०७-०४-२०१५
ले सँभाल, अच्छे दिन
आते ही तोताराम बोला- ले, सँभाल अच्छे दिन |
हमने कहा- रुक, कोई बड़ा-सा थैला या भगोना लाता हूँ |सँभाल कर डालना क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि ख़ुशी के मारे छलक जाने का डर रहता है |
मुस्कराते हुए कहने लगा- अच्छाई कोई वस्तु नहीं, वह तो एक अनुभूति होती है जो थैलों में नहीं भरी जाती बल्कि मन में सँजोई जाती है और गूँगे के गुड़ के समान आत्मा में घुलती रहती है और आनंद देती रहती है |
'तो फिर जैसे चाहे कर'-मन मारकर ठंडे दिल से बैठते हुए हमने कहा |
बोला- एक समाचार है- दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों ने कहा है कि दिल्ली की तेज गति से चलने वाली मेट्रो ट्रेनों से उत्पन्न हवा को बिजली में बदला जा सकता है |
हमने कहा- लेकिन मेट्रो ट्रेन तो भारत में बहुत कम हैं और फिर हमारे यहाँ तो मेट्रो ट्रेन तो क्या सीकर से लोहारू तक की बड़ी लाइन ही वर्षों से रुकी पड़ी है |लोग भूल ही गए हैं कि इस रूट पर कभी कोई ट्रेन चला करती थी |और यदि मेट्रो ट्रेन से बिजली बन भी गई तो वह कोलकाता, मुम्बई और दिल्ली वालों को ही मिलेगी |हमारे यहाँ तो सड़कों पर युवा कार्यकर्त्ताओं की तेज़ दौड़ती, लोगों को डराती जीपों, मनमाने ढंग से दौड़ती गधा गाड़ियों और कृषि-कार्य की बजाय पत्थर ढोते,सड़क तोड़ते ट्रेक्टरों से बिजली बनाई जा सके तो कुछ बात बने |
बोला- वैसे बिजली की आवश्यकता हमारे जैसे लोगों को बहुत ज्यादा है भी नहीं |सुई में धागा डाल सकने जितनी तो आ ही जाती है ||बिजली की आवश्यकता तो २७ मंजिले भवनों के मालिकों को है जो एक महीने में ७० लाख रूपए की बिजली फूँकते हैं या उन मितव्ययी नेताओं को है जिनके घरों में चालीस-चालीस ए.सी. चलते हैं |वैसे हम जैसे लोगों के लिए तो मोदी जी ने सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ नुस्खा बताया है कि पूर्णिमा की रात को सुई में धागा डालने का अभ्यास करने से आँखों की ज्योति बढ़ती है और तब बिजली की अधिक ज़रूरत नहीं पड़ती |इसी तरह बिजली की बचत करने के लिए उन्होंने पूर्णिमा को सड़कों की लाइट नहीं जलाने का सुझाव भी दिया है |इससे भी बचत होगी और बचत होगी तो अच्छे दिन आएँगे ही |
हमने कहा- वैसे बिजली की तो आवश्यकता है ही नहीं, अँधेरे से क्या डरना जब दिन दहाड़े महिलाओं की चेन छीनी जा सकती और चोरी डाका हो जाते हैं |बिजली तो उन्हें चाहिए जिन्हें कम दिखता है, हमारी दृष्टि तो इतनी तेज़ है कि रात क्या, दिन तक में तारे नज़र आते हैं |
कहने लगा- तू बात को बदलकर तेज़ हवा से बिजली बनाने का मज़ाक तो नहीं उड़ा रहा ? तुलसी दास जी ने कहा- 'गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा' |हवा के वेग से धूल भी आकाश तक पहुँच जाती है फिर यह तो मेट्रो की हवा है |
हमने कहा- इसमें क्या शक है | देखता नहीं, कैसे तेज़ दौड़ती जीप के साथ सूखे पत्ते कुछ दूर तक उसके साथ दौड़ते हैं | हवा हो तो एक साधारण आदमी भी रेलवे प्लेटफार्म से उड़कर दिल्ली तक पहुँच जाता है लेकिन याद रख, हवा ख़त्म होते ही वहीं का वहीं आ जाता है |हवा बहुत देर तक नहीं रहती |कवि बिहारी (बिहार के नहीं, मथुरा वाले ) ने भी कहा है- कल-बल जल ऊँचो चढ़ै, अंत नीच को नीच |
खैर, इसी बात पर एक कहानी सुन- एक साधु की मस्ती को देखकर खाते-पीते घर का एक लड़का साधु बन गया |संयोग से दो दिन तक कोई भिक्षा नहीं मिली |तीसरे दिन एक मुट्ठी चने मिले |साधु बाबा और चेले ने आधी-आधी मुट्ठी खाकर एक-एक कमंडल पानी पिया |चेला बोला- बाबा, आज तो मज़ा ही आ गया | बाबा ने कहा- बेटा, हमारे साथ रहेगा तो ऐसे ही मज़े आएँगे |
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