मितव्ययिता का ‘मोदी सिद्धांत’
आज तोताराम ने चाय का गिलास थामते हुए कहा- मास्टर, लगता है चाय ठंडी हो गई है । दोबारा गरम करवाकर ले आ ।
हमने कहा- विश्व में ऊर्जा के दुरुपयोग से कार्बन उत्सर्जन बहुत हो रहा है । और फिर चाय को बार बार गरम करने से वह एक प्रकार से विषाक्त हो जाती है । इसीलिए बस अड्डे और रेलवे स्टेशन की चाय कभी नहीं पीनी चाहिए । वहाँ के चाय वाले बड़े चालाक होते हैं । चाय को गरम और फ्रेश बताकर चिपका देते है फटाफट पैसे लेकर उतर जाते हैं और ग्राहक झींकता रह जाता है । एक चाय के लिए ट्रेन से कूद तो नहीं सकता । जैसे नेता लोग झूठे और भावनात्मक वादे करके वोट ले लेते हैं फिर पाँच साल शक्ल तक नहीं दिखाते हैं । इस भारतीय लोकतंत्र में वापिस बुलाने का कोई प्रावधान भी नहीं है । उस भारतीय सन्नारी की तरह ज़िंदगी भर झींकते रहो जिसका निखट्टू पति न तो मरता है और न ही किसी काम का । सिंदूर और बिंदी का व्यर्थ का खर्च ।
बोला- हद हो गई । 50 मिलीलीटर चाय को गरम करने में कौन सी इस भूलोक की प्राणवायु समाप्त हो जाएगी ।
हमने कहा- मितव्ययिता किसी भी व्यक्ति,परिवार और समाज के लिए ही नहीं इस दुनिया के अस्तित्व के लिए भी बहुत जरूरी है । गांधी जी कहा करते थे कि यह धरती सबकी जरूरतों को पूरा कर सकती है लेकिन विलासिता और अपव्यय को नहीं । पहले लोग पानी, ईंधन आदि का मितव्ययिता से उपयोग करते थे तो किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। सबका पेट किसी न किसी तरह भर ही जाता था और आज इतने तथाकथित विकास के बावजूद अमरीका जैसे धनवान देश में भी करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी और अभावों से जूझ रहे हैं । अगर लोग भोजन जूठा छोड़ना बंद कर दें तो ही आधी समस्या हल हो जाए ।
बोला- मुंडन करने से मुर्दा हल्का नहीं हो जाता ।
हमने कहा- ऐसा नहीं है । बूंद बूंद से कब घड़ा खाली हो जाता है पता ही नहीं चलता ।
बूंद बूंद से घट भरे टपकत रीतो होय ।
गांधी जी ने चरखा चलाकर लोगों का नंगापन ढँक दिया था, लोगों को काम मिलने लगा था और ब्रिटेन के मैनचेस्टर की मिलें बंद होने लगी थीं । उन्होंने खुद भी कुर्ता धोती और साफा छोड़कर केवल आधी धोती में ज़िंदगी गुजार दी । ब्रिटेन के राजा से इसी अधनंगे वेश में मिले । दुनिया देखती रह गई । चर्चिल ने उसे ‘अधनंगा फकीर’ कहकर मज़ाक उड़ाया ।
बोला- ऐसे ही 1979 में बनी फिल्म गोलमाल में नायक अमोल पालेकर ने भी कम लंबाई का कुर्ता पहनकर अपने एम्पलोयर भवानी शंकर को प्रभावित किया है । वास्तव में यह मितव्ययिता का संदेश देने का ऋषिकेश मुखर्जी का बढ़िया आइडिया था ।
हमने कहा- यह आइडिया ऋषिकेश मुखर्जी का नहीं, मोदी जी का था । 1972 में ही मोदी जी पूर्णकालिक प्रचारक बन गए थे । उस समय उन्हें संघ की शक्ति को बढ़ाने के लिए बहुत समय और ऊर्जा की जरूरत थी । तभी उन्होंने प्रेस करने का समय और धोने की ऊर्जा बचाने के लिए अपने कुर्ते की बाहें आधी कर दी । और इस प्रकार ‘मोदी कुर्ते’ का आविष्कार हुआ । जबकि जैकेट वाले नेहरू जी इतने विलासी थे कि पूरी बाँह का कुर्ता पहनते थे ।
बोला- कुछ भी हो गुजरात के लोग होते तो मितव्ययी हैं । एक चाय में तीन तीन लोग काम चला लेते हैं । तभी चाय वाला पहले से ही एक कप के साथ नीचे दो प्लेटें रखकर लाता है ।
हमने कहा- लेकिन मोदी जी ने जो मितव्ययिता बाँहों की लंबाई कम करके की उसे कुर्ते की लंबाई बढ़ाकर बराबर कर दिया । यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई दिन में उपवास करे और शाम को दोनों वख्त का खाना पेल जाए ।
बोला- यह बात तो है मास्टर, लेकिन ऐसा क्यों होता है ? गांधी जी ने तो एक बार आधी धोती अपनाई तो फिर ज़िंदगी भर निभाई ।
हमने कहा- जब हम कोई चीज मजबूरी में त्यागते या आडंबर के तहत अपनाते हैं तो वह हमारे जीवन का हिस्सा नहीं बन पाती । जैसे गांधी ने अधनंगापन स्वेच्छा से अपनाया था । बुद्ध और महावीर ने राज अपनी मर्जी से त्यागा था इसलिए जब दुनिया उनकी दीवानी हो गई तो उन्होंने आजकल के बाबाओं की तरह पाँच सितारा आश्रम नहीं बनाए और न ही वहाँ लंपट लीलाएं रचाईं ।
बोला- तो फिर सी एस आई आर की इस योजना का क्या निहितार्थ है कि सभी कर्मचारी सोमवार को बिना प्रेस किए कपड़े पहनकर ड्यूटी पर आएंगे ।
हमने कहा- यह भी न्यूज बनाने और मितव्ययिता का ‘आधी बाँह काट’ तरीका है । वरना हमारे जमाने में लोग न तो प्रेस किए कपड़े पहना करते थे और न ही रोज रोज ड्रेस बदलते थे । ड्यूटी से आकर कमीज या कुर्ता खूंटी पर टांग देते थे और अगले दिन फिर उसीको पहनकर ड्यूटी चले जाते थे । दाढ़ी भी संडे की संडे बनाते थे ।
हमारे प्रिंसिपल थे, कहा करते थे कि वे अपनी पेंट और कमीज तह करके तकिये के नीचे रख देते हैं तो सवेरे ऐसी मिलती हैं जैसे प्रेस की हुई हों । और मितव्ययिता का यह हाल तब था जब वे अविवाहित थे ।रिटायर होते ही अपना दो कमरे का मकान बनवाकर अपने घर आगरा चले गए । फंड के रुपयों के ब्याज से काम चलाते थे और उसमें से भी बचाकर अनाथ बच्चों के एक आश्रम को दे देते थे ।
और आजकल तो किसी के जनाज़े में जाने से पहले ब्यूटी पार्लर में होकर आते हैं ।दिन में दस ड्रेसें बदलते हैं और ऐसी झकाझक और कड़क जैसे कि चलते चलते भी चार लोग साथ में प्रेस लिए चलते हों और जहां भी कोई सलवट देखी वहीं प्रेस घुमा दी । प्रश्न ऊर्जा का नहीं इमेज का है । सजी धजी इमेज का । चारों तरफ 55 कैमरे लगे रहते हैं । हर जगह फ़ोटो जो खिंचनी है ।
प्रधान सेवक परिधान सेवक हो गए हैं ।
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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