Apr 19, 2018

सुरक्षा-व्यवस्था और रोजगार सृजन

सुरक्षा-व्यवस्था और रोजगार सृजन 


(राजनीति में मूर्तियाँ बनवाना और तोडना एक फैशन और मुद्दा दोनों है |इस सन्दर्भ में सभी सेवकों को शामिल करते हुए इस एक पुराने आलेख का आनंद लिया जा सकता है |) 

मायावती जी,
नमस्कार । हम तो आपके प्रशंसक हैं ही और अब जब आपने मूर्तियों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए सुरक्षा बल गठित करने की घोषणा की तो हम तो आपके भक्त ही हो गए । पर हम अंधभक्त नहीं हैं । हम तो आराध्य के गुण दोषों को परख कर फ़ैसला करते हैं । देखा-देखी जय बोलने वाले हम नहीं हैं ।

यूँ तो गणतंत्र दिवस पर तथाकथित जनकल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएँ करने की परंपरा है पर हम इन घोषणाओं की पोल जानते हैं । पर २६ जनवरी २०१० को आपने अपनी, कांसीराम जी और अम्बेडकर जी की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल गठित करने की जो घोषणा की है वह एकदम अनोखी, धाँसू और छाती पर चढ़कर बोलने वाली है । सिर पर चढ़ कर बोला हुआ क्या पता ऊपर ही ऊपर निकल जाये पर छाती पर चढ़ कर बोला गया तो सुनना ही पड़ता है । जब आप मूर्तियाँ लगवा रही थीं तो लोग कितनी तरह की बातें कर रहे थे- देश के धन का अपव्यय है, मायावती अपने प्रचार के लिए जनता का पैसा फूँक रही है । अब उन्हें समझ में आ गया होगा कि यह प्रदेश के पिछड़ों को रोज़गार देने का एक कल्याणकारी कार्यक्रम था । ये हावर्ड से पढ़कर आये लोग क्या समझें । ये देशी नुस्खे हैं- सस्ते, सुन्दर और टिकाऊ । पर हम तो जानते थे कि आप प्रचार पाने के ऐसे फालतू तरीकों में जनता का पैसा खर्च नहीं कर सकती । अब देखिये ना, हो गई सबकी बोलती बंद ।

इस तरीके से हम बिना प्रदूषण फैलाए ही अपने देश के सभी लोगों को ही नहीं, दुनिया के सभी बेरोजगारों को रोज़गार दे सकते हैं । भारत में नए-पुराने करके कोई एक सौ नेता और नेतनियाँ तो ऐसे होंगे ही जिनकी पूजा करके इस देश की जनता प्रेरणा, गौरव और शांति प्राप्त कर सके । और बारह सौ लोगों के बीच कम से कम एक मूर्ति तो चाहिए ही । और एक सौ प्रकार की महान विभूतियों की एक-एक मूर्ति तो लगेगी ही । इस प्रकार हमें अपने देश में ही सवा करोड़ मूर्तियाँ चाहियें । इसके बाद जैसे-जैसे और लोग महान होते जायेंगे वैसे-वैसे आवश्यकता भी बढ़ती जायेगी । इस प्रकार यह मूर्ति बनाने का, लगवाने का, उनकी रक्षा का, साफ़-सफ़ाई का, पूजा का काम इतना बड़ा है कि कल्पना करके ही चक्कर आने लग जाते हैं जैसे कि भगवान का विराट रूप देखकर अर्जुन को आने लगे थे ।

हमें लगता है कि इस योजना से सारे संसार के लोगों को काम मिल जायेगा । इसके बाद भी लोग कम पड़ जायेंगे । तब तो लोगों को ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा । हमें लगता है कि तब भी आपूर्ति नहीं हो पाएगी । तब हो सकता है हमें मानव संसाधन के लिए अन्य ग्रहों में खोज करनी पड़े ।

