Jan 30, 2013

प्रणव दा की पीड़ा और हमारी पाती

प्रणव दा की पीड़ा और हमारी पाती

आदरणीय प्रणव दा,
नमश्कार । राष्ट्रपति के रूप में आपका राष्ट्र के नाम पहला सन्देश सुना, गुना और लिखने को विवश हो गया । चूँकि आपने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करते ही अपनी अनौपचारिकता का परिचय दिया तो हमारी हिम्मत हुई कि आपको 'प्रणव दा' जैसे सरल और आत्मीय संबोधन से लिखें अन्यथा तो हाल यह है कि आजकल तो एक सरपंच और पटवारी भी अपने को महामहिम कहलवाना चाहता है, भले ही वह जनता की नज़रों में अपने सुकर्मों से महा-चंडाल ही क्यों न माना जाता हो ।

खैर, आपने भाषण छोटा ही दिया लेकिन वह अपने सन्देश और मारक क्षमता में 'नावक के तीर' की तरह मारक था लेकिन सत्ता के मद, धनबल, बाहुबल और पद के अभिमान में चूर लोगों तक पहुँचा ही नहीं क्योंकि वे इसे एक रस्म-अदायगी से अधिक कुछ नहीं समझते । वे जानते हैं कि आजकल सभी सत्ताएँ उन्हीं के समर्थन पर टिकी हैं और उनसे भयभीत हैं ।

सबसे पहले आपने दिल्ली में हुई बलात्कार की नृशंस और जघन्य घटना का ज़िक्र किया । वैसे तो ऐसी घटनाएँ देश में रोज हजारों की संख्या में होती है और उन सब में वे ही लोग लिप्त होते हैं जिनके पास सत्ता और धन का बल है तथा जिन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त है । उन्हें पता है कि सरकारें अपराध के अनुपात में नहीं, बल्कि उससे अपने वोट-बैंक पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुपात में सक्रिय या निष्क्रिय होती हैं । अंग्रेजी में एक कहावत है- Show me the person, I will show you the rule.

तो जब न्याय सत्ता के स्वार्थ से निर्धारित होता है तो भले और कमजोर लोग दुखी तो होंगे ही । सभी पार्टियों के कितने ही नेता ऐसे ही अपराधों के आरोपी हैं । उनके पास इतना बल है कि वे बरसों तक केस के फैसले को लटकाए रख सकते हैं और तब तक फरियादी या तो मर लेता है या टूट जाता है या फिर ऐसे लोगों द्वारा डरा-धमकाकर चुप करा दिया जाता है । त्वरित, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण न्याय ही किसी देश या समाज में समानता और सत्ता में विश्वास की नींव रख सकता है । ताकतवर लोगों पर आरोप लगाना ही बहुत बड़ी बात है । मुझे तो लगता है कि आजकल के संचार साधनों के कारण यह बलात्कार वाली बात अधिक प्रचारित हो गई और युवकों में एक स्वाभाविक उबाल देखने को मिला । सत्ताएँ इस घटना से नहीं बल्कि इस घटना से अपने वोटों के कम होने से अधिक डर गई थीं । मुझे तो इसके बारे सत्ताएँ हमेशा की तरह उदासीन ही लगीं ।

इसके बाद आपने बताया कि नैतिकता की दिशा को पुनः निर्धारित करेने का वक्त आ गया है । नैतिकता की दिशा तो इस देश में बहुत पहले से ही निर्धारित थी लेकिन हमने ही सत्ता में आकर प्रगति के नाम पर पश्चिम की पूंजीवादी नैतिकता अपना ली । पूंजीवाद की नैतिकता केवल अधिक से अधिक धन कमाना है । उसके लिए जनहित कोई मायने नहीं रखता । दुनिया के सबसे धनवान और प्राकृतिक दृष्टि से सबसे समृद्ध देश अमरीका में भी गरीबी, बेकारी और भुखमरी इसलिए है कि उसके उद्योगपति केवल अपने फायदे के लिए सोचते हैं और उनको बाध्य करना वहाँ की सत्ता के भी बस का नहीं है जैसे कि हमारी सत्ता के लिए । अमरीका के दुखों का कारण वहाँ के उद्योगपति हैं, तो हमारे यहाँ के दुखों के लिए हमारे उद्योगपति । वरना नैतिकता तो बहुत सीधी सी बात है । इसके लिए इस देश की शाश्वत धारणा देखिए-

