आज राजस्थान को भँवरी के भँवर ने अपनी लपेट में ले रखा है लेकिन यह कोई पहला और एकमात्र किस्सा नहीं है । पद, प्रभुता,धन पाकर बहुत कम लोगों का दिमाग ही ठिकाने रहता है । अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन, इटली के विदा होने वाले प्रधान मंत्री बर्लुस्कोनी, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व अध्यक्ष, इज़राइल के सज़ा भुगत रहे प्रधान मंत्री, पूर्व राज्यपाल तिवारी, उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी या दिल्ली के युवा नेता सुशील शर्मा की सुशीलता किसी को भूली नहीं है । ये कुछ नाम हैं जो आज के नेताओं के चरित्र की एक झलक देते हैं ।
चाणक्य ने जब चंद्रगुप्त को उस पर लगने वाले प्रतिबंधों और उसके कर्तव्यों के बारे में बताया तो उसने कहा कि फिर राजा बनने से क्या फायदा ? तो चाणक्य ने कहा- तुम राजा अपने सुख के लिए नहीं बनोगे । राजा का कर्त्तव्य तो सेवा करना है । उसे जितेन्द्रिय होना चाहिए । सदाचार राजा ही नहीं बल्कि समाज के सभी सदस्यों के लिए अभिप्रेत है । संयम और आत्मानुशासन के बिना न तो व्यक्ति सुखी और सम्मानित हो सकता है और न ही राजा अपनी प्रजा के सामने कोई आदर्श उपस्थित कर सकता है ।
गोस्वामी तुसलीदास जी ने अपने रामचरित मानस में स्थान-स्थान पर इसी प्रकार के सदाचार की बात कही है । यह बात और है कि तथाकथित प्रगतिशील या दलित-हितैषी उनकी निंदा करते नहीं अघाते, किन्तु यदि ध्यान से सोच-विचार किया जाए तो तुलसी की बात शत-प्रतिशत सही है । रामचरित मानस किसी अदृश्य स्वर्ग के लिए नहीं वरन इसी जीवन को स्वर्ग के समान बनाने के लिए श्रवणीय और आचरणीय है । स्थान-स्थान पर वे ऐसे संकेत देते हैं । इस आलेख में हम उन्हीं पर विचार करना चाहेंगे ।
उत्तरकांड में काकभुशुंडी जी गरुड़ जी से कहते हैं - जिसके मन में हित चिंतन है वह कभी दुखी नहीं होता क्योंकि हम प्रायः अपने दुःख से दुखी नहीं होते बल्कि दूसरों के सुख से अधिक दुखी होते हैं; जिसके पास (भक्ति रूपी ) पारस मणि हैं वह दरिद्र कैसे हो सकता है, दूसरों से द्रोह करने वाला कभी निश्चिन्त नहीं हो सकता, और काम-लोलुप कभी अकलंकित नहीं रह सकता क्योंकि उसकी कामुकता कभी न कभी उसे कलंकित कर ही देती है -
अरण्य कांड में जब राम सूर्पनखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं तो लक्ष्मण उसे कहते हैं कि मैं तो राम का दास हूँ और तुम उस दास के साथ कैसे सुखी हो सकती हो-
जब राम द्वारा खर दूषण के वध के बाद सूर्पनखा रावण के दरबार में अपना दुःख सुनाती है तब भी वह कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करती है, वैसे उसका खुद का आचरण भी कोई अच्छा नहीं था । यहाँ वास्तव में तुलसीदास जी ही बोल रहे हैं-
दशरथ के मरने के बाद वसिष्ठ जी भरत को समझाते हुए कहते हैं कि राजा दशरथ चिंतनीय और सोचनीय नहीं हैं उन्होंने तो अपने व्रत का पालन किया है और राम के प्रेम में अपना शरीर त्यागा है । सोचनीय तो वेद न जानने वाला ब्राह्मण; धर्म छोड़कर विषयासक्त होने वाला; नीति न जानने वाला राजा; बूढ़ा और धनवान किन्तु कंजूस; वाचाल, ज्ञान का अभिमान करने वाला; गुरु की आज्ञा न मानने वाला और व्रत तोड़ने वाला विद्यार्थी; पति को धोखा देने वाली, कलहप्रिय और मनमर्जी करने वाली स्त्री हैं क्योंकि वे अवश्य ही अपने दुष्कर्मों के कारण नष्ट, दुखी और अपमानित होंगे । ऐसे मामलों में शामिल स्त्रियाँ भी कहीं न कहीं ऐसी ही स्त्रियों की श्रेणी में आती हैं ।
इसीलिए तुलसीदास जी इन सब संकटों का उपाय बताते हुए कहते हैं-
क्या यह संभव है कि लोकतंत्र में हम नेता का चुनाव इन गुणों के आधार करें और क्या पार्टियाँ टिकट इन गुणों के आधार पर न देकर, जाति-धर्म-धन और बदमाशी के नाम पर देती हैं और येन केन प्रकारेण जीतने वालों का एक झुण्ड बना कर अपने और उनके स्वार्थ और लिप्साओं की पूर्ति का दुष्चक्र रचती हैं ?
