Apr 9, 2016

दुर्गा : एक प्रतिक की परिणति

 दुर्गा : एक प्रतीक की परिणति

नवसंवत्सर |प्रकृति के एक वनस्पति-वर्ष की समाप्ति |जीवन का एक और नया चक्र प्रारंभ |कहीं यह उगादी (युगादि) है तो कहीं चेटीचंड, कहीं संवत्सर |योरप का नया वर्ष भी लगभग इसी समय और इसी सिद्धांत के अनुसार अप्रैल में शुरु हुआ करता था |इसी दिन दुर्गापूजा (चैत्र नवरात्रा ) का शुभारम्भ होता है | दुर्गा- शक्ति का प्रतीक | शारदीय नवरात्र में रावण का वध करने के लिए राम नौ दिन तक शक्ति की आराधना करते हैं और दसवें दिन शक्ति की कृपा से रावण का वध करते हैं |

दुर्गा प्राकट्य की कथा है कि जब महिषासुर ने ब्रह्मा से अमरता का वर माँगा तो ब्रह्मा ने कहा- यह तो संभव नहीं है लेकिन तुम कुछ और वर माँग सकते हो |महिषासुर ने कहा सोचा कि स्त्री तो कोमल होती है |वह मेरा क्या वध कर सकती है |इसलिए उसने वर माँगा कि स्त्री के अतिरक्त कोई मेरा वध न कर सके | यह वर पाकर वह अपने को अजेय समझने लगा |उसके अत्याचारों से यह सृष्टि त्रस्त हो गई |

उससे निस्तार का कोई उपाय न देखकर देवता विष्णु के पास गए |विष्णु ने कहा- संसार में कोई स्त्री ऐसी नहीं है जो महिषासुर का वध कर सके |अब तो एक ही उपाय है कि सब अपने अपने सम्मिलित तेज से एक स्त्री की सृष्टि करें और उसे अपनी-अपनी शक्तियाँ प्रदान करें | सभी देवों के सम्मिलित तेज और अस्त्र-शास्त्रों से सज्जित जिस शक्ति-विग्रह का सृजन हुआ वही थी दुर्गा जिसने महिषासुर का वध किया |

यह एक प्रतीक कथा है जिसे हमारे कवि-हृदय मनीषियों ने सबकी सम्मलित शक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए रचा |

चूँकि हमारे पूर्वजों का समस्त चिंतन-मनन और दर्शन कविता में ही है इसलिए वह प्रतीक,रूपक और अन्य अलंकारों से बच नहीं सकता | इनकी व्याख्या में मतान्तर हो सकते हैं |इसीलिए भारतीय चिन्तन से प्रसूत दर्शन और जीवन में एकरूपता नहीं है |वह जीवन के विभिन्न रंग रूपों की तरह एक बहुरंगी छटा है | दुनिया के अन्य धर्मों में जीवन तथा उसके दर्शन की विविधता नहीं है क्योंकि उसमें न तो कहीं कविता है और न ही किसी तरह के रूपक और प्रतीक की गुंजाइश |सब कुछ दंड संहिता की तरह है जिसकी व्याख्या उसके वकीलों और न्यायाधीशों के विवेक और आवश्यकता पर निर्भर करती है |इसलिए वहाँ धर्म व्यक्ति के अपने विवेक से आचरणीय नहीं बल्कि किसी फरमान की तरह है |इसलिए वहाँ या तो मूक अनुयायी हैं या अविश्वासी (नॉन बिलीवर) हैं |

हिन्दू धर्म के स्वयंभू  ठेकेदारों को लगता है कि संहिताबद्ध और अपने अनुयायियों पर पकड़ रखने वाले हैं धर्मों में अधिक एकता है | इसलिए हम भी अपने धर्म को, जिसे एक जीवन शैली ही कहा जा सकता है क्योंकि वह प्रचलित अर्थों में संहिताबद्ध धर्मो से भिन्न और विविध है;  अनुशासित करें या नियंत्रित करें तो शायद धर्म, देश और समाज का कल्याण होगा |इस चक्कर में वे भारतीय चिंतन और दर्शन की मूल परिकल्पना और भावना से बहुत दूर हो गए और एक विविध और बहुरंगी जीवन शैली को रूढ़ बनाने का प्रयत्न करने लगे |यही कारण है कि हमारे प्रतीकों का चिंतन और प्रेरणा से कोई संबंध नहीं रहा |चिंतन प्रतीकों और फिर उनके चित्रण और मूर्तन तथा विधि-विधानों,आरतियों और भव्य आयोजनों से होता हुआ अंततः पत्थर और जड़ हो गया |

दुर्गा की कथा को पढ़ते, सुनते, गाते हुए भी हम उसे एक अलौकिक स्त्री के अतिरिक्त कुछ नहीं मान सकते जो हमारी हर कामना पूर्ण करेगी |हम उससे अपने व्यक्तिगत काम निकलवाना चाहते हैं लेकिन उसके पीछे समाज की सामूहिकता की आवश्यकता और शक्ति से कहीं भी परिचित नहीं हो पाते |ऐसे में हमारे मनीषियों की दुर्गा-शक्ति की अवधारणा ही निरर्थक सिद्ध हो जाती है |

ऐसे में नवरात्रा, दुर्गा की नौ दिन तक पूजा, जागरण, उपवास-फालाहार, विसर्जन, उसके नाम से बलि देना, उसके नाम पर शराब का सेवन करना, पूजा के लिए चंदा करना और धर्म की आड़ में राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ना बहुत ही बचकाने काम लगते हैं |

यह एक शक्तिशाली और सार्थक प्रतीक की एक दुखद परिणति है |

आज के इस समय में विभिन्न संकटों और खतरों से जूझती दुनिया में आतंकवाद, संसाधनों पर अवैध कब्ज़ा, संसाधनों का दुरुपयोग सब महिषासुर ही तो हैं |इसका वध या इससे परित्राण सब के मिले और अपनी समस्त शक्ति से प्रतिरोध किए बिना संभव नहीं है |

क्या इस परिस्थिति में दुर्गा के इस प्रतीक को समझने-समझाने और आचरण करने की आवश्यकता नहीं है ?







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