आदरणीय अडवानी जी,
जय श्री राम । आप भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बन गए और सक्रिय राजनीति भी नहीं छोड़ेंगे, बधाई । प्रतिपक्ष के नेता की तो पोस्ट होती है जिस पर आज सुषमा जी बैठीं हैं पर संसदीय दल के अध्यक्ष की कोई पोस्ट नहीं थी । हो सकता है कि अगले कदम के रूप में आप 'राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन' (राजग उर्फ़ एन.डी.ए.) के संयोजक बन जाएँ । पर जब सरकार बनने के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई देते तो उस पद का भी कोई औचित्य नहीं दिखाई नहीं देता । फिर भी पद तो पद ही है ।
आपके लिए नेता-प्रतिपक्ष के स्थान पर 'संसदीय दल के अध्यक्ष' का पद सृजित कराने पर हमें कई बातें एक साथ ध्यान में आ रही है । हालाँकि हमें राजनीति का तो कोई अनुभव नहीं है पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों और गोष्ठियों के बारे में कुछ जानकारी अवश्य रखते हैं । जब देसी रियासतों को मिला कर राजस्थान का गठन किया गया था तो सभी प्रभावशाली राजाओं को संतुष्ट करना आवश्यक था । जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई मान सिंह को राजस्थान का राजप्रमुख बनाया गया । उस समय राज्यपाल का पद नहीं हुआ करता था । राजप्रमुख का पद ही उसके समकक्ष माना जाता था । इससे उदयपुर के तत्कालीन महाराणा नाराज़ हो गये । वे जयपुर वालों को दोयम दर्जे का राजपूत मानते थे क्योंकि उन्होंने अकबर को अपनी बेटी दे दी थी । तभी तो सुलह का प्रस्ताव लेकर आए जयपुर के राजा मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप ने भोजन नहीं किया था । यह बात और है कि अंग्रेजों के ज़माने में उदयपुर वालों ने कोई शौर्य नहीं दिखाया था । सो उदयपुर के तत्कालीन महाराणा को संतुष्ट करने के लिए "महाराज प्रमुख" का पद सृजित किया गया । कहीं आपको संतुष्ट करने के लिए या लाज बचाने के लिए या ससम्मान विदाई देने के लिए तो यह "संसदीय दल के अध्यक्ष" का पद तो सृजित नहीं किया गया ?
आपातकाल के बाद जब केन्द्र में १९७७ में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया था तब जहाँ तक हमें याद है आप को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया था । उसी दौरान आप अंडमान निकोबार के दौरे पर गये थे । वहाँ हमने अपने एक साहित्यिक, सांस्कृतिक और संयोजन विशेषज्ञ मित्र का आपके साथ फ़ोटो देखा था । उसके बाद हम भी वहाँ पहुँच गये और छः साल तक वहाँ रहे । उसी दौरान हमें अपने मित्र की इन योग्यताओं का पूरा परिचय मिला ।
हमारे ये मित्र वहाँ एक साहित्यिक संस्था चलाते थे । सुब्रह्मण्यम स्वामी और चन्द्रशेखर की तरह वे ही इस संस्था के सर्वेसर्वा थे । संस्था का सारा कार्यालय उनके ब्रीफकेस में रहता था । अर्थात वे चलती-फिरती संस्था थे । जिससे भी कोई काम होता उसी को कार्यक्रम का अध्यक्ष बना देते थे । उसी अधिकारी के कार्यालय में कार्यक्रम कर लिया करते थे । कार्यक्रम का सारा खर्चा वही अधिकारी करता था और अगले दिन समाचारों में गुणगान होता था हमारे मित्र का । इस प्रकार उनकी संस्था एक 'अधिकारी संस्था' बन गई जैसे कि 'अधिकारी विद्वान' होते हैं । उनके कार्यक्रमों में कई अधिकारी आते थे , वे सभी को संतुष्ट करने के लिए "अध्यक्ष-मंडल" बना दिया करते थे । और इस प्रकार सभी अधिकारी एडजेस्ट हो जाते थे । कभी-कभी तो हमारे मित्र के अलावा सभी लोग अध्यक्ष-मंडल वाले ही होते थे । श्रोताओं में उनके परिवार के लोग और उस कार्यालय के कर्मचारी ही होते थे ।
अभी तो विपक्ष के नेता का पद छोड़ने के बाद आप वाला कमरा सुषमा जी के पास चला गया होगा । पता नहीं आप कहाँ बैठेंगे । फिर भी पार्लियामेंट में कहीं अलग बैठने की व्यवस्था हो जाए तो अपनी कुर्सी पर अपना नाम लिख कर रखियेगा क्योंकि अभी और कई लोगों को संतुष्ट करने के लिए कई और पद सृजित किए जायेंगे और वे अगर कहीं सांसद हुए तो आप वाले कमरे में ही बैठेंगे । चलो, कुछ भी हो, जैसी ठोकर लगी थी वैसे गिरे नहीं । बाज़ार में बैठने का कोई ठीया तो बना ।
ठीये की बात पर बताते चलें । पोर्टब्लेयर जाते समय हमें कलकत्ता रुकना पड़ता था । वहाँ हमने बेटे को एस्प्लेनेड से एक घड़ी दिलवाई । रविवार का दिन था । घड़ी बेचने वाला किसी बंद दुकान के आगे नौ इंच चौड़े एक पटरे पर बैठा था । हमने कहा- भैय्या, अगर कोई शिकायत हो तो हम तुम्हें कहाँ ढूँढेंगे ? वह बोला- साहब, हम कोई चलते-फिरते दुकानदार थोड़े हैं । हमारी पक्की दुकान है । हर रविवार को हम इसी दुकान के इसी पटरे पर बैठे मिलेंगे । इसी प्रकार वे सज्जन किसी और दिन बंद रहने वाले बाज़ार में किसी और दुकान के पटरे पर बैठते थे । मतलब कि पक्की दुकान । सो जैसी भी है पक्की दुकान तो है बाज़ार में । बाई जी अगर बाज़ार छोड़ देगी तो खायेगी क्या ? जैसा भी हो, पद तो चाहिए ही । पद के बिना कौन पूछता है ?
२०-१२-२००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
बढ़िया पोस्ट है।आभार।
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