हर मन को मोहने वाले, हमारे प्रिय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी,
सत् श्री अकाल ।
हमने कोई बीस वर्ष हिंदी पढ़ी और फिर चालीस वर्ष तक बच्चों को हिंदी पढ़ाई । जो हमने झेला उससे दुगुना हमने बच्चों को झिला दिया । आजकल की बात अलग है । बच्चे और अध्यापक दोनों चतुर हो गए हैं सो पता ही नहीं लगता कि कौन किसको झेल रहा है और कौन किसको झिला रहा है । आजकल पता नहीं हिंदी में बच्चों से किस तरह के लेख लिखवाए जाते हैं ? जब हम पढ़ते थे तो कई तरह के निबंध लिखवाए जाते थे जिनमें कुछ ऐसे भी होते थे – ‘मेरा प्रिय कवि’ या ‘मेरा प्रिय लेखक’ आदि । इसके बाद हमने नवें दशक में इसी शृंखला के और भी निबंध लिखवाए जैसे - 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री' । हमारे विद्यार्थी-काल में ऐसे निबंध नहीं हुआ करते थे क्योंकि ले देकर एक ही तो प्रधानमंत्री थे- नेहरू जी । भले ही किसी को प्रिय लगो या अप्रिय ।
अब आपने आकर थोड़ा स्थायित्व प्रदान किया है अन्यथा तो एक ज़माना था जब कभी भी प्रधानमंत्री बदल जाया करते थे । देवेगौड़ा, चरणसिंह, चंद्रशेखर और गुजराल साहब का क्या प्रधानमंत्री बनना और क्या न बनना । हाँ, सरकारी बँगले के उम्मीदवार ज़रूर बढ़ गए । वैसे यदि तिबारा चांस नहीं मिलता तो अटल जी भी इसी श्रेणी में धरे रखे ही थे । तो इस प्रकार गिनती तो बढ़ ही गई । और 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री ' निबंध लिखने वालों को चयन का अवसर मिल गया । सुविधा भी बढ़ गई । चरणसिंह जी को चुन लो या चंद्रशेखर जी या फिर गुजराल साहब या देवेगौड़ा जी - सबकी प्रधानमंत्री के रूप में प्रियता का समय कम होने से सिलेबस भी कम हो गया ।
खैर, अब आपके होते हुए दूर-दूर तक कोई विकल्प नज़र ही नहीं आता । नई सदी में प्रिय या अप्रिय आप ही हो । कई बार लगा कि इस या उस मुद्दे पर अब गए और तब गए, लेकिन साहब मान गई दुनिया कि ‘पीसा की झूलती मीनारें’ भी इतना सस्पेंस पैदा नहीं करती जितना आपको लेकर मचा । लेकिन अब लोगों को विश्वास हो गया है कि भले ही पीसा की मीनारें गिर जाएँ लेकिन भगवान कि दया से या इस देश के सौभाग्य से आपका हिलना और गिरना दोनों ही संभव नहीं लगता । भले ही अडवाणी जी या मुलायम या मायावती कोई भी आशा लगाए लेकिन हमें उनकी मुरादें पूरी होती नहीं लगतीं क्योंकि आप जैसा काबिल और देश का हितचिन्तक प्रधानमंत्री इस देश को मिलने से रहा । किसी न किसी प्रकार आपने देश का हित करके ही छोड़ा, चाहे कोई भी जोड़-तोड़ करके बहुमत जुटाना पड़ा । मुँह न देखने लायक के पाँव देखे, देश के हित के सामने अपने मान-सम्मान की चिंता भी नहीं की, जाने किस-किस के ताने सहे मगर देश का हित करके ही छोड़ा फिर चाहे परमाणु समझौता हो या वालमार्ट के लिए पलकें बिछाना । देश के हित के लिए यह कोई छोटा काम नहीं है । कोई और होता तो इतनी आलोचना के बाद कब का भाग लेता ।
सो हमारे प्रिय प्रधानमंत्री तो आप ही हैं भले ही ब्रिटेन वाले आपको किसी का गुड्डा कहें या अमरीका वाले अंडर-अचीवर । हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हम तो जिसके भी होते हैं अंध-भक्त होते है, सच्चे श्रद्धालु होते हैं आपकी तरह ।
