लालू जी,
लोग भले ही आपको घोटालिया, भ्रष्ट, चाराचोर, परिवारवादी - कुछ भी कहें मगर हमारी निगाह में तो आप 'साधू' हैं । वैसे 'साधू' में कुछ लोग 'उ' ह्रस्व लगाते हैं, तो कुछ दीर्घ । पर मात्रा से क्या होता है ? मात्रा तो लगाने वाले पर निर्भर है- छोटी लगाए या बड़ी । असली मात्रा तो गुणों की होती है । 'साधू' में और किसी भी चीज की मात्रा चाहे कम हो मगर ज्ञान, गुण, गरिमा और जिज्ञासा की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए । सो आपमें ये चारों गुण पर्याप्त मात्रा में हैं । कबीर ने भी अपने दोहे में 'साधू' लिखा है-
सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय ।।
इस दृष्टि से हमें आप सच्चे 'साधू' नज़र आते हैं भले ही लोगों ने आपके साले साहब को 'साधू' के नाम से प्रसिद्ध कर रखा है । यदि उसमें कोई साधूपना सचमुच में है तो वह आपके संरक्षण, संगति और सत्कर्मों का ही प्रभाव है ।
आपने अपने 'साधूपने' का प्रत्यक्ष प्रमाण संसद में अन्ना हजारे के आन्दोलन पर विचार व्यक्त करते हुए दिया । जब आप भाषण दे रहे थे तो श्रोता ऐसे सुन रहे थे जैसे कि अर्जुन भगवान कृष्ण से गीता का उपदेश सुन रहे हों । किसी के मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी । सब आपके वचनामृतों का पान कर रहे थे । किसी ने भी कोई विरोध नहीं किया क्योंकि आपके आप्त वचनों में विरोध करने जैसी कोई बात थी ही नहीं । जब कभी मंत्रमुग्ध सांसदों को थोड़ा-सा होश आता था तो मेजें थपथपा कर आपका समर्थन करते थे । भले ही हम नगरपालिका के वार्ड मेंबर तक भी कभी नहीं रहे पर संसद के कई अधिवेशनों को हमने दर्शक दीर्घा से देखा है । बहुत से चुनाव भी करवाए हैं और बच्चों को नागरिक शास्त्र भी पढ़ाया है मगर ऐसी अद्भुत, निर्मल, सकारात्मक एकता और शालीनता संसद में कभी देखने को नहीं मिली ।
भले ही कुछ निंदक संसद को चोरों का अड्डा कहें, आँकड़ेबाज़ कहें कि संसद में आधे से ज्यादा हिस्ट्रीशीटर और अभियुक्त हैं मगर हमें तो उस दिन का अधिवेशन देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि नेमिषारण्य में भागवत कथा हो रही हो । सारे संत लोभ मोह, स्वार्थ, सुख त्याग कर केवल लोकतंत्र, संसद, संविधान की ही चिंता में मुग्ध थे । ठीक भी है - ए.राजा, कलमाड़ी, साधू यादव, पप्पू यादव, सुखराम, फूलन देवी और आप जैसे संतों ने जिस लोकतंत्र, संविधान और संसद को अपने खून पसीने से सींचा है उसे एक अन्ना हजारे जैसे सिरफिरे आदमी के कारण नष्ट-भ्रष्ट और ध्वस्त तो नहीं होने दिया जा सकता ना ।
अन्ना हजारे जैसे संविधान, संसद और लोकतंत्र के शत्रुओं से तो आप और संसद में बैठे सारे संत एकजुट होकर निबटेंगे ही पर हमने आपको शुरु में ही 'साधू' शब्द से संबोधित किया था उसकी बात तो भूले ही चले जा रहे हैं । साधू की सबसे बड़ी पहचान यही होती है कि वह व्यर्थ बातों को छोड़ कर केवल सार को ही ग्रहण करता है । अन्ना ने कितनी ही अनर्गल बातें कीं मगर आपने उसमें से एक काम की बात छाँट ली कि डाक्टरों को इस बात की जाँच करनी चाहिए कि चोहत्तर बरस का एक बूढ़ा आदमी कैसे बारह दिन तक भूखा रह सकता है ?
