Sep 19, 2011

उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

 उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

आजकल अमरीका के ओहायो राज्य की सम्मिट काउंटी के स्टो कस्बे में हूँ । छोटे पौत्र नीरज और निरंजन नज़दीक के पब्लिक स्कूल में क्रमशः दूसरी और के.जी. में पढ़ते हैं । अपने भारत में पब्लिक स्कूल का मतलब होता है- निजी महँगे स्कूल । 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' की तर्ज़ पर अमरीका में 'पब्लिक स्कूल' का मतलब होता है- सरकारी स्कूल । वैसे देखा जाए तो ठीक भी है, जिसमें 'साधारण पब्लिक' जा सके उसी का नाम 'पब्लिक स्कूल' होना चाहिए । भारत की दृष्टि से देखा जाए तो यह भी ठीक है कि जिस स्कूल का सारा काम सरकार की किसी सहायता के बिना, उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों ( उस स्कूल की पब्लिक ) के पैसों से चलता हो उसे पब्लिक स्कूल कहना ठीक ही है ।

नाम के अलावा एक भिन्नता और भी है कि भारत में पब्लिक स्कूल ( निजी स्कूल ) वाले विभिन्न व्यापारिक संस्थाओं से मिलकर उनके विज्ञापन करते हैं और बिना कोई टेक्स दिए पैसे कमा लेते हैं । इन स्कूलों में एन.सी.ई.आर.टी या एस.सी.ई.आर.टी. की किताबें नहीं, बल्कि निजी प्रकाशकों की कहीं घटिया किन्तु महँगी किताबें बच्चों को खरीदवाई जाती हैं और स्कूल प्रशासन पर्याप्त कमीशन खाता है । मैंने बैंगलोर में देखा कि एक स्कूल, बच्चों को 'रीबोक' के महँगे जूते खरीदने के लिए बाध्य करता है । पता नहीं, जूतों की कीमत का पढ़ाई से क्या संबंध है ? हाँ, पद या चाँदी के जूते के बल पर बोर्ड और विश्वविद्यालयों से मिलकर नंबर अवश्य बढवाए जा सकते हैं । हमारे ज़माने की बात और थी कि हमने पाँचवी कक्षा तक बिना जूतों के ही पढ़ाई कर ली थी । सुदामा तो नंगे पाँवों ही कृष्ण से मिलने में सफल हो गए थे ।

भारत में सरकारी स्कूलों में बाहरी विज्ञापन एजेंसियों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि सरकार ही सारा खर्चा उठाती है । वहाँ विज्ञापन का धंधा निजी स्कूल करते हैं । यहाँ बात उलटी है । यहाँ निजी स्कूल ज़म कर पैसा लेते हैं और बच्चों को दबाकर पढ़ाते हैं । उन्हें विज्ञापनों से पैसे कमाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यहाँ सरकारी स्कूल स्थानीय, प्रांतीय और केन्द्र सरकार की सहायता से चलते हैं । और सब जानते हैं कि सभी सरकारों की नज़र में शिक्षा पहली प्राथमिकता नहीं है बल्कि कहा जाए तो एक बेमन से किया गया कार्य है जो वोट के लिए करना पड़ता है । और अब तो अमरीका की अर्थव्यवस्था गिरावट की ओर है ? समय पर वर्षा, किसान-मज़दूर की मेहनत और भूमि की उपजाऊ-शक्ति और अपार खनिज सम्पदा के बावज़ूद अमरीका में अर्थिक स्थिति खराब होने का क्या कारण है, यह एक अलग और आश्चर्यजनक विषय है ।

भले ही बड़े-बड़े सी.ई.ओ. और नेता पूरी सुविधाएँ, वेतन, बोनस और पेंशन पेल रहे हैं मगर आर्थिक मंदी के बहाने से सरकारी विद्यालयों का बजट ज़रूर कम किया जा रहा है । इसलिए सरकारी स्कूल अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐरे-गैरे सब से विज्ञापन लेकर धन जुटाने में लगे हैं । वैसे यह बात नहीं है कि अच्छी आर्थिक स्थिति में भी यहाँ के स्कूल विज्ञापन का सहारा नहीं लेते थे ।