आजकल हमारे राजस्थान में भयंकर सर्दी पड़ रही है । वैसे हमारा मानना है कि आजकल के मुकाबले सर्दी पहले अधिक पड़ती थी । आजकल तो प्रदूषणजनित ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण फिर भी ठण्ड काफ़ी कम हो गई है फिर भी बड़े तो बड़े बच्चों तक को घर में बने हुए लेटरिन में जाते हुए भी ठण्ड लगती है । एक हमारा समय था जब आठ बजे तक सूरज के दर्शन नहीं होते थे । बच्चे सुबह होते ही पानी का लोटा लेकर जंगल-दिशा के लिए चल पड़ते थे । उस समय जयराम रमेश जी वाले विभाग को इसी नाम से जाना जाता था । लोटा एक और बच्चे चार-पाँच । हालाँकि राजस्थान में पानी की कमी है लेकिन इतनी भी नहीं कि जलाभाव में चार बच्चे एक ही लोटा पानी से काम चलाएँ । यह तो ठण्ड में लोटा पकड़े रहने की पीड़ा का सभी उम्मीदवारों में सामान वितरण के लिए किया जाता था ।
खैर जी, हम भी क्या फालतू ज़िक्र लेकर बैठ गए । आपको कहाँ फुर्सत है ऐसी छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने की । आपके सामने तो और बड़ी-सदी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं । अब चुनाव में दिन ही कितने रह गए हैं । भले ही मौत का पता नहीं चले लेकिन कुर्सी पर बैठा आदमी पूरे पाँच बरस तक अपने संभावित पतन के बारे में ही चौबीसों घंटे सोच-सोचकर जागता और पैसे जोड़ता रहता है । लेकिन आपकी बात ही और है । आप तो इस मामले में सच्चे निस्पृह संत हैं । न हार आपकी और न जीत आपकी । फ़िक्र तो उनको होनी चाहिए जो आपको मनोनीत करते हैं । चुनाव का झंझट तो आपने कभी पाला ही नहीं । चुनाव लड़ाने वालों को भी एक बार आपको दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़वाने के बाद समझ में आ गया कि अपन कितने लोकप्रिय हैं ।
तो भाई साहब, बात हो रही थी ठण्ड की । जिनके पास ठण्ड से बचने की सुविधा होती है जैसे एयरकंडीशनिंग या फिर सर्दी में खाने को गिज़ा या फिर दारू, वे जानबूझकर बार-बार ठण्ड की अधिकता की चर्चा करते हैं । हमारे पास तो ले दे कर एक बीस साल पुराना, दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रेड़ी लगाने वाले से ख़रीदा हुआ, सेकण्ड-हैंड कोट है । अब तो न उस कोट में गरमी बची और न हमारे सत्तर साल पुराने इस अस्थिपंजर में । इसलिए अपनी हीन भावना को छुपाने के लिए, यदि कोई कहता भी है कि आज सर्दी बहुत है तो हम अकड़ कर उसका विरोध करते हुए कहते हैं- नहीं ,कोई खास नहीं । कुछ खाया-पिया करो । जब कि हम खुद अपनी हालत जानते हैं कि दारू तो दूर, दवा तक के लिए भी कंजूसी करते हैं । आपको तो खैर, भगवान की दया से सभी सुविधाएँ हैं- गिज़ा भी, दवा भी और दारू भी । और फिर ठण्ड तो हम जैसे जमना-जल में खड़े ब्राह्मण को लगेगी, महलों में तो सारे मौसम आशिकाना होते हैं । ये राजभवन भी बड़ी अजीब शै हैं । इनमें घुसते ही पचासी बरस का बूढ़ा भी फुदकने लगता है । आप तो फिर भी हमारी तरह अस्सी से कम ही हैं । वैसे हम तो आपकी तटस्थता और सादगी के कायल हैं ।
तो साहब, हम ठण्ड से बचने के लिए रजाई में घुसे बैठे थे । घर से बाहर निकल कर कहाँ जाएँ । घूमना-फिरना तो उसको सूझता है जिसकी जेब में माल हो-
