(सन्दर्भ: क्लिंटन ने जयपुर की रसोई 'अक्षय-पात्र' रसोई में पूछा- ये रोटियाँ फूलती कैसे हैं ?)
हमेशा राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और उच्च स्तर के प्रश्न करने वाले तोताराम ने आज नितांत निम्न स्तर का, माया-मोह में लिपटा प्रश्न किया- मास्टर, रोटियाँ कैसे फूलती है ?
अब क्या उत्तर दें ? अरे, यह रोज़ का काम है | करोड़ों घरों में रोटियाँ बिलती हैं, सिकती हैं, कुछ कच्ची रह जाती हैं, कुछ ढंग से सिक जाती हैं, कुछ जल जाती हैं |कुछ फूल जाती हैं, कुछ नहीं फूलती हैं | हर रोटी का अपना-अपना भाग्य है | कुछ तवे से उतरने से पहले ही उतावले हाथों में आकर कच्ची पक्की का विचार किए बिना ही पेट में पहुँच जाती हैं | कुछ फूली हुईं भी एक के ऊपर एक पड़ी किसी खाने वाले का इंतज़ार करते-करते सूख या सड़ जाती हैं |
यदि वैज्ञानिक उत्तर दें तो यह कि जब नीचे से बहुत तेज़ आंच लगती है तो अपनी प्राण रक्षा करने के लिए रोटी फूलकर आग को डराती है या अपना आकार बढाकर उस गरमी को इधर-उधर विस्तारित करके बचने की कोशिश करती है जैसे कि कुछ जानवर खतरा सामने आने पर कभी अपने बालों , काँटों को खड़ा करके, अपना आकार बढाकर शत्रु को डराने की कोशिश करते हैं जैसे बिल्ली, सेही | ज़मीन पर अंडा देने वाली कुछ चिड़ियाँ भी अपने अण्डों के आसपास से गुज़रने वालों को अपने पंख फुलाकर डरती हैं |
लेकिन हमने एक सामान्य और स्वाभाविक उत्तर दिया- तोताराम, रोटी का उद्देश्य है किसी भूखे की भूख मिटाना | यही उसकी सार्थकता है | और जब रोटी देखती है कि कोई अपनी भूख मिटाने के लिए उसके सिकने का इंतज़ार कर रहा है तो रोटी को अति प्रसन्नता होती है और वह ख़ुशी के मारे फूल जाती है | इसी भाव से नजीर अकबराबादी ने लिखा है -
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ |
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ ||
तोताराम को इससे संतोष नहीं हुआ | बोला- बन्धु, प्रश्न इतना साधारण नहीं है | यदि ऐसा ही होता तो विज्ञान में इतने अग्रणी देश अमरीका का भूतपूर्व राष्ट्रपति यह प्रश्न पूछने के लिए दल-बल सहित जयपुर में मिड डे मील बनाने वाली संस्था 'अक्षय पात्र' की रसोई में रोटियों के फूलने के बारे में शोध करने के लिए नहीं आता |भले ही क्लिंटन ने वहाँ खाना परोसा, खाया; लेकिन न नाचा न कूदा बस, एक ही महत्त्वपूर्ण और काम का प्रश्न पूछा- ये रोटियाँ फूलती कैसे हैं ?
हमने कहा- इसमें आश्चर्य करने की क्या बात है ? अमरीका में रोटियाँ बनती ही कहाँ है ? पिज़्ज़ा, ब्रेड, बर्गर मिलते हैं जो बड़े-बड़े कारखानों में बनते हैं और दुकानों में पड़े रहते हैं | खरीदो और खाओ | जिस देश में बच्चे दूध देने वाले पशु के रूप में फ्रिज और अंडे के बारे में इतना ही जानते हैं कि अंडे पेड़ों पर लगते हैं, उन्हें रोटी के फूलने का क्या पता | उनके लिए तो जो कुछ बाज़ार खिला दे सो ठीक है |
अमरीका में तो दो ही तरह के फूलने की चिंता है- एक तो मोटापे के कारण वयस्कों के शरीर फूलने की और दूसरे स्कूलों में निरोध का उपयोग करने में लापरवाही करने पर वाली कुंवारी किशोरियों के पेट फूलने की |
कहने लगा- बात इतनी सरल नहीं है | तू नहीं समझेगा इस चतुर देश की दूरगामी योजना | रोटी फूलने की इस तकनीक को जानकर अब यह ऐसी चीजें बनाएगा जो दिखने में बहुत फूली और बड़ी होंगी | फिर उन्हें हमारे जैसे बेवकूफ देशों को बेचेगा लेकिन तोल कर नहीं बल्कि गिनती से | जब तक घर पहुंचोगे तब तक बीस किलो समझकर ख़रीदा माल ५०० ग्राम का हो जाएगा या जैसे यहीं के पानी में एक रूपए का पाउडर मिला कर उसमें झूठा उफान लाकर दस रूपए में बेच दिया जाता है जिससे शरीर को कीटनाशक के अलावा मिलता कुछ नहीं |
१९ जुलाई २०१४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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