अभी देश में जितनी मूर्तियाँ, पूजास्थल हैं वे कम पड़ रहे हैं । देश की जनसंख्या के हिसाब से इनकी संख्या नहीं बढ़ रही है । इसीलिए समाज में अशांति और तनाव है । यह तो आजकल डाक्टर भी मानने लगे हैं कि पूजा और भक्ति से मानसिक तनाव दूर होता है । पर आज तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । आपने ध्यान तो दिया पर आपके पास इतने साधन भी तो नहीं हैं । इसके लिए वर्ल्ड बैंक से कर्जा लिया जाना चाहिए ।

कुछ लोग कहते हैं कि भगवान तो हमारे मन में है । उसकी मूर्तियाँ बनाने से क्या फायदा । ब्रह्म तो निर्गुण है, निराकार है, अनाम है, अरूप है । हिंदू लोग तो काफ़िर हैं । मूर्ति पूजते हैं । इनसे कोई पूछने वाला हो अरे भाई, तो फिर तुम क्यों काबा, हरमिंदर साहब, गया, चर्च, येरुसलम जाते हो । क्यों चर्चों, मस्जिदों, मंदिरों, पुस्तकों पर हमले से उबल पड़ते हो । यह सब मूर्ति पूजा नहीं तो और क्या है । मूर्ति की शक्लें अलग-अलग हो सकती हैं । वहाँ जाकर धंधा तो सब वही करते हैं । वह निर्गुण क्या बिना जीव और जगत के तुम्हारी समझ में आ जायेगा । अरे ब्रह्म के होने का पता तुम्हें किससे लगता है ? माया से ।

माया ही ब्रह्म का प्रकट रूप है । वह भी उतनी ही आराध्या है जितना कि ब्रह्म । कुछ लोग इस तथ्य को नहीं समझ पाते और कभी ब्रह्म और कभी माया की तरफ भागते हैं । और इस चक्कर में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता । तभी कहा गया है ना- दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम । आपने जो मूर्तियाँ बनवाई हैं वे दोनों का समन्वय हैं- माया (वती) और (कांसी) राम ।

किसी भी देश में जनता को दो ही चीजें चाहियें- रोज़गार और सुरक्षा । और बाकी नाचने, गाने, लड़ने, झगड़ने, मरने, मारने, बीवी को पीटने और बच्चे पैदा करने के मामले में भारत की जनता स्वावलंबी है । इसके लिए उसे किसी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत नहीं है । आज तक दुनिया के किसी देश ने अपनी जनता को रोज़गार देने के लिए इतनी बड़ी, सरल, पारदर्शी, और एक साथ ही आध्यात्मिक और भौतिक योजना नहीं बनाई ।

इस योजना से रोजगार मिलने की विपुल संभावनाएँ तो सिद्ध हो गईं । अब सुरक्षा की बात करें । प्राचीन काल में कहते हैं कि यह देश विकसित था, सोने की चिड़िया था । पर इसका कारण कोई नहीं जानता । इसका सीधा सा कारण था कि यहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा मूर्तियाँ थीं । इस देश की उन्नति से जलने वाले लोग दूसरे देशों से आये और यहाँ की मूर्तियों को तोड़ डाला क्योंकि उस काल के अदूरदर्शी राजाओं ने मूर्तियों की सुरक्षा के लिए लोगों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया । जो अपनी मूर्तियों की रक्षा नहीं कर सकता वह देश गुलाम नहीं होगा तो और क्या होगा । इसलिए यह देश गरीब और गुलाम हो गया । अपनी रक्षा करने लायक भी नहीं रहा । किसी तरह गाँधी जी की पूजा करके आज़ाद हुआ । फिर तो देश में मूर्तियाँ लगाने का सिलसिला चालू हुआ तो अब देख लीजिए हम दुनिया की एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गए हैं । चीन और पकिस्तान की छोटी-मोटी छेड़छाड़ के अलावा देश पर कोई हमला नहीं हुआ । जब इतनी मूर्तियाँ होंगी, उनकी सुरक्षा व्यवस्था होगी तो लोगों को सुरक्षा करने का अनुभव होता जाएगा तो वे देश की ही नहीं अपनी रक्षा भी अच्छी तरह से कर सकेंगे ।