इशक करे ऊ जिसकी जेब में माल वाह रे बलमू ।
कदर गँवाए जो कड़का कंगाल वाह रे बलमू ॥
सो हमने बाज़ार तो दूर, बिना बात घर से निकलना तक छोड़ दिया है । दोपहर का समय, लेकिन हम रजाई में घुसे-घुसे भी ठिठुर रहे थे । पोती के पास कम्प्यूटर है और वह उस पर कभी-कभी समाचार भी देख लिया करती है । सो पता नहीं क्या पढ़ लिया कि दौड़ी-दौड़ी हमारे पास आई और कहने लगी- बाबा, मनमोहन सिंह जी की रक्षा कीजिए । उसे पता नहीं, जो आदमी ज़रा सी सर्दी से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, बढ़ती महँगाई से अपने घर की अर्थव्यवस्था की रक्षा नहीं कर सकता, जो सब्सिडी के छः सिलेंडरों में एक साल खाना नहीं बना सकता - वह किसी की क्या रक्षा कर सकता है ।
फिर भी सुनते ही हमें इस भयंकर सर्दी में भी पसीना आ गया और बच्ची की हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा- कहो बेटी, उन पर क्या संकट है ? यदि आँख में कोई खराबी है तो हम अपनी आँख देने को तैयार हैं ।
बच्ची भी कोई कम नहीं । कहने लगी- बाबा, आपकी आँखें लेकर मनमोहन सिंह जी क्या करेंगे ? क्या आपको देश का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है ? जब देखो तब महँगाई, बेकारी, बीमारी, कुपोषण, महिलाओं की असुरक्षा, धर्म जाति के आधार पर भेदभाव, विदेशी अपसंस्कृति - जाने किस- किस का रोना लेकर बैठे रहते हो । सभी समस्याओं के बावज़ूद मनमोहन जी को देश का जो उज्ज्वल भविष्य नज़र आ रहा है, वह आपकी आँखों से तो नज़र आने से रहा । आपकी आँखे लेकर क्या करेंगे ? न आपके गुर्दे इतने मज़बूत कि बिना स्पष्ट बहुमत के परमाणु समझौता और एफ.डी.आई. पास करवा लें । अभी तो उन्हें जाने कितने कठिन कदम उठाने हैं देश के लिए । आपका कोई भी अंग उनके काम का नहीं है । और फिर क्या वे आपके अंगों के भरोसे देश को चला रहे हैं ? इस पिछड़े देश को विकास की सही दिशा दिखाने के लिए आँखें, और कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूत गुर्दे देने के लिए वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन, डंकल-बुश-ओबामा जाने कौन-कौन तैयार बैठे हैं । वैसे भगवान की दया से उनके सभी अंग-प्रत्यंग ठीक हैं और फिर यदि कोई खराबी-शराबी होगी तो अमरीका कौन दूर है ? जाएँगे और करवा आएँगे ओवरहालिंग । आप बिना बात मुझे असली बात से भटकाओ मत और ध्यान से सुनो । उनको न तो कोई शारीरिक खतरा है और मानसिक । न किसी आतंकवादी से और न महँगाई और बेकारी से । भगवान की दया से सारी बेटियाँ ब्याह दीं । कमा-खा रही हैं; अपने घर में खुश हैं ।
उन्हें खतरा तो अपने बँगले से है ।
फिर हमारा दिमाग अपने हिसाब से सक्रिय हो गया और पूछा- क्या उनका बंगला टपकता है, क्या वहाँ अपनी गली की तरह बरसात में पानी भरता है, क्या उनके घर के पास स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मोबाइल का टावर लगा हुआ जो उनके हार्ट के लिए खतरनाक हो सकता है , क्या किसी भू-माफिया ने उनके घर पर कब्ज़ा करने का मन बना लिया है , क्या उनके घर में पानी नहीं आता या फिर नए मीटर के कारण बिजली का बिल ज्यादा आता है ? या उनके घर में किसी भूत-प्रेत का प्रकोप है ?
