बंधनहीनता बनाम बड़ा पिंजरा
कहते हैं- असंभव कुछ नहीं होता लेकिन यह सही नहीं है | आदमी को असंभव की कल्पना में आनंद आता है इसीलिए वह जब, जिस काल में जो असंभव लगता है उससे साक्षात्कार करने के रास्ते निकालता रहता है | इसमें फैंटेसी, कल्पना, स्वप्न, साहित्य और कलाएँ उसकी मदद करती हैं | मनोजगत के इन क्षेत्रों को कभी मनुष्य चकित होकर देखता है, कभी उन्हें असंभव और कपोल-कल्पना बताता है और कभी उनमें खो जाता है | जब स्वयं उड़ नहीं पाता था तो पक्षियों को देखकर कभी उनकी अनुकृति के यानों, तो कभी उड़न खटोलों, उड़ने वाले लकड़ी के घोड़े , उड़ने वाली जादुई दरी की कल्पना की |कभी हैरी पोटर में वही काम झाडू करती है |यह ठीक है कि अब वायुयान बनने पर वह कल्पना आदमी को अधिक नहीं लुभाती | अब बिना चालक के ड्रोन हैं, रोबोट हैं और भी बहुत से ऐसे ही आश्चर्यजनक आविष्कार हैं और होते रहेंगे |फिर भी इस चंचल खरगोश की नाक के सामने 'असंभव' की एक काल्पनिक गाजर हमेशा लटकी रहेगी और उसे दौड़ाती रहेगी |मनुष्य अपनी कल्पना में सम्पूर्ण बन्धनहीन होने का स्वप्न देखता रहेगा और दौड़ता रहेगा |लेकिन क्या यह दौड़ ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है ?
आजकल मानवाधिकार और स्वतंत्रता का बड़ा हल्ला है और उसके नाम पर बड़े ऊलजलूल मत, वाद, विश्लेषण और विचार व्यक्त किए जाते हैं | यह सच है कि मानव ही क्या, किसी भी जीव को कैद में रहना अच्छा नहीं लगता और यह उचित भी नहीं है कि किसी को कैद किया जाए | फिर भी मानवेतर जीवों में नहीं बल्कि मनुष्य समाज में ही अन्य मनुष्यों को गुलाम बनाकर रखने का इतिहास मिलता है |मनुष्य को लगता है कि उसके अतिरिक्त सभी जीव बन्धनहीन हैं | जो चाहे करते हैं, जब-जहाँ चाहे जाते हैं | लेकिन मनुष्य यह नहीं सोचता कि वे उसकी क्या कीमत चुकाते हैं और इस बंधनहीनता के कारण उन्हें किन-किन और कैसे -कैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है ?क्या इस बंधनहीनता की प्राप्ति के लिए हम अपने बच्चे को आग को छूने देंगे, क्या उसे खुले में घूमने देकर किसी ट्रक के नीचे आने देंगे ,क्या मनमाना आचरण करके उसे विभिन्न व्याधियों का शिकार होकर मरने देना चाहेंगे ?
