Jan 28, 2013

तोताराम के तर्क और कवियों का शोषण


कवियों का शोषण

आज सवेरे-सवेरे तोताराम एक ब्रेकिंग न्यूज़ लेकर हाज़िर हुआ, कहने लगा- यह तो कवियों का शोषण है । देख, देश-राग नाम से आयोजित हो रहे कवि सम्मलेन में कवियों का सरासर शोषण हो रहा है । आठ कवियों को नवरस बहाने पड़ेंगे । अरे, एक कवि के लिए एक रस बहाना ही कोई आसान बात नहीं है और यहाँ एक कवि को १.१२ रस बहाना पड़ेगा । अब बता यह शोषण है कि नही ?

हम क्या उत्तर देते । हम तो यही जानते हैं कि पुराने कवि मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों का शोषण करते थे और आज के कवि श्रोताओं को पुराने घिसे-पिटे चुटकले और वह भी बार-बार सुनाकर उनका शोषण करते हैं । कवियों का कोई क्या शोषण करेगा ।

तोताराम कहने लगा- ज़्यादातर कवि हास्य का ही सहारा लेते हैं । एक-आध कवियत्री होती है जो या तो अपने व्यक्तित्त्व से या फिर अपनी द्विअर्थी कविता से शृंगार रस पैदा करने की कोशिश करती है । जहाँ तक वीररस की बात है तो अब वीरता तो किसी अदृश्य शत्रु को या फिर पाकिस्तान या चीन को गाली निकालने तक ही सीमित रह गया है । जो सबका शत्रु है, समाज का कंटक है, जो देश तोड़ने के लिए समाज को जाति-धर्म में बात कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है उसे तो गरियाने की हिम्मत किसी में है नहीं । अरे, यदि ऐसी हिम्मत हो तो वीर रस होता है । और फिर जो समाज निर्बलों, बच्चों, महिलाओं और वृद्धो पर अत्याचार करता या सहन करता है वह वीर रस को समझेगा भी क्या ? और फिर रस आज कोई नौ तक ही सीमित थोड़े रह गए हैं । आजकल तो निंदा-रस, भक्ति रस, खुशामद-रस, बधाई-रस, पुतला जलाओ-रस, जुलूस-रस जाने कितने नए-नए रस आ गए हैं बाज़ार में ।

हमने कहा- मान ले, जिसका पहला नंबर आ गया वह तो अपना फेवरेट रस बहा कर मुक्त हो जाएगा लेकिन बाद में पढ़ने वाले को तो मुश्किल हो जाएगी ना । अब जोनी लीवर का नंबर शृंगार या वीर रस में आ गया तो क्या होगा । उसकी तो शक्ल और स्थिति और भी हास्यास्पद हो जाएगी । यह नौ रसों की बंदिश तो ठीक नहीं है । हमें तो लगता है कि कविसम्मेलनों में हास्य रस ही हो सकता है । जब एक बूढ़ा कवि रँगे हुई बाल, आँखों के नीचे लटकी खाल लेकर बार-बार श्रोताओं से ताली की भीख माँगेगा तो हास्य क्या, करुण रस ही पैदा होगा ।

तोताराम कहने लगा- मनीषियों ने भी तो कहा है- एको रसः करुण एव । श्रोताओं की भी उन्हीं पुराने चुटकलों को सुनने की मजबूरी करुण रस ही है । और जहाँ तक जो थीम है वह है 'देश-राग' तो इस स्थिति में इस देश पर और उसके तथाकथित साहित्य पर भी और श्रोताओं पर हो रहे अत्याचारों को देखते हुए इसे 'करुण-राग' कर दिया जाता तो और भी ठीक रहता । और यह करुण रस वहाँ नहीं भी बहता तो कम से कम उन कवियों में तो बह ही रहा है जिनको इस आयोजन में नहीं बुलाया गया ।

हमने कहा- भई, समाज में उत्सव मनाना भी एक मजबूरी और आवश्यक कर्मकांड है जैसे कि पिता को जीवन भर ढंग से खाना न खिलाने वाला बेटा भी द्वादशे पर भोज का आयोजन करता ही है । याद कर, एक अपने ज़माने में गणतंत्र दिवस होता था जब धुंध और हाड़ गला देने वाली सर्दी में स्कूल के बच्चों के साथ गली-गली प्रभात फेरी निकालते हुए स्कूल पहुँचते थे और उत्सव में शामिल होने वाले सभी लोगों को चार-चार लड्डू बिना किसी भेदभाव के बाँटते थे और एक आज । दर्शक कम और पुलिस अधिक होती है जैसे कि उत्सव में आने वाला हर आदमी कोई आतंकवादी है या देशद्रोही है । नेता लोग खुद बुलेट-प्रूफ शीशे के पीछे से डरे-सहमे भाषण देते हैं । सरकारें देश को सुरक्षित नहीं बना सकतीं और किसी तरह अपनी कुर्सी को बचा पाने को ही लोकतंत्र मानती हैं । कुछ चुने हुए या खास दृष्टि से बुलाए गए चंद आदमियों के उत्सव न तो देश के उत्सव हैं और न ही लोकतंत्र । कहाँ का देश-राग, सामान्य जनता को तो देश और जीवन दोनों से विराग होता जा रहा है ।

हमने तोतोराम के हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए कहा- ये सब खास लोगों के खास चोचले हैं । तू छोड़ यह ब्रेकिंग न्यूज और देश-राग । ले, चाय पी ।

२६-०१-२०१३

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