बच्ची जोर से हँस पड़ी और कहने लगी- जूते बनाने वाले की पहुँच कहाँ तक होगी ? वह जूतों से ही आदमी मापता है । अब आप कुछ मत सोचो और कुछ मत बोलो और सुनो- मनमोहन जी का बंगला इतना पुराना हो चुका है कि कभी भी गिर सकता है ।
हमने कहा- तो क्या बात है ? जैसे हम लोग कोई प्राकृतिक आपदा आने पर किसी सरकारी इमारत, स्कूल, धर्मशाला आदि में शरण ले लेते हैं तो वे भी कुछ दिन के लिए राष्ट्रपति भवन में शरण ले लें । और शरण क्या, स्थाई रूप से भी वहाँ रह सकते हैं । तीन सौ कमरे हैं । प्रणव दा क्या तीन सौ कमरों में रहते हैं ? चाहे तो मनमोहन जी ही क्या सारा मंत्रिमंडल राष्ट्रपति भवन में रह सकता है । मंत्रियों के सारे बँगले दिल्ली के प्रोपर्टी डीलरों को नीलाम कर दें । वैसे भी सरकार अच्छे-भले सरकारी उपक्रमों को धूल के भाव निजी क्षेत्रों को बेच ही रही है । वैसे तुमने यह तो बताया ही नहीं कि १९३० में बने अंग्रेजों के बनवाए बँगले अस्सी साल में ही गिरने कैसे लग गए ? यदि आजकल की पी.डब्लू.डी. वालों ने बनाए होते या मनरेगा में बने होते तो बात और थी ।
बच्ची ने कारण बताया कि ये मकान केवल चूने और ईंटों से बने हैं, इनमें स्टील का उपयोग नहीं हुआ है इसलिए इनके गिरने का समय आ गया है । हमने फिर प्रतिवाद किया- अरे, चूने से बनी क़ुतुबमीनार को तो कुछ नहीं हुआ, बिना स्टील के कंस का किला, बनारस का विश्वनाथ मंदिर, वृहदेश्वर का मंदिर, मीनाक्षी मंदिर सभी खड़े हैं । हमें तो लगता है कि ये पी.डब्लू. डी. वाले डरा कर पहले तो इन मकानों को गिरवाने में पैसे कमाएँगे और फिर बनवाने में । इनका क्या, ये चाहें तो कागज पर मकान बना दें, कागज पर कुएँ खुदवा दें और फिर पानी न निकलने पर भरवा दें और दोनों कामों के पैसे खा जाएँ जैसे कि मंत्री जी अपने एन.जी.ओ. में हवाई विकलांगों को व्हील चेयर बँटवा दें । इनकी किसी राय को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए ।
बच्ची ने कहा- नहीं बाबा, ये लोग तो बेचारे बहुत ईमानदार हैं । एक इंजीनीयर ने तो यहाँ तक कहा है कि यह तो पी.डब्लू. डी. वालों की समय-समय पर की गई मरम्मत का चमत्कार है कि ये इतने दिन भी चल गए वरना तो इन्हें कभी का गिर जाना चाहिए था ।
अब हमने कहा- बेटा, अब हम तुम्हें कैसे समझाएँ कि पी.डब्लू.डी., एम.ई.एस., कस्टम-एक्साइज, पुलिस और इनकम टेक्स विभाग को कमाऊ विभाग क्यों कहा जाता है । बस, यह समझ लो कि मिस्र के पिरामिड यदि इन्होंने बनाए होते तो कब के ढेर हो गए होते या साँची और सारनाथ के स्तूपों का ठेका इन्होंने लिया होता तो जाने कितने भिक्षु दब कर मर गए होते ।
पर खैर, कोई बात नहीं । हम और तो कुछ कर नहीं सकते । तू इनको लिख दे कि यदि और कोई व्यवस्था नहीं हो तब तक अपने यहाँ आ जाएँ । पास में कृषिमंडी का हेलीपेड है । रोजाना सरकारी हेलीकोप्टर से अप-डाउन कर लेंगे । कौन सा अपनी कार और अपना पेट्रोल लगाना है । वैसे कुछ भगवान पर भी विश्वास करना चाहिए । ‘जाको राखे साइयां मार सके ना कोय’ और फिर जिसकी मौत आ ही गई उसे कोई बचा भी नहीं सकता । चारपाई से गिर कर भी आदमी मर सकता है और प्रह्लाद भक्त की तरह पहाड़ पर से लुढ़काया जाकर भी बच जाता है । अरे, और कुछ नहीं तो बिजली ही गिर पड़े उसे कौन कमांडो और सिक्योरिटी रोक लेगी । राजा परीक्षित को तो फल में से निकल कर एक कीड़े ने काट लिया था । और फिर रहीम जी ने भी कहा है-
