Mar 16, 2011

होली - काम से राम तक : एक अद्भुत भारतीय प्रतीक-परम्परा का चरमबिंदु



समस्त भारतीय संस्कृति अपने प्रतीकों की पौराणिक परंपरा में गुँथे एक अद्भुत और संश्लिष्ट महाकाव्य के समान है जो कई सहस्राब्दियों में फैला हुआ है; जिसे आजकल समझ में न आ सकने के कारण हम महत्त्व नहीं देते और पश्चिमी विचारक उन्हें झूठ और कपोल-कल्पनाओं का पिटारा बताते हैं । वास्तव में भारतीय चिंतन एक काव्य है जो रूढ़ियों और वर्जनाओं से परे जाकर कवि-हृदय के बिना नहीं समझा जा सकता ।

बसंत पंचमी से रामनवमी तक सृजनात्मक बसंत ऋतु अपना खेल रचाती है । जीवन की एक उच्छल-उद्दाम गंगा, सृजन के गोमुख से निकलकर, लिंग के रूप में पूजित, परम विरागी और नारी को अर्धांगिनी का दर्जा देने वाले अर्धनारीश्वर भगवान शिव की काशी-जटाओं में मंथर होती हुई पुरुषोत्तम-राम रूपी मर्यादा के गंगासागर में जाकर विलीन होती है । और वहीं से कर्त्तव्यों की ऊष्मा से वाष्पित होकर पुनः जीवन की प्रक्रिया शुरु करने के लिए गोमुख की यात्रा पर चल पड़ती है । बीच में आता है होली का पर्व- काम और मदन का महोत्सव ।

इस प्रतीक परंपरा और उसके क्रम को यदि विश्लेषित किया जाए तो सभी वर्जनाओं को नकारती हुई जीवन की एक सम्यक दृष्टि हमें मिलती है जो सम्पूर्ण और मर्यादित है ।

यदि हम चार-पाँच दशक पीछे तक अपनी स्मृति को ले जा सकें तो हम पाएँगे कि बसंत-पंचमी के दिन से ही होली पर्व शुरु हो जाता था । चंग, ढप पर फाग गाना शुरु हो जाता था । पलाश से बनाए रंग में रँगे पीले वस्त्र दिखाई देने लग जाते थे । अबीर उड़ने लग जाता था । यह बात और है कि आज मल्टीनेशनल-पैकेज के बँधुआ-मज़दूर धुलेंडी और होली भी अपने कम्प्यूटर के साथ मनाने को विवश हैं ।

बसंत ऋतु वनस्पति के साथ-साथ समस्त जीव-जगत में सृजन-जीवन की ऊर्जा का पल्लवन है जो जीव को काम के उद्दाम उद्वेग से भर देता है । शिव-लिंग की पूजा जीवन की इसी सृजन-कामना का रूप है । सृजन के प्रतीक शिव उसी 'काम' का दहन करते हैं । जीवन के प्रतीक शिव, संहार के प्रतीक भी हैं- महाकाल । शिव सच्चे प्रेम के प्रतीक भी हैं । भले ही लक्ष्मी विष्णु के पैर दबाती हैं मगर सती या गिरिजा सदा शिव के वाम भाग में विराजती हैं । शिव स्त्री-विमर्श के साक्षात् प्रमाण हैं । होली उस उद्वेग का चरमोत्कर्ष है । उस होली की परिणति भी भस्म होने में होती है । सती के यज्ञ में भस्म हो जाने पर वे पागल की भाँति उनके शव को कंधे पर लादे-लादे घूमते हैं, परम-प्रेमी शिव । होलिका-दहन समस्त वर्जनाओं, कामेच्छाओं के अतिरेक और विकृतियों का दहन भी है । इसी होलिका की राख से कुँवारी कन्याएँ गौरी पूजन की सामग्री जुटाती हैं और सत्रह-अठारह दिनों तक अपने लिए शिव के समान पति-प्राप्ति का अनुष्ठान करती हैं जिसे राजस्थान में गणगौर-पूजन भी कहा जाता है । इसी दौरान शीतलाष्टमी आती है । और फिर आते हैं- दुर्गा पूजा और राम नवमी । औघड़ प्रेमी और काम को भस्म कर देने वाले हैं शिव । यही है शिव के विरोधाभाषी सौंदर्य का चमत्कार जिसे प्रतीकों का संयमित विश्लेषण किए बिना नहीं समझा जा सकता ।

उत्सवों की इस लंबी कड़ी और उसके प्रतीकों का विश्लेषण करें तो बात स्पष्ट हो जाती है । बसंत के रूप में जीवन की सर्जना-शक्ति का सम्मान है । शिव 'काम' को उसकी उच्छृंखलता के लिए भस्म कर देते हैं । यहाँ उनका उद्देश्य काम की समाप्ति करना नहीं है वरन काम का अनुशासन है । होली में भी समस्त वर्जनाओं का टूटना स्वाभाविक माना गया है और जिसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है मगर उन सब कुंठाओं और वर्जनाओं को होली की ज्वाला में और दूसरे कूड़े-करकट के साथ भस्म कर दिया जाता है । इसके बाद गौरी पूजन अर्थात सभी कामातिरेकों को अनुशासित करके शिव-पार्वती के समान एक आदर्श पति-पत्नी बनने की आराधना या तपस्या । इस बीच शीतलाष्टमी आती है तो वह भी सारे दिन ठंडा भोजन करने का नहीं वरन अपने अतिरेकों को शीतल रखने का विधान है । इसके बाद शक्ति की आराधना, नारी के सम्मान का पर्व नवरात्रे आते हैं और फिर बसंत के अंत में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म अर्थात बसंत पंचमी को शुरु हुए यौवन, कामना और आकर्षण के उद्दाम उत्सव का समापन राम की गरिमापूर्ण मर्यादा के साथ ।

इसके बाद ग्रीष्म ऋतु आती है । मतलब कि विवाह के बाद गृहस्थ के लिए अनुशासन, कर्त्तव्य और गरिमा की आँच में तपना है तभी वह अगली पीढ़ी के स्वस्थ संस्कार देने और उसके लिए आदर्श स्थापित करने के योग्य बन सकेगा । क्योंकि वानप्रस्थ लेने से पूर्व अगली पीढ़ी को आदर्शों की एक स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाने के संस्कार देने के लिए यह तपस्या आवश्यक है । यही जीवन की पूर्णता है । बसंत के फूल को एक दिन अपना रंग, रूप, गंध और मादकता विसर्जित करके फल बनने की तपस्या भी करनी ही पड़ेगी क्योंकि केवल फूल से सृष्टि नहीं चलती ।

कामना करें कि हम जीवन के बसंत का आनन्द लेते हुए अगली पीढ़ी के लिए एक सुस्वादु और पोषक फल बनने की सार्थकता प्राप्त करेंगे ताकि फिर नए फूल खिलें, फिर मदनोत्सव मनें, फिर वर्जनाओं की होलिका जले, शिव-पार्वती के आदर्श विवाहों का विधान हो और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की परंपरा आगे बढ़ती रहे ।

समस्त सृष्टि के लिए एक प्यार भरी गुलाल की चुटकी और शुभकामनाएँ ।

६-३-२०११

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

1 comment:

  1. वाह जोशी साहब, सम्यक. ज्ञानवर्धक और आनन्ददायक लेख.

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