एक बिल्ली अपने 'बिल्ली-अधिकारों' की सीमा को जानती है | वह भोजन के लिए चूहे का शिकार करती है |यह उसकी 'आहार,निद्रा, भय, मैथुनं च' की मूल प्रवृत्ति के तहत है |इसमें कोई हिंसा नहीं है |जीवो जीवस्य भोजनं |हो सकता है- यदि वह मनुष्य की तरह कुतर्की हो जाए तो कुत्ते के सामने 'बिल्ली-अधिकार' की बात करेगी और कुत्ते के द्वारा मारी जाए |लेकिन वह ऐसा नहीं करती |
यह ठीक है कि मानव समाज में इसी अवधारणा के कारण समय-समय पर समाजों में विभेद, तकरार, क्रांतियाँ, विवाद, विमर्श आदि होते रहे हैं | यदि ये न हों तो भी एक स्वाभाविक संसरण, एक परिवर्तन चलता ही रहता है-कुछ अनायास और कुछ सायास | लेकिन यदि मनुष्य की इस बंधनहीनता की अवधारणा की बात करें तो इसके लिए उसने कई शब्द गढ़ रखे हैं- स्वाधीनता, स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, मानवाधिकार, बाल अधिकार, नारी अधिकार और भी न जाने क्या-क्या ? विचार करें- स्वतंत्रता में भले ही 'स्व' हो लेकिन एक तंत्र भी है जिसके अपने नियम हैं | स्वाधीनता में भी 'स्व' किसी के अधीन है, स्वच्छंदता में भी अपना (स्व का )एक 'छंद' है |भले ही आप २४ मात्राओं के दोहे की जगह २३ मात्राओं के एक छंद का विधान करें लेकिन जब एक बार आपने २३ मात्राओं के एक छंद का विधान कर लिया तो आप उसमें बँध गए | यही छंद प्रकृति में, सृष्टि में बंधन, सीमा, नियम है | मानव कोई भी विधान करे, वही अंत में उसके लिए एक अनुशासन या बंधन बन जाता है |इसी बंधन में ग्रह-नक्षत्र और उनकी गतियाँ, दिन-रात, जन्म-मृत्यु बँधे हुए हैं |रक्त नसों में, हड्डियाँ मांस-मज्जा में, आत्मा देह के बंधन में है |जीव के लिए क्या नींद, भूख-प्यास का बंधन नहीं हैं ? बंधन और मुक्ति की अवधारणा बहुत सूक्ष्म है |
मानव समाज में बंधनहीनता, स्वतंत्रता आदि सापेक्ष हैं और सीमित हैं | हर सड़क के नियम है और उनका पालन न करने पर दुर्घटना के लिए आप किसी को दोष नहीं दे सकते | कहीं वाहन दाएँ चलते हैं तो कहीं बाएँ |जैसा भी हो नियम हो, मानना तो पड़ता है अन्यथा मानव समाज और जंगल में क्या अंतर रह जाएगा | हालाँकि जंगल में भी प्रकृति और सृष्टि का एक नियम और बंधन होता है |जंगल में कोई जीव वस्त्र नहीं पहनता लेकिन मनुष्य ने अपने लिए मौसम के अनुसार वस्त्रों का विधान किया है | और अब वह, कुछ आदिवासियों के अतिरिक्त, सभ्यता में शामिल हो गया | हालाँकि मानवाधिकारों का डंका बजाने वाले पश्चिमी देशों में भी अधिकारों या स्वतंत्रता के नाम पर पूर्ण नग्नता स्वीकार्य नहीं है |
मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में मूल प्रवृतियाँ हर समय उनके दिमाग में नहीं घुसी रहतीं | वे स्वाभाविक रूप से उनके अनुसार जीवन जीते हैं लेकिन संलिष्ट दिमाग वाले मनुष्य में तन के अतिरिक्त मन में भी बहुत कुछ ऐसा घुसा हुआ है जो उससे अप्राकृतिक व्यवहार करवा सकता है, करवाता है | इसलिए जब इस संलिष्ट दिमाग वाले मनुष्य ने अपने लिए एक तार्किक और नैतिक समाज बनाया है तो उसके नियम भी संलिष्ट होंगे | भले ही वे उसे बंधन लगें लेकिन अपने और शेष समाज/सृष्टि के सहज संचलन और सुरक्षा के लिए, उसे मन या बेमन से कोई न कोई तंत्र तो मानना ही पड़ेगा | इसलिए उसे बंधनहीनता की इस अवधारणा को सीमित और तार्किक बनाना ही पड़ेगा |
और फिर सूक्ष्म कीट-पतंगों का तो पता नहीं लेकिन कुत्ते, बिल्ली, पक्षी सब अपने बच्चों को अपनी आवश्यकता के अनुसार कठोर अनुशासन पूर्वक भोजन ढूँढने , अपनी रक्षा करने तथा परिवेश आदि का ज्ञान कराते हैं तो फिर मनुष्य को पूर्ण बंधनहीनता क्यों और किस लिए चाहिए तथा उससे क्या लाभ होगा ? और विचार करें कि यह बंधनहीनता उसे कहाँ ले जा सकती है ? और क्या यह संभव भी है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि 'बंधनहीनता' की यह अवधारणा किसी चालाक योजना के तहत मनुष्य को एक छोटे पिंजरे से निकाल कर किसी बड़े खतरनाक वध-स्थल पर ले जाने के लिए हो ?