रहिमन बहु भेषज करत ब्याधि न छांडत साथ ।
खग मृग बसत अरोग बन हरि अनाथ के नाथ ॥
बच्ची भी हिंदी पढ़ती है । उसने भी व्यंजना निकाली- कहने लगी । यही तो समस्या है । वे अनाथ भी तो नहीं कि भगवान उनकी जिम्मेदारी लें । वे तो पहले से ही ‘भारत माता’ की शरण में हैं ।
हमने कहा- तो फिर हम क्यों उनकी फ़िक्र करें । जिसने प्रधानमंत्री बनाया है वही उनकी रक्षा भी करेगा । हमारे पास तो जो विकल्प थे सो तुम्हें बता दिए । और हम फिर रजाई में घुस गए ।
तो भाईजान, हमारा तो यही लिखना है कि आप हमारे भरोसे नहीं रहें ।
जै राम जी की ।
05-01-2013
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सत् श्री अकाल ।
हमने कोई बीस वर्ष हिंदी पढ़ी और फिर चालीस वर्ष तक बच्चों को हिंदी पढ़ाई । जो हमने झेला उससे दुगुना हमने बच्चों को झिला दिया । आजकल की बात अलग है । बच्चे और अध्यापक दोनों चतुर हो गए हैं सो पता ही नहीं लगता कि कौन किसको झेल रहा है और कौन किसको झिला रहा है । आजकल पता नहीं हिंदी में बच्चों से किस तरह के लेख लिखवाए जाते हैं ? जब हम पढ़ते थे तो कई तरह के निबंध लिखवाए जाते थे जिनमें कुछ ऐसे भी होते थे – ‘मेरा प्रिय कवि’ या ‘मेरा प्रिय लेखक’ आदि । इसके बाद हमने नवें दशक में इसी शृंखला के और भी निबंध लिखवाए जैसे - 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री' । हमारे विद्यार्थी-काल में ऐसे निबंध नहीं हुआ करते थे क्योंकि ले देकर एक ही तो प्रधानमंत्री थे- नेहरू जी । भले ही किसी को प्रिय लगो या अप्रिय ।
अब आपने आकर थोड़ा स्थायित्व प्रदान किया है अन्यथा तो एक ज़माना था जब कभी भी प्रधानमंत्री बदल जाया करते थे । देवेगौड़ा, चरणसिंह, चंद्रशेखर और गुजराल साहब का क्या प्रधानमंत्री बनना और क्या न बनना । हाँ, सरकारी बँगले के उम्मीदवार ज़रूर बढ़ गए । वैसे यदि तिबारा चांस नहीं मिलता तो अटल जी भी इसी श्रेणी में धरे रखे ही थे । तो इस प्रकार गिनती तो बढ़ ही गई । और 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री ' निबंध लिखने वालों को चयन का अवसर मिल गया । सुविधा भी बढ़ गई । चरणसिंह जी को चुन लो या चंद्रशेखर जी या फिर गुजराल साहब या देवेगौड़ा जी - सबकी प्रधानमंत्री के रूप में प्रियता का समय कम होने से सिलेबस भी कम हो गया ।
खैर, अब आपके होते हुए दूर-दूर तक कोई विकल्प नज़र ही नहीं आता । नई सदी में प्रिय या अप्रिय आप ही हो । कई बार लगा कि इस या उस मुद्दे पर अब गए और तब गए, लेकिन साहब मान गई दुनिया कि ‘पीसा की झूलती मीनारें’ भी इतना सस्पेंस पैदा नहीं करती जितना आपको लेकर मचा । लेकिन अब लोगों को विश्वास हो गया है कि भले ही पीसा की मीनारें गिर जाएँ लेकिन भगवान कि दया से या इस देश के सौभाग्य से आपका हिलना और गिरना दोनों ही संभव नहीं लगता । भले ही अडवाणी जी या मुलायम या मायावती कोई भी आशा लगाए लेकिन हमें उनकी मुरादें पूरी होती नहीं लगतीं क्योंकि आप जैसा काबिल और देश का हितचिन्तक प्रधानमंत्री इस देश को मिलने से रहा । किसी न किसी प्रकार आपने देश का हित करके ही छोड़ा, चाहे कोई भी जोड़-तोड़ करके बहुमत जुटाना पड़ा । मुँह न देखने लायक के पाँव देखे, देश के हित के सामने अपने मान-सम्मान की चिंता भी नहीं की, जाने किस-किस के ताने सहे मगर देश का हित करके ही छोड़ा फिर चाहे परमाणु समझौता हो या वालमार्ट के लिए पलकें बिछाना । देश के हित के लिए यह कोई छोटा काम नहीं है । कोई और होता तो इतनी आलोचना के बाद कब का भाग लेता ।
