कुएँ में भी बेगार । वैसे आपके लिए यह किस्सा नया नहीं होगा क्योंकि आप भी तो राज-परिवार से हैं ना और ऊपर से दिग्विजय ।

माफ करिएगा सिंह साहब, हम पता नहीं किस झोंक में विषय से बहुत दूर निकल आए । शीर्षक तो हाथ, हाथी और हाथी पाँव से शुरु हुआ था और कहाँ कविता और बेगार को ले बैठे । हमारे हिन्दी में बहुत से पर्यायवाची शब्द होते हैं । हमारे यहाँ गुण, आकार, भावना और विचार के अनुसार भी शब्द बना लिए जाते हैं । इसीलिए हिंदी में इतने पर्यायवाची हैं मगर अंग्रेजी में नहीं है । विष्णु के तो हजार नाम हैं । हम जिस तरह से हाथ से काम करते हैं उसी तरह हाथी अपनी सूँड से काम करता है तो इस सूँड को उसका हाथ मानकर उसका नाम हाथी रख दिया और फिर तो गाड़ी चल निकली जैसे हस्त से हस्ती, कर से करी ।

तो हमें तो हाथ वाले आदमी और सूँड से हाथ का कम लेने वाले हाथी में कोई फर्क नज़र नहीं आता । गिलहरी, खरगोश और कुत्ता अपने अगले पाँवों से हाथ का काम लेते हैं । कभी आपने कुत्ते को मिट्टी खोदते देखा है ? लगता है कोई मजदूर फावड़े से मिट्टी खोद कर फेंक रहा है । सूअर अपनी थूथनी से ही काम चला लेता है । कई विकलांग तो पैरों में कलम पकड़ कर लिखते हैं और परीक्षाएँ भी पास कर लेते हैं । कुत्ता तो अपनी पूँछ से ही सारे भाव व्यक्त कर देता है । इसीलिए ही दिल्ली में कुत्तों की पूँछ काटने पर पाबंदी लगा दी गई है । जाने कहाँ-कहाँ से बेचारे कुत्ते अपना भविष्य सँवारने के लिए दिल्ली आते हैं । और जब पूँछ ही नहीं होगी तो अपनी-अपनी हाई कमांड से कैसे संवाद करेंगे और कैसे रिझाएँगे ? हाथ और हाथी की राजनीति आप जानें । हम तो हिंदी के मास्टर रहे हैं सो शब्दों के चक्कर में पड़ गए ।

इसी शब्द-परिवार से एक बीमारी भी होती है- हाथी पाँव । इसमें बीमार का पाँव हाथी के जैसे मोटा हो जाता है । वैसे वज़न कितना बढ़ता है यह तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है । वास्तव में इस बीमारी का मरीज भी किसी न किसी तरह चलता-फिरता और अपना काम करता ही है मगर जब यह बीमारी सरकारों को हो जाती है तो फिर वे कोई भी कदम नहीं उठा पातीं । लोग फरियाद ही करते रहते हैं कि मेरी सरकार, कोई कदम तो उठाओ, कड़ा नहीं तो पिलपिला ही सही मगर उठाओं तो सही । पर कदम है कि उठता ही नहीं । वैसे पैर तो भारी औरतों के भी होते हैं मगर वे भी कदम उठाती ही हैं मगर सरकारों के कदम पता नहीं, कितने भारी हो जाते हैं कि उठते ही नहीं । ऐसे में जनता ही कभी-कभी पकड़ कर उसके कदम उठवाती है । ऐसे में सरकार गिर भी जाती है ।

हमने कभी सुना नहीं मगर जब 'हाथी-पाँव' की बीमारी होती है तो 'हाथी-हाथ' की बीमारी भी होती ही होगी । वैसे बड़े आदमियों का तो क्या हाथ और क्या पैर जो भी भले आदमी पर पड़ जाए तो बस, मामला साफ़ ही समझो । खैर, आप हाथी पाँव के एक मरीज का किस्सा सुनिए । इस बीमारी के कारण उस आदमी का पाँव बहुत मोटा हो गया था । वह जब भी कभी गुस्सा होता तो अपनी पत्नी को कहता- देखा है ना, पाँव ? एक जमा दूँगा तो कचूमर निकल जाएगा । बेचारी डरती रहती । एक दिन उसने कहने की जगह पत्नी को एक लात जमा ही दी । उसके बाद तो पत्नी को पता चल गया कि यह पाँव बस देखने में ही मोटा है । इससे होना-जाना कुछ नहीं । अब तो वह खुद ही पति पर हावी हो गई ।

हमें लगता है कि महँगाई, भ्रष्टाचार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी के सामने सरकरों की ताकत के 'हाथी-पाँव' का भ्रम भारत में ही नहीं, अमरीका तक में खुल गया है । इसलिए झूठे पाँव पटकने की बजाय जैसे भी कदम उठते हों, उठाना चाहिए वरना बहुत विलंब हो जाएगा ।

२३-११-२०११

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

4 comments:

  1. मैंने ये लेख कोपी कर ली है, सबको भेजूँगा।

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  2. पूरा लेख कोपी करने के बजाय लिंक भेजें तो आसान और बेहतर रहेगा |

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  3. जाट जी !कॉपी करके या लिंक बिखेरने का कौनो फायदा नय है,जिनको पढ़ना और सोचना है उनके पास इस सबके लिए टाइम नहीं है !

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  4. गज़ब लिखा है जोशी साहब। जितनी बार आपको पढ़ा है, आपके लेखन के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है।

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