११-११-२०११
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
चाणक्य ने जब चंद्रगुप्त को उस पर लगने वाले प्रतिबंधों और उसके कर्तव्यों के बारे में बताया तो उसने कहा कि फिर राजा बनने से क्या फायदा ? तो चाणक्य ने कहा- तुम राजा अपने सुख के लिए नहीं बनोगे । राजा का कर्त्तव्य तो सेवा करना है । उसे जितेन्द्रिय होना चाहिए । सदाचार राजा ही नहीं बल्कि समाज के सभी सदस्यों के लिए अभिप्रेत है । संयम और आत्मानुशासन के बिना न तो व्यक्ति सुखी और सम्मानित हो सकता है और न ही राजा अपनी प्रजा के सामने कोई आदर्श उपस्थित कर सकता है ।
गोस्वामी तुसलीदास जी ने अपने रामचरित मानस में स्थान-स्थान पर इसी प्रकार के सदाचार की बात कही है । यह बात और है कि तथाकथित प्रगतिशील या दलित-हितैषी उनकी निंदा करते नहीं अघाते, किन्तु यदि ध्यान से सोच-विचार किया जाए तो तुलसी की बात शत-प्रतिशत सही है । रामचरित मानस किसी अदृश्य स्वर्ग के लिए नहीं वरन इसी जीवन को स्वर्ग के समान बनाने के लिए श्रवणीय और आचरणीय है । स्थान-स्थान पर वे ऐसे संकेत देते हैं । इस आलेख में हम उन्हीं पर विचार करना चाहेंगे ।
उत्तरकांड में काकभुशुंडी जी गरुड़ जी से कहते हैं - जिसके मन में हित चिंतन है वह कभी दुखी नहीं होता क्योंकि हम प्रायः अपने दुःख से दुखी नहीं होते बल्कि दूसरों के सुख से अधिक दुखी होते हैं; जिसके पास (भक्ति रूपी ) पारस मणि हैं वह दरिद्र कैसे हो सकता है, दूसरों से द्रोह करने वाला कभी निश्चिन्त नहीं हो सकता, और काम-लोलुप कभी अकलंकित नहीं रह सकता क्योंकि उसकी कामुकता कभी न कभी उसे कलंकित कर ही देती है -
परद्रोही कि होहिं निःसंका ।
कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ।
अरण्य कांड में जब राम सूर्पनखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं तो लक्ष्मण उसे कहते हैं कि मैं तो राम का दास हूँ और तुम उस दास के साथ कैसे सुखी हो सकती हो-
सेवक सुख चह मान भिखारी ।
व्यसनी धन शुभ गति व्यभिचारी ।
अर्थात सेवक को सुख, भिखारी को मान, बुरी आदत वाले को धन, व्यभिचारी को शुभ गति, लोभी को यश और अभिमानी को सदाचार नहीं मिलता । यदि ये इनकी आशा करते हैं तो वह आकाश से दूध निकालने के समान है ।जब राम द्वारा खर दूषण के वध के बाद सूर्पनखा रावण के दरबार में अपना दुःख सुनाती है तब भी वह कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करती है, वैसे उसका खुद का आचरण भी कोई अच्छा नहीं था । यहाँ वास्तव में तुलसीदास जी ही बोल रहे हैं-
संग ते जती, कुमंत्र से राजा ।
मान ते ज्ञान, पान ते लाजा ।
अर्थात कुसंग से तपस्वी, बुरी सलाह से राजा, अभिमान से ज्ञान और मदिरा पान से लज्जा नष्ट हो जाती है । जितने भी तथाकथित बड़े लोग अपमानित हुए हैं उनके साथी या सलाहकार बुरे व्यक्ति थे और वे स्वयं शराब पीते थे और कलंकित व्यक्ति भी । इसीलिए कहा गया है राजा को भले व्यक्तियों को अपने साथ रखना चाहिए मगर जब राजा या नेता खुद भले होंगे तभी तो उनके आसपास भले लोग इकट्ठे होंगे ना । जैसे नेता, वैसे ही उनके छुटभैय्ये ।दशरथ के मरने के बाद वसिष्ठ जी भरत को समझाते हुए कहते हैं कि राजा दशरथ चिंतनीय और सोचनीय नहीं हैं उन्होंने तो अपने व्रत का पालन किया है और राम के प्रेम में अपना शरीर त्यागा है । सोचनीय तो वेद न जानने वाला ब्राह्मण; धर्म छोड़कर विषयासक्त होने वाला; नीति न जानने वाला राजा; बूढ़ा और धनवान किन्तु कंजूस; वाचाल, ज्ञान का अभिमान करने वाला; गुरु की आज्ञा न मानने वाला और व्रत तोड़ने वाला विद्यार्थी; पति को धोखा देने वाली, कलहप्रिय और मनमर्जी करने वाली स्त्री हैं क्योंकि वे अवश्य ही अपने दुष्कर्मों के कारण नष्ट, दुखी और अपमानित होंगे । ऐसे मामलों में शामिल स्त्रियाँ भी कहीं न कहीं ऐसी ही स्त्रियों की श्रेणी में आती हैं ।
इसीलिए तुलसीदास जी इन सब संकटों का उपाय बताते हुए कहते हैं-
बिनु संतोष न काम नसाहीं ।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
संतोष अपने परिवार, पत्नी, धन, पद, जन्म, पति सब के अर्थ में है ।क्या यह संभव है कि लोकतंत्र में हम नेता का चुनाव इन गुणों के आधार करें और क्या पार्टियाँ टिकट इन गुणों के आधार पर न देकर, जाति-धर्म-धन और बदमाशी के नाम पर देती हैं और येन केन प्रकारेण जीतने वालों का एक झुण्ड बना कर अपने और उनके स्वार्थ और लिप्साओं की पूर्ति का दुष्चक्र रचती हैं ?
११-११-२०११
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साथ अच्छे लोगों का मिले तो व्यक्ति चरित्रवान बना रहता है। आपकी पोस्ट अच्छे विचारों से युक्त है।
ReplyDeletebhut pasand aayi aapki rachanaye.
ReplyDeleteई कउनो नयका बात ना है ! नेता करते ही यही हैं,तभी तो बनते हैं !
ReplyDeleteइस प्रेरक पोस्ट के लिए आपका साधुवाद
ReplyDeleteनीरज