कुत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ?
‘वोल्गा से गंगा' महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा १९४३ में प्रकाशित एक कहानी संग्रह है, जिसकी कहानियां इतिहास में मानवीय सभ्यता के विकास में घटी घटनाओं के मद्देनजर लिखी गई हैं. 'वोल्गा से गंगा' हमारे सभ्य समाज के शुरुआती युग के मातृसत्तात्मक होने को प्रतिपादित करती है.
तब समाज तथाकथित रूप से सभ्य नहीं बना था,आदिम था । आदमी को अपने बल पर जीवन का खेल खेलना पड़ता था । हर जीवन के अपने नियम, विधि निषेध ।जितने जीव उतने धर्म, उतने ही तंत्र । किसी के लिए लैंगिक, यौनिक, नस्लीय, आर्थिक, सामाजिक स्थिति के आधार पर न किसी विशेष सुविधा की व्यवस्था और न ही प्रतिबंध का कोई प्रावधान । न सेवक-सेव्य भाव, न स्वामी न दास । न ऐसी व्यवस्था को मजबूत और निरंतर बनाए रखने के लिए किसी दैवीय या लौकिक विधान की रहस्यमय, कठोर और प्रतिबंध पूर्ण मशीनरी । अंश और अंशी का खुला खेल ।
इसके बहुत बाद हमारे यहाँ मनु महाराज और अन्य दूरस्थ स्थानों, महाद्वीपों में भी वहाँ के किन्ही और मनु महाराजों ने लिखा होगा-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥मनुस्मृति ३.५६
जिस स्थान पर स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं अन्यथा उस स्थान पर वहाँ के सभी धर्म और कर्म निष्फल हो जाते हैं ।
बिना किसी प्रमाण और विमर्श के हम अपने मन में सोचें- क्या वास्तव में दुनिया के किसी समाज, धर्म और व्यवस्था में स्त्रियों की ऐसी स्थिति विद्यमान है ? पूजा के नाम पर विशिष्ट अवस्था या व्यवस्था की आड़ में बहुत सी बातें और सच छुप जाते हैं । समानता की बात हो । क्या समानता है ? नहीं ।
यह विषमता सभी समाजों, धर्मों में कमोबेश है । सभी प्रकार से पुरुष के सामने, अपने समाज के अन्यायों से अतिरिक्त प्रताड़ित स्त्री उस समाज के पुरुष से भी अधम और शोषित, प्रताड़ित है । तभी शबरी अपने यहाँ पधारे राम से कहती है-
अधम ते अधम नारि जग माहीं ।
कौन है यह नारी ? जो अधमों में भी अधम। और पूज्यों से भी पूज्य कही गई है ।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल का १२९वां सूक्त है जिसे ‘न असत’ से प्रारंभ होने के कारण 'नासादीय' सूक्त कहा जाता है। इसमें सृष्टि के प्रारंभ से पहले की और इसके स्रष्टा और ज्ञाता की अकल्पनीय कल्पना की गई है । और अंत में मंत्रकार ने हथियार डाल दिए और कहा- इसका उत्तर सम्भवतः देवता भी नहीं जानते होंगे क्योंकि वे भी सृष्टि की उत्पत्ति के बाद उत्पन्न हुए ।’
इसलिए हमारे जानने का तो प्रश्न ही नहीं । फिर भी हम इतना तो देखते ही हैं कि यह सृष्टि जिसे हम ‘उस पूर्ण पुरुष’ की ही रचना कहते हैं, में , 'नारी' जिसके अहसानों और आकर्षणों से घबराकर कर पुरुष उसे माया, छलना, बांधने वाली, नरक का द्वार कह कर संत, महात्मा और ज्ञानी बना फिरता है । हमारा अस्तित्व उसी 'नारी' से है । वही हमें सहज भाव से सहेजती है । अपने रक्त, मांस-मज्जा से हमारा निर्माण करती है । वह हर रूप में माँ है, धात्री है ।
पितृत्व अनुमानित और असत्य हो सकता है लेकिन मातृत्व साक्षात, प्रमाण निरपेक्ष है, प्रमाणातीत है । तभी गौतम सत्यकाम को उसके उत्कट मातृत्व के कारण किसी ऋषि का नहीं, उसकी माँ का नाम देते हैं- सत्यकाम जाबालि ।