तो बात पौत्रों के स्कूल की हो रही थी । वे दोनों ३ सितम्बर २०११ को जब स्कूल से आए तो दोनों के पास कोई छः-सात सौ पेज की एक किताब थी जिसे वे अपनी किताब मानकर गौरवान्वित हो रहे थे क्योंकि यहाँ बच्चों को न तो किताबें लेकर स्कूल जाना पड़ता है और न ही किताबें लेकर स्कूल से आना पड़ता है । यदि कोई थोड़ा बहुत गृह कार्य दिया भी जाता है तो एक अलग से पन्ने पर ।

यह किताब बच्चों को मुफ्त दी गई थी । जब ध्यान से देखा तो पाया कि यह कोई किताब नहीं बल्कि विभिन्न व्यापारिक प्रतिष्ठानों के 'खरीद-कूपनों' का संग्रह था जिन्हें दिखाकर आप कुछ प्रतिशत छूट पर खरीददारी कर सकते हैं । खरीददारी में छूट का क्या मतलब होता है यह आज के ज़माने में भारत में कौन नहीं जनता ? क्या कभी कोई व्यापारी किसी को कोई छूट दे सकता है ? हमारा तो मानना है कि यदि कोई व्यापारी बिलकुल मुफ्त में भी कोई चीज दे रहा है तो भी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि व्यापारी किसी और को तो क्या, अपने बाप तक को भी कुछ फ्री नहीं देता ।

फ्रेंकफर्ट के हवाई अड्डे पर आधा लीटर पानी के पाँच डालर लेने वाली बाजारी सभ्यता में कुछ भी फ्री होने की उम्मीद वैसे ही है जैसे कि किसी बाजारी औरत से ब्याहता पत्नी जैसी वफ़ा की उम्मीद करना । हमारी उम्र के लोगों को याद होगा कि जब भारत में चाय नई-नई चली थी तब चाय वाले बाजार में लोगों को मुफ्त चाय पिलाया करते थे । और आज ब्याज सहित सब कुछ निकाल लिया कि नहीं ? हालत यह कि आज लोगों को दो-तीन सौ रुपए किलो में जो चाय बेची जा रही उसकी भी शुद्धता की गारंटी नहीं है ।

किताब के मुख-पृष्ठ पर लिखा था- 'एंटरटेनमेंट २०१२' / 'द एक्रन एरिया संस्करण' / 'ओवर $ २१,९०० सेविंग्स इनसाइड' । एक्रन ओहायो राज्य के इस जिले-सम्मिट का एक शहर है जहाँ विश्वविद्यालय भी है । जब इस इलाके के लिए एक संस्करण छपा है तो सारे अमरीका में पता नहीं कितनी करोड़ इस प्रकार की विज्ञापन पुस्तकें छपी होंगी ? यदि आप इस पुस्तक में दिए गए सभी कूपनों का 'सदुपयोग' (?) करें तो आप कोई बाईस हज़ार डालर बचा सकते हैं । आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमरीका के लिए कितना सरल उपाय है और भारत जैसे मुक्त और पारदर्शी होकर बाज़ार में बैठे देश के लिए कितना प्रेरणादायी ।

बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती । के.जी. का छात्र पौत्र निरंजन थोड़े बहुत अक्षर ही पढ़ना जानता है मगर उसकी समझ और दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि वह अनुमान से ही बहुत कुछ पढ़ लेता है । उसे एक फोटोस्टेट किया हुआ कागज भी उस विज्ञापन पुस्तिका के साथ दिया गया जिसमें विभिन्न प्रसिद्ध 'फास्ट फूड चेनलों' के प्रतीक चिह्न छपे हुए थे ।

'फास्ट फूड वाले इन चेनलों के बारे में सब जानते हैं कि यह फूड सस्ता तो ज़रूर होता है लेकिन स्वास्थ्यप्रद नहीं । इसमें बहुत ही घटिया चिकनाई का उपयोग किया जाता है । एक साथ ही लाखों पिज्जा या बर्गर कारखानों में बनते हैं और फ्रीज़रों में पड़े रहते हैं । जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ, बड़े-बड़े ट्रेलरों से पहुँचा दिया जाता है । जब भी ग्राहक माँगता है तत्काल गरम करके दे दिया जाता है, फास्ट । वैसे अमरीका में सभी पिज्जा या बर्गर ऐसे ही नहीं आते । ऐसे भी भोजनालय हैं जहाँ तत्काल अच्छी सामग्री से आपके सामने ही ताज़ा भोजन तैयार किया जाता है मगर वे इन चेनलों वाले फूड की तरह न तो सस्ते होते हैं और न ही फास्ट ।

