Jan 31, 2013

एक कुम्भ : अनास्था का


एक कुम्भ : अनास्था का

देवों और दानवों के सम्मिलित समुद्र-मंथन के फलस्वरूप अन्य रत्नों के साथ-साथ 'अमृत-कुम्भ' भी निकला था । जहाँ-जहाँ भी यह अमृत-कुम्भ छलका वहाँ-वहाँ अर्द्ध कुम्भ, पूर्ण-कुम्भ और महा-कुम्भ के मेले भरते हैं जिनमें भारत और विदेशों के करोड़ों लोग अपनी सहज श्रद्धा से अभिभूत होकर इकट्ठे होते हैं । अब तो उस बहुआयामी प्रतीक के नाम की नक़ल पर जाने कितने और कैसे-कैसे कुम्भ के मेले लगने लगे हैं- फिल्मों के कुम्भ, विज्ञापन के कुम्भ, क्रिकेट के कुम्भ और भी न जाने कितने ही कुम्भ । चोरों, लम्पटों, जुआरियों, सटोरियों, जेबकतरों, समलैंगिकों और उचक्कों के कुम्भ भी भरने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं ।

जैसे कुम्भ होंगे, वैसे ही विचार-मंथन होंगे और वैसे ही रत्न निकलेंगे । अभी जयपुर में एक कुम्भ का मेला लगा- जिसे ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ का नाम दिया गया । जैसे संत जुटेंगे वैसे संवाद होंगे और वैसे ही अमृत-तुल्य विचार रत्न निकलेंगे । सो इस कुम्भ में जो रत्न निकले वे कहीं भी आस्था के नहीं बल्कि अनास्था के रत्न (!) निकले । और फिर जब फेस्टिवल था तो वह सब कुछ भी होगा जो फेस्टिवल में होना चाहिए- शराब, सिगरेट तो खैर सामान्य हैं इनके बिना तो न आजकल चिंतन हो सकता है और न मनन । सभी आधुनिक और खाते-पीते - जिनका सामान्य आदमी और उसके सुख-दुःख से कोई संबंध नहीं - सभी 'पेज थ्री' के देखने, दिखने और दिखाने वाले लोग ।

तो इस मंथन से निकले रत्नों पर कुछ विचार किया जाए । एक हैं केरल मूल के दक्षिणी अफ्रीका के लेखक जीत थायल जिन्होंने पिछली बार सलमान रुश्दी की विवादास्पद पुस्तक 'शैतानी आयतों' का पाठ किया था । इस पुस्तक में सब जानते हैं कि आज से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व हुए एक समाज सुधारक, जिसके करोड़ों अनुयायी हैं और जो स्वयं किसी बात का प्रतिवाद करने के लिए उपस्थित नहीं हो सकते, के बारे में अपनी कुंठाओं को मिलाकर काल्पनिक बातें लिखी गईं हैं । ऐसे लेखन से किसी का भला नहीं हो सकता बल्कि समाज का वातावरण ही बिगड़ता है । हो सकता है कि इससे एशिया और अफ्रीका में फूट डालकर राज करने वाले उपनिवेशवादियों का कोई स्वार्थ सिद्ध होता हो लेकिन हमारा तो कुछ भी हित ऐसे साहित्य से संभव नहीं है ।

इस बार इन सज्जन ने अपनी पुरस्कृत पुस्तक 'नार्कोपोलिस' के कुछ अंश पढ़े जिनमें केवल अंग्रेजी गालियाँ थीं जिन्हें न सुन पाने के कारण कुछ महिलाएँ उठकर चली गईं । लेखक का मानना है कि ये गलियाँ तो उसके पात्र ने कही हैं । किसी ने भी कही हों लिखीं और पाठकों तक तो लेखक ने ही पहुँचाईं । और भी लेखक और फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होंने दुनिया को बदला, राह दिखाई, उन्हें तो लोगों तक पहुँचने के लिए गालियों का सहारा नहीं लेना पड़ा । आज के इन तथाकथित आधुनिक और महान! लेखकों को ही क्यों गालियों और अश्लीलता का सहारा लेना पड़ता है । या तो कला में कमी है या फिर नीयत में । श्रेष्ठ साहित्य शालीनता की रक्षा करते हुए भी सब कुछ कह सकता है । क्या रामायण और महाभारत में ऐसे नाज़ुक प्रसग नहीं है लेकिन सारी बात कहते हुए भी उन्हें शालीनता छोड़ने की मज़बूरी नहीं आई । हमारे नाट्यशास्त्र में तो न दिखाए जाने योग्य प्रसंगों का स्पष्ट विधान है फिर भी क्या उनमें संप्रेषण नहीं होता ?

