Apr 12, 2016

मास्टर, ग़ज़ल सुना कर

  मास्टर, ग़ज़ल सुना कर 

आजकल ग्राम पंचायत से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक विकास की महामारी फैली हुई है |ऐसे में हमारी नगर परिषद् कैसे पीछे रह सकती है | जहाँ देखो, मार नालियाँ और सड़कें बनाने में लगे हुए हैं |हमारी कॉलोनी में भी विकास की इस आँधी का झपट्टा आ ही गया | सड़कें और नालियाँ बना दी गईं | यह किसी ने नहीं सोचा कि यह पानी जो अब तक यहाँ के कच्चे रास्तों की रेत से होकर ज़मीन में चला जाता था अब जाएगा कहाँ ? अब आलम यह है कि मोदी जी की मन की बात के अनुसार हमारे यहाँ के  सारे पानी की हार्वेस्टिंग हो रही है मतलब कि 'खेत का पानी खेत में' की तर्ज़ पर 'गली का पानी गली में' ही रहता है |और तो और, पीछे की एक अन्य कॉलोनी का पानी भी हमारे यहाँ का भूजल स्तर बढ़ाने के लिए आ जाता है |  नालियाँ विभिन्न प्रकार के गुटकों के खाली पैकेटों,पत्तों और पोलीथिन से अटी पड़ी रहती हैं |कागजों में वे ज़रूर साफ़ होती होंगी लेकिन ग्राउंड रियलटी का सामना तो हमें ही करना पड़ता है |जब नालियों का पानी सड़क पर पदार्पण करने लगता है और सहनशीलता समाप्त हो जाती है तो खुद ही फावड़ा लेकर नाली साफ़ करने लग जाते है लेकिन मज़े की बात यह है कि 'स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत' अभियान के प्रारंभिक दिनों की तरह कोई भी पत्रकार और फोटोग्राफर इधर नहीं फटकता |

हम जानते हैं कि कल तक यह कूड़ा फिर नाली में वापिस चला जाएगा जैसे कि निर्दलीय रूलिंग पार्टी में चला जाता है फिर भी हम अभी-अभी नाली साफ़ करके चबूतरे पर बैठे सुस्ता रहे थे कि तोताराम प्रकट हुआ, बोला- मास्टर, बेगम अख्तर की ग़ज़लों का केसेट लाया हूँ | आजकल सब कुछ वाट्स ऐप पर हो गया है तो किसी ने केसेट कूड़े में फेंक दिए थे, मैं उठा लाया | 

हमें बहुत गुस्सा आया- इन्हें भी फेंक दे नाली में |यहाँ ससुर कमर की बारह बजी हुई है और तुझे गज़लें सूझ रही हैं | गज़लें सुनना निठल्ले और भरे पेट वालों का काम है | या फिर नेता सुनेंगे जिनके घर के सामने रोज नगर परिषद् की तरफ से सफाई होती है | यहाँ तो नाली निकालने से ही फुर्सत नहीं है |

बोला- ग़ज़ल सुनना भरे पेट वालों के लिए भी उतना ज़रूरी है जितना दुखी और खाली पेट वालों के लिए | दारू या तो दुखी आदमी गम गलत करने के लिए पीता है या फिर सुखी आदमी अपनी ख़ुशी को दुगुना करने के लिए पीता है |इसलिए तू अपना दर्द और गम भुलाने के लिए गज़लें सुन ले | 

और फिर शायर कहता है-
एक दो रोज का सदमा हो तो रो लें 'फ़ाकिर'
हम को हर रोज के सदमात ने रोने न दिया |

इसलिए लोकतंत्र में साधारण और भले आदमी को तो रोज का रोना है |इसलिए रोने का क्या है, एक नहीं हजार कारण हैं |इसलिए इस तनाव से मुक्ति पाने का उपाय सोच | और वह उपाय है- गज़लें सुनना |

हमने पूछा- यह थैरेपी तू कहाँ से सीखकर आया है ?

बोला- मेरा हाल तो ग़ालिब वाला है- 'दर्द का हद से गुज़र जाना है दवा होना' या फिर 'पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी, अब किसी बात पर नहीं आती' |मुझे किसी थैरेपी की ज़रूरत नहीं है |यह नुस्खा तो तनाव दूर करने के लिए गडकरी जी ने मोदी को बताया था |

हमने कहा- तब तो इस नुस्खे में दम हो सकता है क्योंकि इतनी व्यस्तता, झंझटों और तनावों में भी वे हास्य का मौका निकाल ही लेते हैं, भले ही उनका निशाना एक विशेष दल ही होता है | और उससे मुक्त हुए बिना देश के और उनके अच्छे दिन नहीं आ सकते क्योंकि वही दल तो सत्तर साल से इस देश के दुखों का कारण है |लेकिन हमने तो इतिहास में पढ़ा है कि नवाब, राजा और ठाकुर बाइयों और डोमनियों से गज़लें और 'केसरिया बालम' सुनते रहे और योरप के लोगों ने यहाँ आकर कब्ज़ा कर लिया |अब चला रहे हैं लखनऊ में रिक्शा या मूँछे रँग कर रहे हैं चौकीदारी | 

इसलिए हमारा तो मानना है कि मोदी जी को गडकरी जी के कहने से ग़ज़लों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए |

हाँ, गडकरी जी की बात और है |वे तो मंत्री बनने से पहले भी अपना बढ़िया धंधा चला रहे थे |मंत्री नहीं भी रहेंगे तो अपना धंधा तो है ही | वे चाहें गज़लें सुनें या मुज़रा- उन्हें तो शांति ही शांति ही है | तनाव का कोई कारण ही नहीं |

इधर हम बोले जा रहे थे कि पता नहीं, कब तोताराम ने कैसेट प्लेयर पर कैसेट लगा दिया, बेगम अख्तर गा रही थीं-
आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया |

 

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