Mar 4, 2011

कहाँ नहीं है लीद उठाने वाले ?


( सन्दर्भ- गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल जानवरों के पीछे-पीछे कुछ लीद उठाने वाले भी चलते हैं । कई पत्रकारों ने प्रश्न उठाया- क्या वे भी गर्व की अनुभूति करते है ? २५-१-२०११ )

सबसे पहले हम स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के समाचार अगले दिन अखबारों में पढ़ा करते थे । उसके बाद जब १९६२ में रेडियो ख़रीदा तो रेडियो पर आँखों-देखा हाल सुना करते थे और उसके बाद कुछ वर्षों टी.वी. पर भी देखा । अब पता नहीं, क्यों यह प्रोग्राम बोर लगने लगा है ? पर इतने वर्षों तक इन कार्यक्रमों को देखने-सुनने के दौरान न तो कभी कमेंट्री देने वालों ने बताया और न ही कभी हमें टी.वी. में जुलूस में चलते हाथी, घोड़े और ऊँट मल-त्याग करते नज़र आए और न ही कभी उनके पीछे सफाई करने वाले चलते नज़र आए । अब चूँकि मीडिया कुछ ज्यादा ही लोकोन्मुख और सूक्ष्मदर्शी हो गया है कि उसे ऐसी महत्त्वपूर्ण चीजों के अलावा और कुछ नज़र ही नहीं आ रहा है । कई अखबारों का तो यह हाल है कि वे यही देखते और दिखाते हैं कि किस फैशन शो में किस माडल की ड्रेस खिसक गई । और किसी अभिनेत्रियों का जनरंजन में इतना व्यस्त हो जाना भी आश्चर्यचकित करता है कि वह पेंटी पहनना ही भूल जाती हैं । और खोजी पत्रकार भी यही खोजबीन करते रहते हैं कि कौन क्या पहन कर आया है या कौन क्या नहीं पहन कर आया है ?

हम लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के विकास के बारे में सोच ही रहे थे कि तोताराम आ गया । हमने पूछा- तोताराम, क्या तुझे गणतंत्र दिवस के सीधे प्रसारण में हाथी, ऊँट और घोड़े राजपथ पर लीद करते नज़र आए और क्या उनके पीछे उनका मल उठाने वाले भी चल रहे थे ? कुछ पत्रकार ऐसे समाचार लाए हैं और उन्होंने प्रश्न उठाए हैं कि क्या इन लीद उठाने वालों को भी देश के लोकतंत्र-दिवस पर गर्व की अनुभूति हो रही थी ?

तोताराम कुछ दार्शनिक हो गया, कहने लगा- इस संसार में सब कुछ है । और सब यथासमय सब कुछ करते ही हैं । अब जिसको जो देखना है उसे वही दिखाई देगा । और जो वह देखना चाहता है, वह यदि नहीं भी होगा तो वह उसे देखा लेगा । अरे भई! हाथी, ऊँट या घोड़ा कोई भी हो, जब खाएगा तो उसे, यदि कब्ज की बीमारी नहीं है तो, सवेरे मल-त्याग की ज़रूरत तो पड़ेगी ही । इसमें नई बात क्या है ? जब तुम सवेरे पाँच बजे ही इन जानवरों को परेड के लिए उठा लाओगे और राजपथ पर घुमाते रहोगे तो ये कब तक खुद को रोके रखेंगे । लीद-मींगणे कुछ तो करेंगे ही । इसमें क्या नई और विचित्र बात है । पत्रकार कौन-सा तीर मार लाए ? और सभी पशु पालक सवेरे-सवेरे पशुओं के ठाण की सफाई भी करते ही हैं । अब यदि ये पशु राजपथ पर चल रहे हैं और वहाँ सफ़ाई की जरूरत है तो उसी समय नहीं करेंगे तो दोपहर को करेंगे । सफाई तो करनी ही है ।

हमने कहा- वह बात नहीं है ? हम तो पत्रकारों द्वारा उठाए गए उस प्रश्न के बारे में सोच रहे थे कि लोकतंत्र के साठ बरस बाद भी क्या कुछ लोग लीद ही उठाते रहेंगे ?

तोताराम बोला- साठ क्या, साठ हजार बरस हो जाएँ, सभी लोग तो प्रधान मंत्री बन नहीं सकते । किसी भी जाति का, कोई भी व्यक्ति उठाए इससे क्या फर्क पड़ता है ? कूड़ा, गंदगी उठना ही है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि देश में कोई भी, कुछ भी काम करने वाला हो उसके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए और उसे भी एक मानवीय-गरिमापूर्ण जीवन मिलना चाहिए । यदि तुझे या तेरे इन पत्रकारों को ज्यादा ही इस देश की फ़िक्र है तो देश के उस नेतृत्त्व से मुक्त होने के बारे में सोचो जो योरप-अमरीका रूपी नवाबों का पीकदान सँभाले हुए है और उनके पीछे टोकरा लेकर उनकी लीद बीन कर धन्य हो रहा है ।

हमने कहा- तोताराम, इतनी तो बेइज्ज़ती मत कर । देखो, फ़ोर्ब्स की सूची में हमारे कितने सेठों के नाम आते हैं । हमारी अर्थव्यवस्था नौ प्रतिशत वृद्धि को छूने वाली है ।

तोताराम कहने लगा- लीद का शाब्दिक अर्थ मत ले । इसकी व्यंजना को समझ । इस देश का पिछले पाँच हजार वर्ष का इतिहास पढ़ेगा तो पता चलेगा कि हमने चिंतन, मनन और ज्ञान के क्षेत्र में कितनी ऊँचाई हासिल की थी ? और अब हाल यह है कि यदि हमारी नाक बह रही हो तो कई अधिकारी और मंत्री यह पूछने अमरीका जाएँगे कि इस नाक को ऐसे ही बहने दें या पोंछें या यदि मुँह में जा रही हो तो जाने दें ? और फिर वहाँ से मोटी फीस लेकर विशेषज्ञ आएँगे और हमें सही तरीका बताएँगे ।