जामिया विश्वविद्यालय के व्याख्याता अजय नेवरिया का क्रन्तिकारी दर्शन था कि या तो गाँवों में तकनीकी विकास करके उन्हें मेट्रो सिटी बना दिया जाए या या फिर गाँवों को आग लगा दी जाए । क्या उपाय है ? घर में मच्छर हों तो घर को जला दिया जाए यदि खाट में खटमल हों तो खाट को ही फूँक दो । गाँवों में गंदगी के सिवा कुछ नहीं है । संयुक्त परिवार सबसे बड़ी गंदगी है । बहुत खूब, बाज़ार भी ठीक यही चाहता है कि संयुक्त क्या एकल परिवार भी टूट जाएँ जिससे बाज़ार का हर तरह का धंधा चले- रोटी, कपड़ा, श्रम बचाने और फिर बचे हुए समय को काटने के सभी साधन भी वही बेचे और श्रम न करने से होने वाली बीमारियों का इलाज भी वही बेचे । बुढ़ापे में जब कोई किसी को सँभालने वाला न हो तो परिचारक भी कोई कंपनी ही सप्लाई करे । माँ के हाथ का खाना क्या ज़रूरी है- मेकडोनाल्ड और के.एफ.सी. हाजिर है ना, कुछ भी उल्टा-सीधा खाना घर पहुँचाने के लिए । यदि इन श्रीमान के माता-पिता ने ऐसी ही संवेदनशीलता से इनका पालन किया होता तो पता चलता । परिवार के बुज़ुर्गों के अभाव का क्या असर पड़ता है और बुढ़ापे में अपनी संतानों का क्या महत्त्व होता है यह इनको अभी पता नहीं चल रहा है । पर चलेगा अवश्य । मगर तब तक पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा ।

और इन सज्जन को यह पता नहीं है कि ये वातानुकूलित कमरों में बैठकर जिस दूध, सब्जी, फल अनाज का सेवन करते हैं वह मॉल, कम्प्यूटर, मोबाइल से न आज निकल रहा है और न कल निकलेगा । खेती अमरीका, योरप सभी जगह होती है क्योंकि अन्न किसी देश की आत्मनिर्भरता का पहला आधार है । बिना मिट्टी के अनाज नहीं उगेगा और न ही कोई गाय ऐसी होती है जो गोबर न करे । पता नहीं, किस दुनिया में हैं ये तथाकथित बुद्धिजीवी जी महाराज । विचारक समाज में निरंतर और शनैः-शनैः सुधार करते हैं । न तो कोई चीज एक दिन में बिगड़ती और न एक दिन में सुधरती है । तभी गाँधी जी कहते थे कि सब को शारीरिक परिश्रम करना चाहिए । अनाज के एक-एक दाने की कीमत किसान से पूछो । ऐसे आयोजनों के प्रायोजक को ‘लिकर किंग’ माल्या जी को अधनंगी सुंदरियों के कैलेण्डर बेचने से ही फुर्सत नहीं है । और वही हाल है ऐसे आयोजनों में चेहरा दिखाने के लिए तरसते बुद्धिजीवियों का ।

एक लेखिका प्रीता भार्गव कह गईं कि स्त्रियों को आज़ादी होनी चाहिए कि वे जिससे चाहें सेक्स करें । बाद में जब कुछ लोगों को यह बात नहीं पची और विरोध हुआ तो व्याख्या की गई कि यह बयान उन्होंने सेक्स वर्कर के बारे में दिया था । किसी भी कल्याणकारी समाज का लक्ष्य तो यही होना चाहिए कि उसमें कोई सेक्स वर्कर हो ही नहीं । अपनी इच्छा के विरुद्ध शरीर बेचने के लिए मजबूर होना कोई मानवीय गरिमा नहीं है । और फिर यदि सेक्स वर्करों को तसल्ली से पूछा जाए तो यही पता चलेगा कि वे इस पेशे में स्वयं को न तो गरिमामय अनुभव करती हैं और न ही यह कोई उनका सशक्तीकरण है ।

