समरसता-खिचड़ी
आज तोताराम यथासमय आया जैसे चुनावों की घोषणा होते ही भावी उम्मीदवार इलाके की जनता को इस-उस त्यौहार की बधाइयां देने लगते हैं या कार्यकाल-समाप्ति से पहले चुनावी ठण्ड लगनी शुरू होते ही भक्त-जन मंदिर मुद्दा सुलगा देते हैं या फिर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष भी जनेऊ दिखाने और गोत्र बताने लगते हैं |
हम आज बरामदे में नहीं थे |तोताराम ने बरामदे में से ही आवाज़ लगाई- मास्टर, अभी तो चुनाव जीते एक महिना भी नहीं हुआ और तू जीते हुए नेताओं की तरह घर में घुस गया |
हमने कहा- आज बरामदे में आना संभव नहीं है |हम खिचड़ी पका रहे हैं |
बोला- इस देश में सब अपनी-अपनी खिचड़ी ही पकाने में लगे हुए हैं |कोई जनता के बारे में नहीं सोचता |इमरजेंसी में कुछ दिनों जेल में साथ रहकर नेताओं को एकता की ज़रूरत अनुभव हुई | उन्हें लगा कि खिचड़ी पकाई जा सकती है |फरवरी १९७७ में रामलीला मैदान में 'लोकतान्त्रिक खिचड़ी' की हंडिया चढ़ा दी गई बांसों पर |लेकिन पकने से पहले ही सब अपने-अपने चावल-दल, हल्दी, नमक और हंडिया ले भागे |हाँ, उसकी आड़ में कई हजार लोग, जिनमें उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्ट्री शीटर भी शामिल हैं, ' लोकतंत्र-सेनानी' के नाम की पच्चीस हजार रुपया पेंशन पेल रहे हैं जितनी हमें चालीस साल की नौकरी के बाद मिल रही है |एक देशभक्त पार्टी ने पृष्ठभूमि में रहकर रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ धरना दिया तो किसी ने यौगिक क्रिया द्वारा अपनी कंपनी जमा ली तो कोई पोलिटिक्स में चला गया और अन्ना हजारे अपने गाँव रालेगन |लोकपाल वहीँ के वहीं रामलला की तरह अयोध्या के आउटर सिग्नल पर |सो तेरी खिचड़ी का भी वही हाल होगा |
हमने कहा- हम कोई अपने स्वार्थ की व्यक्तिगत खिचड़ी थोड़े ही पका रहे हैं ?हम तो 'समरसता खिचड़ी' पका रहे हैं |
बोला- मास्टर, यह बात गलत है |यह तो प्रोफेशनल चोरी है |बौद्धिक संपदा का अपहरण है |समरसता तो हमारा दर्शन है |हमीं तो सच्चे धार्मिक हैं | तुम तो धर्म निरपेक्ष हो |तुम जो चाहो पकाओ लेकिन समरसता-खिचड़ी नहीं पका सकते |
हमने कहा- निश्चिन्त रहो |किसी की भी खिचड़ी नहीं पकने वाली |जब तक निहित स्वार्थों के बांसों पर ऊँची टंगी रहेगी तब तक प्रेम और भाईचारे की आँच वहां तक पहुंचेगी ही नहीं |और भाईचारे की आंच के बिना कैसी समरसता और कैसा खिचड़ी पकाना |जब सब साथ होते हैं तो दाल गलती है |अकेले-अकेले की दाल न कभी गली है और न गलेगी |
हमने इस खिचड़ी में सभी धर्मो के दाल-दलिया-चावल डाले हैं, सभ्यता के सभी केसरिया-लाल-नीले-हरे रंग मिलाए हैं और बिना पार्टी के भेद-भाव के सब आमंत्रित हैं |
बोला- तो फिर आ जा खुले आसमान के नीचे |क्यों घुसा बैठा है कुंठाओं की रसोई में |
हमने कहा- हम तुम्हारी तरह राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपनी समरसता का राम लीला मैदान में खिचड़ी पकाकर दिखावा नहीं करते |एक तरफ कोरेगाँव में दलितों की पिटाई करते हो और दूसरी तरफ उन्हें यह खिचड़ी बाँटने का नाटक | हमारे वाली तो जब बन जाएगी तब बरामदे में बैठकर सब के साथ खाएँगे-खिलाएँगे |
तभी पत्नी आई और बोली- जब तक खिचड़ी पके, दाल गले तब तक तसल्ली से चाय पीते-पीते और पकौड़ी खाते-खाते अपने-अपने मंत्रालयों क बँटवारा तो कर लो |समरसता को असली खतरा तो बँटवारे के समय ही होता है |
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
No comments:
Post a Comment