महात्मा गाँधी तो स्वराज्य प्राप्त करने का तरीका मालूम करने के लिए हार्वर्ड नहीं गए । लाल बहादुर शास्त्री जी ने तो देश में अनाज की कमी दूर के लिए किसी कोंडोलीज़ा राइस से राय नहीं माँगी । नेहरू जी ने तो आइजनहावर से नहीं पूछा कि हमारे देश में गेहूँ की कमी है तो क्या उपाय करें ? सरदार पटेल ने तो देसी रियासतों की समस्या से निबटने किसी महाशक्ति का मुँह नहीं ताका । अन्ना हजारे, बाबा आमटे, बाबा आठवले, सुन्दरलाल बहुगुणा ने अपने मार्ग स्वयं तलाशे हैं । किसी के पीछे चलने वाले अधिक से अधिक किसी बड़ी कंपनी में बड़ी तनख्वाह की नौकरी पा सकते हैं मगर किसी को कोई रास्ता नहीं दिखा सकते । वे पैकेज रूपी लीद बटोरते रह सकते हैं । और यह भी तय है कि पीछे चलने वाले हमेशा तनाव में रहते हैं कि वह गधा या घोड़ा जिसके पीछे वे चल रहे हैं पता नहीं, कब लात मार दे । ऐसे लीद बटोरने वाले प्याज भी खाते हैं और जूते भी खाते हैं ।


अमरीका में जिस कोकाकोला को हानिकारक माना जाता है हम उसे बड़ी शान से दूध से भी ज्यादा पैसा देकर पीते हैं और स्वास्थ्यप्रद छाछ, शिकंजी को हिकारत की नज़र से देखते हैं । फास्ट फूड के नाम पर पिज्जा, बर्गर, ब्रेड खाते हैं जब कि सत्तू से बढ़कर कोई पौष्टिक फास्ट फूड नहीं है । छः दशक के बाद भी हमारे पास ऐसी एक भाषा नहीं है जिसको सारा देश समझ सके औए आपस में संवाद कर सके । आज भी यह देश भाषा और संस्कृति के नाम पर मैकाले की लीद ही तो बटोर रहा है । पश्चिम की विकृतियों की देखादेखी यहाँ भी समलैंगिकता, लिव-इन-रिलेशनशिप, तलाक, देह-प्रदर्शन, अश्लीलता आदि का मीडिया, सिनेमा आदि में बढ़ता प्रचार - लीद उठाने से ज्यादा और क्या है ? अपनी गायों, अपने बीजों, अपनी तकनीकी को विकसित नहीं करना और अमरीका और योरप की पुरानी तकनीकी का यहाँ आयात करना और परिणामस्वरूप पिछड़ते जाना और हमेशा उन पर निर्भर बने रहना- मैं तो कहता हूँ लीद उठाना क्या, लीद खाने से भी बुरा है ।

अरे मास्टर, हाथी, ऊँट और घोड़े की लीद तो फिर भी किसी न किसी काम की होती है मगर यह बाहर से आ रही वैचारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक लीद तो बेकार ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है । पता नहीं, इसमें उनका कौनसा खतरनाक वैज्ञानिक परीक्षण हो सकता है, कोई षडयंत्र हो सकता है । पर बंधु, जब किसी देश में मानसिक रूप से दिवालिया, नपुंसक और बिका हुआ नेतृत्त्व होता है तो यही होता है ।

हमने झेंप मिटाने के लिए कहा- कुछ भी हो तोताराम, पर इस देश में लोकतंत्र तो है ही ।

तोताराम बोला- यदि यही लोकतंत्र है कि गुंडे चुने जाते रहें, चोर, डाकू, बलात्कारी सब निर्भय हों, नेता जनता का पैसा खाकर स्विस बैंक में जमा कराते रहें, साधारण लोग जाति- धर्म के नाम पर लड़ते रहें, बच्चों को पौष्टिक भोजन तो दूर दाल-रोटी भी न मिले तो तुम्हीं को मुबारक हो । यदि पति भले ही धेला न कमाए, नपुंसक हो, शराबी हो, पत्नी को पीटता भी हो फिर भी पत्नी उसके जीवित रहने मात्र से अपने को सौभाग्यवती मान कर खुश होती रहे तो फिर कुछ कहने-सोचने की ज़रूरत ही क्या है ? लीद उठाओ, लीद खाओ और डर के मारे लीद करते रहो ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था ।

२७-१-२०११

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. और हम कर ही क्या रहे हैं... इसके अलावा...

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  2. आदरणीय श्रीमान जोशी जी
    आपका लेख मन को आहत करता है, बेचैन करता है . इस्दुनिया में अलग थलग तो रहना मुश्किल और गलत होगा मगर कैसे हम अपनी पहचान और सम्मान बनाये रखें यह सीखना होगा. अपनी समस्याओं का हल हमें अपने अन्दर से ही ढूंढना होगा और तभी हमें आत्म सम्मान मिलेगा.
    आपके इस सुन्दर लेख के लिए धन्यवाद.

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  3. एक चिंतापरख लेख. आपके इस लेख के आखिरी अनुच्छेद में जहाँ आप्नके लोकतंत्र की व्याख्या की है उसने वाकई हिला कर रख दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया की अगर ये ही लोकतंत्र है तो क्या इस देश को ऐसे लोकतंत्र के ढकोसले का चोगा पहने रहना चाहिए.

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