सो हमारे प्रिय प्रधानमंत्री तो आप ही हैं भले ही ब्रिटेन वाले आपको किसी का गुड्डा कहें या अमरीका वाले अंडर-अचीवर । हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हम तो जिसके भी होते हैं अंध-भक्त होते है, सच्चे श्रद्धालु होते हैं आपकी तरह ।
आजकल हमारे राजस्थान में भयंकर सर्दी पड़ रही है । वैसे हमारा मानना है कि आजकल के मुकाबले सर्दी पहले अधिक पड़ती थी । आजकल तो प्रदूषणजनित ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण फिर भी ठण्ड काफ़ी कम हो गई है फिर भी बड़े तो बड़े बच्चों तक को घर में बने हुए लेटरिन में जाते हुए भी ठण्ड लगती है । एक हमारा समय था जब आठ बजे तक सूरज के दर्शन नहीं होते थे । बच्चे सुबह होते ही पानी का लोटा लेकर जंगल-दिशा के लिए चल पड़ते थे । उस समय जयराम रमेश जी वाले विभाग को इसी नाम से जाना जाता था । लोटा एक और बच्चे चार-पाँच । हालाँकि राजस्थान में पानी की कमी है लेकिन इतनी भी नहीं कि जलाभाव में चार बच्चे एक ही लोटा पानी से काम चलाएँ । यह तो ठण्ड में लोटा पकड़े रहने की पीड़ा का सभी उम्मीदवारों में सामान वितरण के लिए किया जाता था ।
खैर जी, हम भी क्या फालतू ज़िक्र लेकर बैठ गए । आपको कहाँ फुर्सत है ऐसी छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने की । आपके सामने तो और बड़ी-सदी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं । अब चुनाव में दिन ही कितने रह गए हैं । भले ही मौत का पता नहीं चले लेकिन कुर्सी पर बैठा आदमी पूरे पाँच बरस तक अपने संभावित पतन के बारे में ही चौबीसों घंटे सोच-सोचकर जागता और पैसे जोड़ता रहता है । लेकिन आपकी बात ही और है । आप तो इस मामले में सच्चे निस्पृह संत हैं । न हार आपकी और न जीत आपकी । फ़िक्र तो उनको होनी चाहिए जो आपको मनोनीत करते हैं । चुनाव का झंझट तो आपने कभी पाला ही नहीं । चुनाव लड़ाने वालों को भी एक बार आपको दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़वाने के बाद समझ में आ गया कि अपन कितने लोकप्रिय हैं ।
तो भाई साहब, बात हो रही थी ठण्ड की । जिनके पास ठण्ड से बचने की सुविधा होती है जैसे एयरकंडीशनिंग या फिर सर्दी में खाने को गिज़ा या फिर दारू, वे जानबूझकर बार-बार ठण्ड की अधिकता की चर्चा करते हैं । हमारे पास तो ले दे कर एक बीस साल पुराना, दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रेड़ी लगाने वाले से ख़रीदा हुआ, सेकण्ड-हैंड कोट है । अब तो न उस कोट में गरमी बची और न हमारे सत्तर साल पुराने इस अस्थिपंजर में । इसलिए अपनी हीन भावना को छुपाने के लिए, यदि कोई कहता भी है कि आज सर्दी बहुत है तो हम अकड़ कर उसका विरोध करते हुए कहते हैं- नहीं ,कोई खास नहीं । कुछ खाया-पिया करो । जब कि हम खुद अपनी हालत जानते हैं कि दारू तो दूर, दवा तक के लिए भी कंजूसी करते हैं । आपको तो खैर, भगवान की दया से सभी सुविधाएँ हैं- गिज़ा भी, दवा भी और दारू भी । और फिर ठण्ड तो हम जैसे जमना-जल में खड़े ब्राह्मण को लगेगी, महलों में तो सारे मौसम आशिकाना होते हैं । ये राजभवन भी बड़ी अजीब शै हैं । इनमें घुसते ही पचासी बरस का बूढ़ा भी फुदकने लगता है । आप तो फिर भी हमारी तरह अस्सी से कम ही हैं । वैसे हम तो आपकी तटस्थता और सादगी के कायल हैं ।
