Aug 19, 2022

दंड से आत्मबल पैदा होता है


2022-08-10




दंड से आत्मबल पैदा होता है  



तोताराम यथासमय आ गया. बीच वाली पोती भी हमारे साथ ही उठ गई थी. चाय लेकर वही आई. 


तोताराम ने चाय थामते हुए कहा- जा, दादी से बीस रुपए ले आ. 


हमने कहा- क्या मतलब ? चाय भी पिलायें और बीस रुपए दक्षिणा के भी दें. 


हमें पॉलीथिन की एक थैली पकड़ाते हुए तोताराम बोला-  कोई भीख नहीं मांग रहा हूँ. अगर ऑटो के जोड़ूँ तो चालीस होंगे। कल बाज़ार गया था किसी काम से तो देखा एक दुकान पर झंडे बिक रहे थे. अपने लिए एक लिया तो सोचा एक तेरे लिए भी ले चलूँ. तू तो महाकंजूस है. पता नहीं, खादी भण्डार वाला झंडा कब तक आएगा और तू कब खरीदेगा।

 

कब कब आता है अमृत महोत्सव ! झंडा तो फहराना ही है. 


हमने झंडा निकालकर देखा, बड़ा अजीब।  साइड की सिलाई इस तरह की गई कि उसके हिसाब से फहराएं तो केसरिया रंग नीचे की तरफ आए. ३/२ के साइज से तो ठीक था लेकिन आगे की कटिंग टेढ़ी. और अशोक चक्र भी ठीक बीच में नहीं. 








हमने कहा- तोताराम, यह क्या ? इतनी लापरवाही ? तिरंगे के प्रति इतना असम्मान ! 


बोला- मास्टर, बड़े कामों में सब चलता है. छोटी-छोटी बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता. वैसे भी पांच-सात दिन बाद इन सभी झंडों का भी वही हाल होगा जो दिवाली के बाद अखबारों में छपे लक्ष्मी के फोटो का होता है. या गणेश छाप खैनी के रैपर पर छपे गणेश जी का होता है. 


हमने कहा- फिर भी हम तो जितना सम्मान कर सकते हैं, करेंगे. इस झंडे को संभाल कर रखेंगे। अगले साल फिर काम में ले लेंगे. 


हमने पोती से सुई धागा मंगवाया और दोनों तरफ की सिलाई ठीक की. डंडा लगाने वाली सिलाई को हरे रंग की तरफ से उलटकर केसरिया रंग की तरफ किया. 


हमने तोताराम से कहा- तोताराम,अब तक अपनी मर्जी से २००२ से  १५ अगस्त और २६ जनवरी पर घर पर  नियमित तिरंगा फहराते रहे थे लेकिन पता नहीं, आज क्यों लग रहा है कि हम किसी दबाव में, कोई नाटक कर रहे हैं.  


बोला- यह तेरे साथ ही नहीं है बहुत से लोगों को ऐसा ही लग रहा होगा क्योंकि आदेश ही कुछ इस तरह आ रहे हैं. और फिर कहीं राशन वाला बीस रुपए का झंडा लिए बिना फ्री वाला राशन नहीं दे रहा है, तो कहीं रेलवे वाले बीस रुपए वाले झंडे के नाम से कर्मचारियों की तनख्वाह में से तीस-तीस रूपए काट रहे हैं. झंडा कब मिलेगा पता नहीं. फिर भी कोई बात नहीं देश का मामला है. छोड़ तिरंगे की राजनीति. 




हमने कहा- तोताराम, इसी बात पर एक किस्सा सुन. १९६४-६५ में हम सवाईमाधोपुर सीमेंट फैक्ट्री के स्कूल में थे.राजस्थान रोड़वेज की बसें नई नई चली थीं.  सवाईमाधोपुर से रात की ट्रेन से जयपुर आ जाते थे. फिर अपने यहां के लिए चांदपोल गेट से रोड़वेज की बस लेते थे. 


एक बार हमारे साथ गांव का ही एक युवक भी था. बहुत बातूनी. हम दोनों ड्राइवर के पीछे वाली तीन की सीट पर बैठे थे. जैसे ही स्टॉप आता और ड्राइवर बस रोकने वाला होता, वह बोल पड़ता- रोक दे. रोक दे. इसके बाद जैसे ही ड्राइवर चलने के लिए बस स्टार्ट करता वह फिर बोल पड़ता- चलो, चलो. 


ड्राइवर को बहुत गुस्सा आया. वह चिल्लाया- मैं तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ. तेरे कहने से न तो बस रोकता हूँ और न ही तेरे कहने से चलाता हूँ. जा नहीं चलाता बस. अब तो तमाशा खड़ा हो गया. उस युवक को न बोलने के लिए पाबन्द किया और ड्राइवर को किसी तरह मनाया. तब बस चली. 


लेकिन क्या बताएं हमारे पास तो ड्राइवर जितनी भी स्वतंत्रता नहीं.  


बोला- छोड़ ये किस्से। कोई डंडा हो तो ला. झंडे के साथ डंडा नहीं आता. हमें तत्काल कोई डंडा नहीं मिला। तभी देखा, एक सज्जन सदैव सुबह-शाम की भाँति लाठी लेकर घर के आगे से जा रहे हैं. सब उन्हें ‘भाई जी’ कहते हैं. हमें तो हिम्मत नहीं हुई लेकिन तोताराम ने कहा- भाई जी, दो-चार दिन के लिए आपकी यह लाठी दे दें तो मास्टर झंडा फहरा ले. 


सज्जन बोले- तोताराम जी, और कोई काम हो तो आदेश करें. यह दंड तो नहीं दे सकते. इसके बिना हमारा कोई सम्मान नहीं है. इसके कारण ही तो लोग हमें ‘भाई साहब’ कहते हैं. 


दंड से आत्मबल पैदा होता है. 



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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