कहते हैं- असंभव कुछ नहीं होता लेकिन यह सही नहीं है | आदमी को असंभव की कल्पना में आनंद आता है इसीलिए वह जब, जिस काल में जो असंभव लगता है उससे साक्षात्कार करने के रास्ते निकालता रहता है | इसमें फैंटेसी, कल्पना, स्वप्न, साहित्य और कलाएँ उसकी मदद करती हैं | मनोजगत के इन क्षेत्रों को कभी मनुष्य चकित होकर देखता है, कभी उन्हें असंभव और कपोल-कल्पना बताता है और कभी उनमें खो जाता है | जब स्वयं उड़ नहीं पाता था तो पक्षियों को देखकर कभी उनकी अनुकृति के यानों, तो कभी उड़न खटोलों, उड़ने वाले लकड़ी के घोड़े , उड़ने वाली जादुई दरी की कल्पना की |कभी हैरी पोटर में वही काम झाडू करती है |यह ठीक है कि अब वायुयान बनने पर वह कल्पना आदमी को अधिक नहीं लुभाती | अब बिना चालक के ड्रोन हैं, रोबोट हैं और भी बहुत से ऐसे ही आश्चर्यजनक आविष्कार हैं और होते रहेंगे |फिर भी इस चंचल खरगोश की नाक के सामने 'असंभव' की एक काल्पनिक गाजर हमेशा लटकी रहेगी और उसे दौड़ाती रहेगी |मनुष्य अपनी कल्पना में सम्पूर्ण बन्धनहीन होने का स्वप्न देखता रहेगा और दौड़ता रहेगा |लेकिन क्या यह दौड़ ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है ?
आजकल मानवाधिकार और स्वतंत्रता का बड़ा हल्ला है और उसके नाम पर बड़े ऊलजलूल मत, वाद, विश्लेषण और विचार व्यक्त किए जाते हैं | यह सच है कि मानव ही क्या, किसी भी जीव को कैद में रहना अच्छा नहीं लगता और यह उचित भी नहीं है कि किसी को कैद किया जाए | फिर भी मानवेतर जीवों में नहीं बल्कि मनुष्य समाज में ही अन्य मनुष्यों को गुलाम बनाकर रखने का इतिहास मिलता है |मनुष्य को लगता है कि उसके अतिरिक्त सभी जीव बन्धनहीन हैं | जो चाहे करते हैं, जब-जहाँ चाहे जाते हैं | लेकिन मनुष्य यह नहीं सोचता कि वे उसकी क्या कीमत चुकाते हैं और इस बंधनहीनता के कारण उन्हें किन-किन और कैसे -कैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है ?क्या इस बंधनहीनता की प्राप्ति के लिए हम अपने बच्चे को आग को छूने देंगे, क्या उसे खुले में घूमने देकर किसी ट्रक के नीचे आने देंगे ,क्या मनमाना आचरण करके उसे विभिन्न व्याधियों का शिकार होकर मरने देना चाहेंगे ?