तो साहब, हम ठण्ड से बचने के लिए रजाई में घुसे बैठे थे । घर से बाहर निकल कर कहाँ जाएँ । घूमना-फिरना तो उसको सूझता है जिसकी जेब में माल हो-
इशक करे ऊ जिसकी जेब में माल वाह रे बलमू ।
कदर गँवाए जो कड़का कंगाल वाह रे बलमू ॥
सो हमने बाज़ार तो दूर, बिना बात घर से निकलना तक छोड़ दिया है । दोपहर का समय, लेकिन हम रजाई में घुसे-घुसे भी ठिठुर रहे थे । पोती के पास कम्प्यूटर है और वह उस पर कभी-कभी समाचार भी देख लिया करती है । सो पता नहीं क्या पढ़ लिया कि दौड़ी-दौड़ी हमारे पास आई और कहने लगी- बाबा, मनमोहन सिंह जी की रक्षा कीजिए । उसे पता नहीं, जो आदमी ज़रा सी सर्दी से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, बढ़ती महँगाई से अपने घर की अर्थव्यवस्था की रक्षा नहीं कर सकता, जो सब्सिडी के छः सिलेंडरों में एक साल खाना नहीं बना सकता - वह किसी की क्या रक्षा कर सकता है ।
फिर भी सुनते ही हमें इस भयंकर सर्दी में भी पसीना आ गया और बच्ची की हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा- कहो बेटी, उन पर क्या संकट है ? यदि आँख में कोई खराबी है तो हम अपनी आँख देने को तैयार हैं ।
बच्ची भी कोई कम नहीं । कहने लगी- बाबा, आपकी आँखें लेकर मनमोहन सिंह जी क्या करेंगे ? क्या आपको देश का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है ? जब देखो तब महँगाई, बेकारी, बीमारी, कुपोषण, महिलाओं की असुरक्षा, धर्म जाति के आधार पर भेदभाव, विदेशी अपसंस्कृति - जाने किस- किस का रोना लेकर बैठे रहते हो । सभी समस्याओं के बावज़ूद मनमोहन जी को देश का जो उज्ज्वल भविष्य नज़र आ रहा है, वह आपकी आँखों से तो नज़र आने से रहा । आपकी आँखे लेकर क्या करेंगे ? न आपके गुर्दे इतने मज़बूत कि बिना स्पष्ट बहुमत के परमाणु समझौता और एफ.डी.आई. पास करवा लें । अभी तो उन्हें जाने कितने कठिन कदम उठाने हैं देश के लिए । आपका कोई भी अंग उनके काम का नहीं है । और फिर क्या वे आपके अंगों के भरोसे देश को चला रहे हैं ? इस पिछड़े देश को विकास की सही दिशा दिखाने के लिए आँखें, और कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूत गुर्दे देने के लिए वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन, डंकल-बुश-ओबामा जाने कौन-कौन तैयार बैठे हैं । वैसे भगवान की दया से उनके सभी अंग-प्रत्यंग ठीक हैं और फिर यदि कोई खराबी-शराबी होगी तो अमरीका कौन दूर है ? जाएँगे और करवा आएँगे ओवरहालिंग । आप बिना बात मुझे असली बात से भटकाओ मत और ध्यान से सुनो । उनको न तो कोई शारीरिक खतरा है और मानसिक । न किसी आतंकवादी से और न महँगाई और बेकारी से । भगवान की दया से सारी बेटियाँ ब्याह दीं । कमा-खा रही हैं; अपने घर में खुश हैं ।
उन्हें खतरा तो अपने बँगले से है ।
फिर हमारा दिमाग अपने हिसाब से सक्रिय हो गया और पूछा- क्या उनका बंगला टपकता है, क्या वहाँ अपनी गली की तरह बरसात में पानी भरता है, क्या उनके घर के पास स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मोबाइल का टावर लगा हुआ जो उनके हार्ट के लिए खतरनाक हो सकता है , क्या किसी भू-माफिया ने उनके घर पर कब्ज़ा करने का मन बना लिया है , क्या उनके घर में पानी नहीं आता या फिर नए मीटर के कारण बिजली का बिल ज्यादा आता है ? या उनके घर में किसी भूत-प्रेत का प्रकोप है ?