वैसे सृष्टि के लिए बीज की आवश्यकता कोई ज्ञान-विज्ञान प्रमाणित नहीं है फिर भी यदि पुरुष बीज है तो सृष्टि में अनगिनत बीज नष्ट होते रहते हैं । जितने भी जन्म लेते वे सब ‘माँ’ नारी के कारण हैं अन्यथा सब व्यर्थ, निरर्थक, बंजर । मानव समाज की आज की एकांगी अवधारणाओं को एक तरफ कर दें तो समस्त दृश्य जगत, सृष्टि मातृ स्वरूप ही है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। अहैतुक । देने ही देने वाले ।
नारी भी तो देती ही देती है । हर रूप में ।और उसका प्रत्युत्तर--- चुनौती देने के लिए बहिन का विरूपण किया जाए और प्रतिशोध लेने के लिए पत्नी का अपहरण । युद्ध में विजेता जश्न के रूप में विजित की स्त्रियों और कन्याओं से बलात्कार करे, वस्तुओं की तरह उनका बाँट-बखरा करे ।ज्ञान प्राप्ति के लिए , समाज सेवा के लिए भी परित्यक्तन नारी का ही । क्रोध में कठोर शब्दों के लिए भी उसी का अश्लील शाब्दिक अपमान । किसी का भी धर्म-नाम उसका परिचय, अमुक की बहू, बेटी, माई उसकी पहचान । सम्पूर्ण समर्पण का कैसा प्रतिदान ?
क्या बीज ही सब कुछ है ? भूमि का भी तो कोई स्वाद और लज्जत होती होगी ? नहीं तो फिर किसी संतरे के नागपुरी होने, किसी अमरूद के इलाहाबादी होने,या किसी आम के बनारसी लंगड़ा होने का क्या अर्थ है ?
हजारी बाबू की महामाया कहती है- 'अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ देना ही नारीत्व है '। लेकिन उसे ऐसे ही वाक्यों या ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ की आड़ में हर बार और हर तरह से निचोड़ा जाना कहाँ तक उचित है ?
आगे महामाया निपुनिका से कहती है- नारी की सफलता पुरुष को बांधने में है लेकिन उसकी सार्थकता उसे मुक्त कर देने में हैं ।
और भी- जब पुरुष में स्त्री के गुण आ जाते हैं तो वह ‘संत’ हो जाता है ।
क्या हम (इस तथाकथित महिला दिवस ८ मार्च पर ) आशा करें कि पुरुष अपने झूठे अहंकार को त्यागकर (वैसे अहंकार झूठ ही होता है । और जो जितना ओछा होता है उसका अहंकार भी उतना ही बड़ा होता है ) , नारी को नरक का द्वार बताना छोड़कर, स्त्री के गुणों को अपनाकर सच्चे संतत्व की ओर अग्रसर होगा ?
नारी की छाया में यह सृष्टि अधिक सुरक्षित और संवेदनशील है और भावप्रवण है जैसे उसके गर्भ में स्थापित शिशु ।
लेकिन अभी तो प्रश्न और तलाश वहीं के वहीं है ।
कुत्र नार्यस्तु पूजयनते ?
लेकिन अभी तो प्रश्न और तलाश वहीं के वहीं है ।
कुत्र नार्यस्तु पूजयनते ?
यदि वह इस आरोपित पूजनीयता के स्थान पर ऋषियों-मुनियों,ब्रह्मचारियों या महापुरुषों की तरह स्व या समाज के कल्याण के लिए एक इकाई के रूप में विकसित होना या रहना चाहे तो क्या इसे अस्वीकार्य माना जाना चाहिए ?
यदि हाँ, तो फिर-------पूज्यन्ते का अर्थ ?पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
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क्या हम (इस तथाकथित महिला दिवस ८ मार्च पर ) आशा करें कि पुरुष अपने झूठे अहंकार को त्यागकर (वैसे अहंकार झूठ ही होता है । और जो जितना ओछा होता है उसका अहंकार भी उतना ही बड़ा होता है ) , नारी को नरक का द्वार बताना छोड़कर, स्त्री के गुणों को अपनाकर सच्चे संतत्व की ओर अग्रसर होगा ?
ReplyDeleteबहुत सही सवाल!
https://www.youtube.com/watch?v=z34Xha_vQFE