[ यह पिता श्री बजरंगलाल जोशी जी की १९४४ में लिखी कविता है जिनकी मार्च २०१४ में जन्म शताब्दी है । दीपावली पर उनकी यह रचना पाठकों के साथ बाँटना चाहता हूँ ]
यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?
पहनकर नव वस्त्र-भूषण पान कर अभिमान-हाला ।
कर रहे पूजन धनिक श्री को चढ़ाते पुष्पमाला ।
फैलता चहुँ ओर जिनसे दीपमाला का उजाला ।
दीखतीं ऐश्वर्य से परिपूर्ण ऐसी सौधमाला ।
दीनता का कर रहीं उपहास घबराता कसाला ।
यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?
पर उधर तो दृश्य ही दयनीयता का है निराला ।
दीन-जन श्री को चढ़ाने को खड़े ले अश्रुमाला ।
भग्न जिनके झोंपड़ों में भर रहा तम घोर काला ।
वस्त्र-भूषण की कथा क्या, जल रही जहँ भूख-ज्वाला ।
क्या हँसाएगी दिवाली जब रुलाता है दिवाला ।
यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?
शुभ्र-वस्त्र-सुसज्जिता फिरती नवेली कामिनी हैं ।
सज अनेकों भूषणों से घूमती गजगामिनी हैं ।
मुस्कराकर दिल चुराती अहा, ये मधुहासिनी हैं ।
डालतीं निज माँग में सिंदूर ये सौभागिनी हैं ।
पूजतीं पति संग में श्री को सजा के दीपमाला ।
यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?
पर उधर तो बाल विधवाएँ बहातीं अश्रुधारा ।
शून्य जिनका दिल उन्हें है शून्य ही संसार सारा ।
देखके त्यौहार होता और भी दुःख हीनता का ।
भोगतीं अभिशाप हिंदू जाति की संकीर्णता का ।
सुक्ख में ही सुख बढ़ाती, दुःख में दुःख दीपमाला ।
यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?
- स्वर्गीय श्री बजरंगलाल जोशी
१९४४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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bahut sunder..
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