वैसे भूख बहुत बुरी होती है । कहते हैं 'भूख में किवाड़ पापड़' । हमारी दादी बताया करती थी कि जब संवत १९५६ में अकाल पड़ा तो भूखे लोग पेड़ों के छिलके तक खा गए । हमें तो पता नहीं पर अपनी सत्तर साल की छोटी सी उम्र में इतना तो हमने भी देखा है कि भूख से पीड़ित जनसेवकों ने भूख मिटाने के लिए सीमेंट, चारा, कोलतार, ब्लेक-बोर्ड, चाक, बिजली के खम्भे, पत्थर, गिट्टी जैसी न खाने योग्य वस्तुएँ खाकर भी किसी तरह काम चला लिया मगर कभी किसी सड़क पर चलते मनुष्य, कुत्ते-बिल्ली को पकड़कर खाने जैसा हिंसक काम नहीं किया ।
वैसे भूख ही इस दुनिया में सबसे बड़ी बीमारी और समस्या है । लोग स्वर्ग इसीलिए जाना चाहते हैं कि वहाँ भूख-प्यास का चक्कर नहीं है । इस 'भूख' से लड़ने के लिए अन्ना हजारे ही यह 'अनशन-कला' देश हित में लाभदायक हो सकती है । आपके अलावा और किसी सांसद ने इस 'अनशन कला और विज्ञान' के महत्त्व को नहीं समझा । आपने इस सारे धुआँधार में से 'सार' को निकाल लिया । हमने आपको ऐसे ही न 'साधू' थोड़े कहा है ? यदि देश के सभी बी.पी.एल. कार्डधारी महिने में बारह क्या, आठ दिन भी सफलतापूर्वक अनशन कर सकें तो सोचिए नरेगा, सस्ता अनाज और मध्याह्न भोजन का कितना अन्न ‘सेवकों’ के खाने के लिए बच जाएगा ? सरकार सस्ता अन्न विदेशों को निर्यात करके कितनी विदेशी मुद्रा कमा सकेगी ? फिर शायद कोई भी सेवक कोई अखाद्य वस्तु खाने को विवश नहीं होगा ।
अन्ना ने अपनी इस 'भूख भगा तकनीक' का रहस्य ब्रह्मचर्य को बताया है । पर हमें लगता है कि वे सच छुपा रहे हैं । लगता है कि वे गुपचुप इसका पेटेंट करवाएँगे । हमारा तो मानना है कि जब कोई व्यक्ति किसी महान कार्य में व्यस्त हो जाता है तो वह सरलता से भूख प्यास को जीत लेता है । इसीलिए हमने कई-कई बीवियों और दसियों बच्चे वाले नेताओं के फोटो देखें है मगर उनमें वे कहीं भाषण दे रहे हैं, कहीं उद्घाटन कर रहे हैं, कहीं साफा पहने हुए हैं, कहीं शिलान्यास कर रहे हैं । नेताओं के बहुत कम फोटो हमने देखे हैं जिनमें वे खाना खा रहे हों । यदि कभी भूले से खाना खाते भी हैं तो ऐसे जैसे कि भगवान शबरी के बेर चख रहे हों ।
अन्ना की इस तकनीक का पता तो जब चलेगा, तब चलेगा मगर हमारा मानना है कि रक्षामंत्री एंटनी और वित्तमंत्री प्रणव मुकर्जी से कह कर अन्ना की पेंशन अभी से तीन चौथाई कम करवा दी जानी चाहिए क्योंकि उनके न तो बीवी है और जब बीवी नहीं है तो बाल-बच्चे भी नहीं हैं । और फिर बड़े आराम से महिने में आठ-दस दिन भूखे भी तो रह सकते हैं ।
वैसे जहाँ तक तकनीक का सवाल है तो तकनीकें तो आपके पास भी कम नहीं हैं । राबड़ी जी ने भैंस का दूध और सब्जियाँ बेचकर बच्चों को मेयो कालेज में पढ़ाया और दस-बारह बच्चों को भर पेट खाना खिलाया और चुनाव के लिए भी खर्चा जुटाया । ज़रूर आपने भैंस की कोई ऐसी नस्ल विकसित की होगी जो कामधेनु की तरह दूध क्या, सब कुछ दिए ही चली जाती है । अच्छा हो कि आप भैंस की ऐसी नस्ल विकसित करने की तकनीक देश को मुफ्त में उपलब्ध करवा दें जिससे सभी दूधिए अपने बच्चों को मेयो कालेज में पढा सकें और राजनीति करने के लिए चुनाव का खर्चा जुटा कर देश की सेवा भी कर सकें । इसी तरह से पेट्रोल की समस्या से जूझ रहे देश को उस तकनीक से भी अवगत करवा दें जिसमें एक स्कूटर हरियाणा से चार भैसों को पटना ले जा सके ।