बच्ची जोर से हँस पड़ी और कहने लगी- जूते बनाने वाले की पहुँच कहाँ तक होगी ? वह जूतों से ही आदमी मापता है । अब आप कुछ मत सोचो और कुछ मत बोलो और सुनो- मनमोहन जी का बंगला इतना पुराना हो चुका है कि कभी भी गिर सकता है ।
हमने कहा- तो क्या बात है ? जैसे हम लोग कोई प्राकृतिक आपदा आने पर किसी सरकारी इमारत, स्कूल, धर्मशाला आदि में शरण ले लेते हैं तो वे भी कुछ दिन के लिए राष्ट्रपति भवन में शरण ले लें । और शरण क्या, स्थाई रूप से भी वहाँ रह सकते हैं । तीन सौ कमरे हैं । प्रणव दा क्या तीन सौ कमरों में रहते हैं ? चाहे तो मनमोहन जी ही क्या सारा मंत्रिमंडल राष्ट्रपति भवन में रह सकता है । मंत्रियों के सारे बँगले दिल्ली के प्रोपर्टी डीलरों को नीलाम कर दें । वैसे भी सरकार अच्छे-भले सरकारी उपक्रमों को धूल के भाव निजी क्षेत्रों को बेच ही रही है । वैसे तुमने यह तो बताया ही नहीं कि १९३० में बने अंग्रेजों के बनवाए बँगले अस्सी साल में ही गिरने कैसे लग गए ? यदि आजकल की पी.डब्लू.डी. वालों ने बनाए होते या मनरेगा में बने होते तो बात और थी ।
बच्ची ने कारण बताया कि ये मकान केवल चूने और ईंटों से बने हैं, इनमें स्टील का उपयोग नहीं हुआ है इसलिए इनके गिरने का समय आ गया है । हमने फिर प्रतिवाद किया- अरे, चूने से बनी क़ुतुबमीनार को तो कुछ नहीं हुआ, बिना स्टील के कंस का किला, बनारस का विश्वनाथ मंदिर, वृहदेश्वर का मंदिर, मीनाक्षी मंदिर सभी खड़े हैं । हमें तो लगता है कि ये पी.डब्लू. डी. वाले डरा कर पहले तो इन मकानों को गिरवाने में पैसे कमाएँगे और फिर बनवाने में । इनका क्या, ये चाहें तो कागज पर मकान बना दें, कागज पर कुएँ खुदवा दें और फिर पानी न निकलने पर भरवा दें और दोनों कामों के पैसे खा जाएँ जैसे कि मंत्री जी अपने एन.जी.ओ. में हवाई विकलांगों को व्हील चेयर बँटवा दें । इनकी किसी राय को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए ।
बच्ची ने कहा- नहीं बाबा, ये लोग तो बेचारे बहुत ईमानदार हैं । एक इंजीनीयर ने तो यहाँ तक कहा है कि यह तो पी.डब्लू. डी. वालों की समय-समय पर की गई मरम्मत का चमत्कार है कि ये इतने दिन भी चल गए वरना तो इन्हें कभी का गिर जाना चाहिए था ।
अब हमने कहा- बेटा, अब हम तुम्हें कैसे समझाएँ कि पी.डब्लू.डी., एम.ई.एस., कस्टम-एक्साइज, पुलिस और इनकम टेक्स विभाग को कमाऊ विभाग क्यों कहा जाता है । बस, यह समझ लो कि मिस्र के पिरामिड यदि इन्होंने बनाए होते तो कब के ढेर हो गए होते या साँची और सारनाथ के स्तूपों का ठेका इन्होंने लिया होता तो जाने कितने भिक्षु दब कर मर गए होते ।
पर खैर, कोई बात नहीं । हम और तो कुछ कर नहीं सकते । तू इनको लिख दे कि यदि और कोई व्यवस्था नहीं हो तब तक अपने यहाँ आ जाएँ । पास में कृषिमंडी का हेलीपेड है । रोजाना सरकारी हेलीकोप्टर से अप-डाउन कर लेंगे । कौन सा अपनी कार और अपना पेट्रोल लगाना है । वैसे कुछ भगवान पर भी विश्वास करना चाहिए । ‘जाको राखे साइयां मार सके ना कोय’ और फिर जिसकी मौत आ ही गई उसे कोई बचा भी नहीं सकता । चारपाई से गिर कर भी आदमी मर सकता है और प्रह्लाद भक्त की तरह पहाड़ पर से लुढ़काया जाकर भी बच जाता है । अरे, और कुछ नहीं तो बिजली ही गिर पड़े उसे कौन कमांडो और सिक्योरिटी रोक लेगी । राजा परीक्षित को तो फल में से निकल कर एक कीड़े ने काट लिया था । और फिर रहीम जी ने भी कहा है-
रहिमन बहु भेषज करत ब्याधि न छांडत साथ ।
खग मृग बसत अरोग बन हरि अनाथ के नाथ ॥
बच्ची भी हिंदी पढ़ती है । उसने भी व्यंजना निकाली- कहने लगी । यही तो समस्या है । वे अनाथ भी तो नहीं कि भगवान उनकी जिम्मेदारी लें । वे तो पहले से ही ‘भारत माता’ की शरण में हैं ।
हमने कहा- तो फिर हम क्यों उनकी फ़िक्र करें । जिसने प्रधानमंत्री बनाया है वही उनकी रक्षा भी करेगा । हमारे पास तो जो विकल्प थे सो तुम्हें बता दिए । और हम फिर रजाई में घुस गए ।
तो भाईजान, हमारा तो यही लिखना है कि आप हमारे भरोसे नहीं रहें ।
जै राम जी की ।
05-01-2013
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
बहुत बढ़िया !
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