काबुल में लोगों ने बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ तो बनवा लीं पर सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की तो लोगों ने तोड़ ही डाली ना । इसलिए जितना मूर्तियाँ बनवाना ज़रूरी है उतना ही सुरक्षा व्यवस्था करना भी ज़रूरी है । मूर्तियों के बारे में हम आपको एक सलाह और देना चाहते हैं । आप अमरीका नहीं गईं । हम जाकर आये हैं । हमने वहाँ कई राष्ट्रपतियों की मूर्तियाँ पहाड़ों में उकेरी गईं देखी हैं जैसे कि काबुल में बुद्ध की मूर्तियाँ जिन्हें तालिबानों ने तोड़ दिया था ।

अमरीका में कोई राष्ट्रपति तीन-तीन बार राष्ट्रपति नहीं बना और जिन की मूर्तियाँ बनी हैं उनके समय अमरीका की जनसँख्या यू.पी. के बराबर भी नहीं थी । आप तीन-तीन बार यू.पी. की मुख्य मंत्री बनीं तो इस उपलब्धि के लिए क्या आपकी मूर्ति किसी पहाड़ पर नहीं उकेरी जा सकती ? पर क्या बताया जाये सारे पहाड़ तो उत्तरांचल में चले गए । बुंदेलखंड में कुछ पहाड़ बचे हैं तो आप बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की बात कह रही हैं । बुंदेलखंड बने उससे पहले किसी पहाड़ पर पहले अपनी मूर्ति तो उकेरवा लीजिए । वैसे समय का कुछ पता नहीं । ईराक में सद्दाम की मूर्तियों को तोड़ कर घसीटा गया । रूस में मार्क्स की मूर्तियाँ हटवा दी गईं । कुछ निराशावादी लोग कहते हैं-
बादे फ़ना फजूल है नामो निशाँ की फ़िक्र
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मज़ार क्या ।
पर इतनी सी बात के लिए वर्तमान कर्तव्य को तो नहीं छोड़ा जा सकता न ।

इसलिए भले ही आपसे जलने वाले कुछ लोग इसका विरोध करें । पर हम पूरे मन से आपके साथ हैं । अगर ज़रूरत हो तो हम आपका मुक़दमा भी लड़ सकते हैं पर क्या बताएँ हमारे पास डिग्री नहीं है । फिर भी हम आपके पक्ष में लेख तो लिख ही सकते हैं । पर सारे अखबार और पत्रिका वाले तो मनुवादी हैं । आपके पक्ष में हमारा लिखा हुआ कौन छापेगा । पर हम छपने के लिए सत्य के साथ समझौता तो नहीं कर सकते ।

इस सन्दर्भ में हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि हमने कई महीनों पहले आपको एक पत्र लिखा था जिसमें हमने बताया था कि कैसे मूर्तियाँ लगवाने और उनकी रक्षा के लिए गार्ड नियुक्त करके किस प्रकार देश की बेरोज़गारी की समस्या हल की जा सकती है । पहले तो हम यही सोचते रहे कि पत्र आपके तक पहुँचा नहीं होगा इसीलिए तो कोई कार्यवाही नहीं हुई । और बेकार में ही डाक विभाग वालों को दोष देते रहे । हम उनके भी आभारी हैं कि उन्होंने पत्र पहुँचा दिया । और आपके भी कि आपने ऐसे अच्छे सुझाव को महत्व देकर उस पर ठोस कार्यवाही भी की ।

क्या इस उपलब्धि के प्रचार के लिए, बेरोजगार व असुरक्षित लोगों के कल्याण की योजनाओं पर समर्थन जुटाने के लिए एक अखबार नहीं निकाला जा सकता ? हमारी प्रतिभा का अनुमान तो आपको हमारे सुझावों से हो ही गया होगा । हमसे अधिक योग्य व्यक्ति ऐसे अखबार के लिए और कौन हो सकता है । हम इसके लिए अपनी संपादकीय सेवा देने के लिए तैयार हैं । संपादकों ने हमारी बहुत सी रचनाएं लौटाई है । हम उनसे तो बदला नहीं ले सकते पर यह कुंठा किसी और पर तो उतार ही सकते हैं ।

२-२-२०१०



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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