हो सकता है लेखिका का मंतव्य यह नहीं रहा हो लेकिन लेखक और विचारक में अपनी बात इस तरह से कहने की क्षमता होनी चाहिए कि उसके कई या नितांत भिन्न अर्थ नहीं लगाए जा सकें । और नहीं, तो इसे अभिव्यक्ति की कमी तो माना ही जाना चाहिए । नौकरी और नग्नता के बहाने नारी का शिकार करने वाला, तथाकथित नारीवादी लम्पट वर्ग इस नारी-स्वातंत्र्य की आड़ में भी, नारी को घर-परिवार से बाहर निकालने को प्रेरित करके उसका शिकार ही करना चाहता है । परिवार और अगली पीढ़ी का निर्माण करने में नारी की बहुत बड़ी भूमिका होती है । जो काम माँ कर सकती है वह लाख रुपया महिने लेने वाली नौकरानी भी नहीं कर सकती । हर चीज न तो बाज़ार उपलब्ध करवा सकता है और न ही बाज़ार हर मामले में विश्वसनीय होता है ।

क्या नारी कुतिया या सूअरी की तरह अपने पीछे पाँच-सात बच्चों को लिए गलियों में घूमेगी तब उसका सशक्तीकरण होगा ? क्या लिज़ हर्ले, ब्रिटनी स्पीयर और एलिजाबेथ टेलर के अलावा नारी सशक्तीकरण का कोई और उदहारण नहीं है हमारे पास ? संभव हो तो शांतनु की पत्नी सत्यवती, कुंती, द्रौपदी के बारे में कुछ पढ़ा जा सकता है । परिवार मानव की एक अद्भुत खोज है जो उसे अधिक विकसित और सुरक्षित बनाती है । उसे नष्ट करके मानव समाज का भला तो नहीं होगा । हाँ, बाज़ार को इस बहाने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी नाजायज़ घुसपैठ करने का मौका अवश्य मिल जाएगा । हमारे अनुसार तो ये तथाकथित विचारक बाज़ार के इशारे पर खेल रहे हैं । जिन देशों ने नारी स्वातंत्र्य के नाम पर परिवार को ही नष्ट होने दिया, अमरीका और योरप के उन देशों के आधे से अधिक एकल पेरेंट और विशेषकर उनके बच्चों की मानसिक, शैक्षणिक और संपूर्ण हालत का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि परिवार को तोड़ना कितना घातक हो सकता है । अपराधी और समाज पर बोझ बने अधिकतर बच्चे ऐसे खंडित परिवारों के ही हैं ।

चाणक्य के अर्थशास्त्र और बदनाम की गई मनुस्मृति में स्त्री के अधिकारों के बारे में पढ़ें तो पता चलेगा कि हमारे यहाँ स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता और अधिकार रहे हैं । यदि किन्हीं कारणों से उनमें विकृति आ गई है उसके कारणों का विश्लेषण करके उन्हें सुधारा जाए । यह तो कोई तर्क नहीं है कि कोई भोजन करके बीमार हो जाए तो भोजन करना ही बंद कर दिया जाए बल्कि भोजन में काम लिए गए पदार्थों, उनकी शुद्धता, बनाने या भण्डारण की कमियों की जाँच की जानी चाहिए ।

हमारे अनुसार तो यह कुम्भ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के हिमालय से निकली कुंठा और भ्रम की धाराओं के संगम पर लगा अनास्था का महाकुम्भ है और भारतीय चिंतन को न समझने वाले, गणेश को एलीफेंट गोड, हनुमान को मंकी गोड, कृष्ण को ईवटीज़र और महाकुम्भ को पिचर फेस्टीवल तक ही समझ पाने वालों का मौज-मस्ती के लिए लगा जमावड़ा है । इससे अधिक और कुछ नहीं । इससे किसी को कोई दिशा मिलने वाली नहीं है ।

२९ जनवरी २०१३


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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