एक बिल्ली अपने 'बिल्ली-अधिकारों' की सीमा को जानती है | वह भोजन के लिए चूहे का शिकार करती है |यह उसकी 'आहार,निद्रा, भय, मैथुनं च' की मूल प्रवृत्ति के तहत है |इसमें कोई हिंसा नहीं है |जीवो जीवस्य भोजनं |हो सकता है- यदि वह मनुष्य की तरह कुतर्की हो जाए तो कुत्ते के सामने 'बिल्ली-अधिकार' की बात करेगी और कुत्ते के द्वारा मारी जाए |लेकिन वह ऐसा नहीं करती |
यह ठीक है कि मानव समाज में इसी अवधारणा के कारण समय-समय पर समाजों में विभेद, तकरार, क्रांतियाँ, विवाद, विमर्श आदि होते रहे हैं | यदि ये न हों तो भी एक स्वाभाविक संसरण, एक परिवर्तन चलता ही रहता है-कुछ अनायास और कुछ सायास | लेकिन यदि मनुष्य की इस बंधनहीनता की अवधारणा की बात करें तो इसके लिए उसने कई शब्द गढ़ रखे हैं- स्वाधीनता, स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, मानवाधिकार, बाल अधिकार, नारी अधिकार और भी न जाने क्या-क्या ? विचार करें- स्वतंत्रता में भले ही 'स्व' हो लेकिन एक तंत्र भी है जिसके अपने नियम हैं | स्वाधीनता में भी 'स्व' किसी के अधीन है, स्वच्छंदता में भी अपना (स्व का )एक 'छंद' है |भले ही आप २४ मात्राओं के दोहे की जगह २३ मात्राओं के एक छंद का विधान करें लेकिन जब एक बार आपने २३ मात्राओं के एक छंद का विधान कर लिया तो आप उसमें बँध गए | यही छंद प्रकृति में, सृष्टि में बंधन, सीमा, नियम है | मानव कोई भी विधान करे, वही अंत में उसके लिए एक अनुशासन या बंधन बन जाता है |इसी बंधन में ग्रह-नक्षत्र और उनकी गतियाँ, दिन-रात, जन्म-मृत्यु बँधे हुए हैं |रक्त नसों में, हड्डियाँ मांस-मज्जा में, आत्मा देह के बंधन में है |जीव के लिए क्या नींद, भूख-प्यास का बंधन नहीं हैं ? बंधन और मुक्ति की अवधारणा बहुत सूक्ष्म है |
मानव समाज में बंधनहीनता, स्वतंत्रता आदि सापेक्ष हैं और सीमित हैं | हर सड़क के नियम है और उनका पालन न करने पर दुर्घटना के लिए आप किसी को दोष नहीं दे सकते | कहीं वाहन दाएँ चलते हैं तो कहीं बाएँ |जैसा भी हो नियम हो, मानना तो पड़ता है अन्यथा मानव समाज और जंगल में क्या अंतर रह जाएगा | हालाँकि जंगल में भी प्रकृति और सृष्टि का एक नियम और बंधन होता है |जंगल में कोई जीव वस्त्र नहीं पहनता लेकिन मनुष्य ने अपने लिए मौसम के अनुसार वस्त्रों का विधान किया है | और अब वह, कुछ आदिवासियों के अतिरिक्त, सभ्यता में शामिल हो गया | हालाँकि मानवाधिकारों का डंका बजाने वाले पश्चिमी देशों में भी अधिकारों या स्वतंत्रता के नाम पर पूर्ण नग्नता स्वीकार्य नहीं है |
मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में मूल प्रवृतियाँ हर समय उनके दिमाग में नहीं घुसी रहतीं | वे स्वाभाविक रूप से उनके अनुसार जीवन जीते हैं लेकिन संलिष्ट दिमाग वाले मनुष्य में तन के अतिरिक्त मन में भी बहुत कुछ ऐसा घुसा हुआ है जो उससे अप्राकृतिक व्यवहार करवा सकता है, करवाता है | इसलिए जब इस संलिष्ट दिमाग वाले मनुष्य ने अपने लिए एक तार्किक और नैतिक समाज बनाया है तो उसके नियम भी संलिष्ट होंगे | भले ही वे उसे बंधन लगें लेकिन अपने और शेष समाज/सृष्टि के सहज संचलन और सुरक्षा के लिए, उसे मन या बेमन से कोई न कोई तंत्र तो मानना ही पड़ेगा | इसलिए उसे बंधनहीनता की इस अवधारणा को सीमित और तार्किक बनाना ही पड़ेगा |
और फिर सूक्ष्म कीट-पतंगों का तो पता नहीं लेकिन कुत्ते, बिल्ली, पक्षी सब अपने बच्चों को अपनी आवश्यकता के अनुसार कठोर अनुशासन पूर्वक भोजन ढूँढने , अपनी रक्षा करने तथा परिवेश आदि का ज्ञान कराते हैं तो फिर मनुष्य को पूर्ण बंधनहीनता क्यों और किस लिए चाहिए तथा उससे क्या लाभ होगा ? और विचार करें कि यह बंधनहीनता उसे कहाँ ले जा सकती है ? और क्या यह संभव भी है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि 'बंधनहीनता' की यह अवधारणा किसी चालाक योजना के तहत मनुष्य को एक छोटे पिंजरे से निकाल कर किसी बड़े खतरनाक वध-स्थल पर ले जाने के लिए हो ?
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