वैसे तो भुखमरी से जूझ रही दुनिया के लिए भूख मिटाने या भगाने या अनशन की तकनीक ज्यादा ज़रूरी है मगर अब भी कुछ ऐसे सेवक हैं जिनके पास अनाप-शनाप पैसा है । वे खाने के अलावा उस पैसे का कोई उपयोग नहीं जानते । हाजमोला और दशमूलारिष्ट का सेवन करने के बाद भी पैसा है कि निबट ही नहीं रहा है । इसलिए अच्छा हो कि आप वह तकनीक ऐसे नेताओं के लिए मुफ्त में उपलब्ध करावा दें जिससे आपके कार्यकाल में एक मुर्गी एक दिन में आठ सौ रुपए का खाना खा लेती थी जो कि आज के हिसाब से कोई पाँच हज़ार रुपए का बैठता होगा । और उसे अजीर्ण भी नहीं होता था ।
खैर, ये तो छोटी बातें हैं । गरीब हो या अमीर खाना-पीना तो चलता ही रहता है । सबसे बड़ी बात आपने जो उठाई वह है संसद और संविधान की गरिमा की । लोगों ने तमाशा समझ रखा है । उन्हें पता नहीं किस तरह शहीदों ने अपने भारत को आज़ादी दिलवाई और किस तरह उस समय के महान नेताओं ने यह संविधान बनाया और आज, कैसे आप जैसे सेवाभावी नेता जाने कहाँ-कहाँ से पेट काट कर पैसे जुटाकर, सारी सुख-सुविधाएँ छोड़कर, अपने परिवार के सारे सदस्यों को इस पुनीत कार्य में लगाकर उस संविधान की रक्षा के लिए चुनाव लड़ते हैं, यह बात सरकारी नौकरी करने वाले, छोटा-मोटा व्यापार करने वाले, किसान मज़दूर क्या समझेंगे ? इन्हें इतनी बड़ी बातों की खबर ही नहीं और न ही इतना सेवा-भाव । यह तो नेता ही जानता है कि सेवा धर्म कितना कठिन है ? कौन है जो कलमाड़ी, ए.राजा. कनिमोझी, सुखराम और आपकी तरह जनता की सेवा करते हुए जेल के कष्ट भोगता है ? अन्ना हजारे, किरण बेदी सब मजे से अपनी पेंशन पेल रहे हैं और भाषण झाड़ रहे हैं । शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने कौन सी अपनी प्रेक्टिस छोड़ दी । सब अपना धंधा कर रहे हैं । ये तो आप, मुलायम और मायावती जैसे लोग हैं जो कोई अपनी खेती, कोई मास्टरी, कोई डेयरी छोड़कर देश की सेवा कर रहे हैं और संविधान की रक्षा कर रहे हैं वरना ये अन्ना हजारे जैसे लोग कब के संसद भवन की ईंटें उठा ले जाते और संविधान की किताब को रद्दी में बेच देते ।
सबसे अच्छी बात यह देखने को मिली कि संविधान की रक्षा के लिए सारे सांसद एकमत दिखाई दिए । ठीक भी है, ये आलतू-फालतू लोग और मनमोहन जी, अरुण जेतली, गुलाम नबी आज़ाद जैसे राज्य सभा के थ्रू दंड पेल रहे लोग क्या जानें कि चुनाव के खर्चे, समस्याएँ और खुराफातें क्या होती हैं, संविधान और लोकतंत्र क्या होता है ? और फिर कितना बड़ा उद्योग है संविधान की रक्षा करना ? लाखों पुलिस, लाखों नेता, करोड़ों चमचे, गुंडे, अपराधी इस काम में लगे हुए हैं । यदि संविधान को कुछ हो गया तो ये सब क्या खाएँगे, कहाँ जाएँगे और सबसे बड़ी बात यह कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र होकर, सबसे धनवान लोकतंत्र अमरीका को क्या मुँह दिखाएँगे कि हम इतने सेवक मिल कर, इतनी बड़ी पुलिस के होते हुए भी संविधान की रक्षा नहीं कर सके ।
यदि अन्ना जैसे लोगों को अभी से नहीं रोका गया तो कल को कोई भी पूछने लग जाएगा कि फलाँ मंत्री या फलाँ नेता दिन में पाँच बार धोबी के धुले कुर्ते-पायजामे कहाँ से बदलता है ? चालीस बरस ईमानदारी से नौकरी करने वाले सेवा निवृत्त कर्मचारी के पास एक साइकल भी नहीं है और एक सरपंच कैसे पाँच सौ रुपए मानदेय के बल पर जीप में घूमता है और कैसे बिना कोई नौकरी किए ठाठ से रहता है ?
ऐसे में कोई नहीं आने वाला संविधान की रक्षा करने । फिर हम ऊपर जाकर गाँधी, नेहरू, अम्बेडकर को क्या मुँह दिखाएँगे ? इसलिए भले ही ऐसे लोगों को आधी रात को डंडे मारकर खदेड़ना पड़े, किसी के पीछे भी इनकम टेक्स वाले, सी.बी.आई. वाले लगाने पड़ें, पद या पैसे के लालच की मेनका भेज कर किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करवानी पड़े, मगर संविधान की रक्षा ज़रूर होनी चाहिए ।
आमीन ।
२८ अगस्त २०११
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