तो बच्चे को मिले कागज में फूड चेनलों के प्रतीक चिह्न कुछ इस क्रम से रखे गए थे कि उसी क्रम से बोलने पर एक शिशु गीत जैसा कुछ बनता था । बच्चे निरंजन को स्कूल से आते-आते यह गीत पूरी तरह से याद हो गया था । गीत कुछ इस प्रकार से बनता है-

डीयर फेमिली,
आई कैन सिंग दिस सोंग ओर बुक !
प्लीज लिसन टू मी रीड/सिंग !
यू कैन ईवन सिंग अलोंग विथ मी !

बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग ।
बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग । ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड, मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।


अब देखिए, कहाँ तो हम शिशु-गीतों के द्वारा, सोने के लिए तैयार, बच्चे के कोमल मन को चाँद, तितली और परियों के रंगीन और मधुर संसार में ले जाते हैं और कहाँ उसे सोते हुए भी किसी खास कंपनी के अविश्वसनीय और अप्रामाणिक और हो सकता है कि हानिकारक खाद्य पदार्थों से बाहर नहीं निकलने देना चाहते । यह शिक्षा है या आनंद या एक बाल-मन के साथ क्रूर व्यापारिक खेल जो विद्यालयों के माध्यम से खेला जा रहा है ? हो सकता है कि एक वर्ग ऐसा भी हो जिसे इसमें कोई बुरी नज़र नहीं आती हो जैसे कि सूअर की कल्पना कीचड़ से आगे नहीं हो सकती । हो सकता है कि पाठकों को याद हो कि देश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती पर १५ अगस्त १९९७ को आधी रात को आयोजित संसद के विशेष सत्र में लता मंगेशकर द्वारा एक गीत गया जाना था और उसके पास कोकाकोला का एक विज्ञापन लगाए जाने की योजना थी । भगवान का शुक्र है कि देश इस राष्ट्रीय शर्म से बच गया ।

८ सितम्बर २०११ को  बच्चे एक और पम्पलेट लेकर आए जो फास्ट फ़ूड वालों के शैक्षणिक सरोकारों को और अधिक मुखरता से प्रकट करते हैं । पम्पलेट का फोटोस्टेट नीचे दिया जा रहा है ।


विज्ञापन का एक प्रसिद्ध वाक्य है जो कहता है कि 'कैच देम यंग' मतलब कि गर्भावस्था में ही अभिमन्यु की तरह उसे मेकडोल्नल्ड के चक्रव्यूह में घुसा दो जिससे वह तो क्या उसकी सात पीढियाँ तक बाहर न निकल सकें ।

इसी अमरीका में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो इस फास्ट फूड संस्कृति के खिलाफ हैं और बहुत से निजी स्कूलों में अभिभावकों के कहने पर वहाँ की विद्यालय कैंटीनों में बच्चों को फास्ट फूड और कोक उपलब्ध नहीं करवाए जाते ।

अमरीका के स्कूलों के माध्यम से बाल-मन में विज्ञापनों की इस घुसपैठ से आप कहाँ तक सहमत हैं ?

१२ सितम्बर २०११

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

4 comments:

  1. अगली किश्त का इन्तजार है.

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  2. बहुत ही खोजपरक आलेख है। वहाँ व्‍यावसायिकता के अतिरिक्‍त और कोई सोच है ही नहीं। वहाँ के खिलौने, उन पर बनी फिल्‍म, कार्टून आदि का भी एक व्‍यापारिक संसार है, इस पर भी अध्‍ययन कीजिए और लिखिए। वैसे अगली यात्रा में मुझे इस विषय पर लिखने का मन है। एक खिलौने ने कैसे बाजार को अपनी जकड़ में लिया है, यह इतना विचित्र है कि भारत के लोगों को समझाना बहुत ही कठिन है। आपके ऐसे ही आलेखों का इंतजार रहेगा।

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  3. आप बस चुप्पै बच-बचा कै चले आओ,वहीमा ग़नीमत है....! अमरीका कै चिंता के लिए अंकल सैम है ना !

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  4. व्यंग्य लेखन में आपकी कुशलता का एक और नमूना.
    सादर नमन.

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