पर हित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
या
त्यक्तेन भुंजीथा ।

ब्रिटिश राज में शिक्षा की इतनी व्यवस्था कहाँ थी । यहाँ के सेठों ने अपने-अपने इलाके में स्कूल और कालेज खुलवाए और लोगों ने मुफ्त में शिक्षा प्राप्त की और आज उन्हीं के वंशज लाखों रुपए साल के आवासीय विद्यालय खोल कर पैसे पीट रहे हैं और नेता भी अपने प्रभाव से सस्ती ज़मीने हथियाकर भाँति-भाँति के कालेज खोलकर कमाई कर रहे हैं ।

आगे आपने कहा कि लोगों को विश्वास होना चाहिए कि शासन मलाई का एक माध्यम है । म और भ में थोड़ा सा ही फर्क है । आजकल लोग इसे 'भलाई' नहीं 'मलाई' का माध्यम मानते हैं तभी तो लाख-पचास हजार की एम.एल.ए. या एम.पी. की कुर्सी के लिए करोड़ों खर्च कर रहे हैं । कुर्सी सेवा का नहीं हराम का मेवा खाने और उसे पचाने-छुपाने का साधन है । जब साधारण आदमी का महीना नौकरी करते-करते ही नहीं निकलता, दो जोड़ी कपड़े नहीं जुटते तो ये झकाझक कुर्ता पायजामा पहने, बिना तनख्वाह के सेवा करने वाले करोड़ों लोगों की फ़ौज कहाँ से उतर आई ? इनसे पूछिए कि ये इतने ठाठ-बाट कहाँ से मैनेज करते हैं ?

आगे आपने आर्थिक विकास के बारे में भी कहा कि आर्थिक विकास से प्राप्त लाभ पिरामिड के शिखर पर बैठे लोगों का ही एकाधिकार न हो जाए । आप भी वित्तमंत्री के रूप में जी.डी.पी. और औसत आमदनी का ही गणित समझाते रहे थे । वास्तव में गाँधी जी की तरह किसी समाज या देश की सही स्थिति उसके अंतिम सिरे पर खड़े आदमी से नापी जानी चाहिए । और अंतिम सिरे पर खड़ा आदमी अत्यंत निराश, हताश है अन्यथा कौन अपने बच्चों को मारकर खुद आत्महत्या करता है । अपने देश में लाखों आदमी केवल जीने के न्यूनतम साधनों से भी निराश होकर आत्महत्या करते हैं । ऐसे तो आत्महत्या अंग्रेजो के ज़माने भी लोग नहीं करते थे । तो क्या हमने अपने समाज को संवेदना के मामले में गुलाम भारत से भी गया-गुजरा नहीं बना दिया है ? पिरामिड पर बैठे लोगों से एक बार तो पूछिए कि वे अपने महल में एक महिने में सत्तर लाख की बिजली किस अधिकार से जला देते हैं ? क्या पैसा होने पर किसी को देश के संसाधनों के अपव्यय करने का अधिकार मिल जाता है ?

और अंत में आपने जनता का भरोसा जीतने के लिए कहा तो है ‘आज की स्थिति में भारत ही क्या, बड़े-बड़े देशों में भी लोगों को सरकारों को तो छोड़िए, भगवान पर ही भरोसा नहीं रहा । और जहाँ तक सत्ता में बैठे लोगों की बात है तो सब जनता की भलाई की आड़ में कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं और एक दूसरे की आलोचना और भ्रष्टता के बारे में चिल्लाते हुए भी कोई अंतिम फैसला नहीं लेते क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं । आज गडकरी ने आयकर विभाग वालों को देखने की धमकी दी है लेकिन जनता को पता है कि कोई किसी को देखने वाला नहीं है । हाँ, जनता सब की नंगई और दबंगई ज़रूर देख और झेल रही है ।

इस छः दशक के लोकतंत्र की उपलब्धियों को झेलता
आपके देश का एक सेवानिवृत्त अध्यापक
-रमेश जोशी

२६ जनवरी २०१३

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