Sep 15, 2016

अटक गए अच्छे दिन

  अटक गए अच्छे दिन 

बड़े लोग जब ७५वें वर्ष में प्रवेश करते हैं तो चमचे या घर वाले खाते-पीते हुए तो अमृत-महोत्सव की तैयारी करने लग जाते हैं |ज़िन्दगी भर के फोटो ढूँढ़े जाते हैं और लोगों से झूठे-सच्चे संस्मरण लिखवाए जाते हैं | जैसे ही हम भी पचहत्तरवें वर्ष में घुसे, बच्चों ने कहा- बाबा, अब आप भी फुल-बॉडी चेकअप करवा लो, कहीं अन्दर-अन्दर  राजनीतिक पार्टियों की तरह कुछ गड़बड़ न चल रही हो | खैर, आठ हजार रुपए झटककर जब डाक्टरों को कुछ नहीं मिला तो कह दिया- चिकनाई, चीनी और नमक कम खाया करें |

आजकल के बच्चे पता नहीं क्यों, दूध-दही की मलाई से परहेज करते हैं |इसका यह फायदा हुआ कि सारी मलाई हमारी चाय में शामिल हो जाया करती थी |कुछ हिस्सा तोताराम को भी मिल जाया करता था |लेकिन अब चाय में चीनी और दूध दोनों कम हो गए और मलाई का तो प्रश्न ही नहीं | चाय का घूँट मुँह में लेते ही तोताराम रुक गया और कई देर तक उस घूँट को मुँह में ही घुमाता रहा |

हमने छेड़ा- क्यों, कहीं अच्छे दिनों की तरह चाय गले के गुडगाँवा के ट्रेफिक में अटक तो नहीं गई  ? 

बोला- संवेदनशील लोगों के गले में तो साँस भी अटक जाती है | नाक में खुशबू अटक जाती है, स्मृतियाँ अटक जाती हैं | मैं तो यह सोच रहा हूँ कि कहाँ तो वे दिन थे जब चाय में फुल क्रीम मिल्क हुआ करता था, डबल चीनी और कभी-कभी मलाई भी |चाय में ही मिठाई का आनंद आ जाता था | 

और आज यह चाय ! जैसे सहाबुद्दीन राशन की लाइन में खड़ा हो |पतन की भी कोई सीमा होती है | संसार में तीन ही तो स्वाद होते हैं- घी, चीनी और नमक |तीनों ही लगभग बंद | इस संन्यास आश्रम में ये दिन भी देखने को लिखे थे |क्या बताऊँ बन्धु, सचमुच इस चाय का यह घूँट वास्तव में गले से नीचे नहीं उतर रहा है जैसे अडवानी के गले निदेशक मंडल की सदस्यता |

हमने कहा- तोताराम, जीवन में बहुत कुछ गले के नीचे उतारना पड़ता है |जब सारा जीवन सही-सलामत बीत जाए, कुर्सी पर रहते हुए मृत्यु हो जाए, अखबारों में पूरा कवरेज हो जाए, टी.वी. पर अंतिम यात्रा का आँखों देखा हाल प्रसारित हो जाए, भस्म देश के सभी तीर्थों में बिखरा दी जाए, अंतिम दर्शनों के लिए आए सभी विदेशी मेहमान चले जाएँ, पाठ्यपुस्तकों में पाठ शामिल हो जाए और जगह-जगह मूर्तियाँ स्थापित हो जाएँ तब समझना मोक्ष हो गई अन्यथा तो राजनीति में पता नहीं कब, आदमी की हालत कुत्ते से बदतर हो जाए | कब संसद में कुर्सी तो दूर, संसद के दरवाजे से भी दरबानों द्वारा भगा दिया जाए |

बोला- वैसे मेरा विश्वास है कि नेताओं का गला बहुत बड़ा और चौड़ा होता है उसमें से जाने क्या-क्या बह जाता है और गले के गटर से गंगा में होता हुआ जाने कब गंगासागर  पहुँच जाता है |लोग तो थूककर चाट लेते हैं और पकड़े जाने पर साफ़ कह देते हैं- क्यों, तुझे क्या परेशानी है ? मेरा थूक है |थूकने के बाद विचार बदल गया तो थूक को पुनः यथास्थान पहुँचा दिया तो क्या हुआ ? यह या तो मेरा व्यक्तिगत मामला है या फिर मेरे और पार्टी के बीच का |और कभी-कभी अंतरात्मा  का कहना भी तो मानना पड़ता है |

फिर भी अब देख ना, किस तरह 'अच्छे दिनों' का जुमला भाजपा के गले में हड्डी की तरह अटका हुआ है |गड़करी जैसे बात-बात में दो-से चार, चार से छः लेन हाई वे से ट्रेफिक को स्मूथ बना डालने वाले व्यक्ति के गले में भी यह जुमला फँसा हुआ है तो यदि मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के गले में यादों की मलाई वाली चाय फँसी हुई है तो तुझे कुछ तो मदद करनी ही चाहिए |जब डाक्टर मुझे मना करेगा तब देखूँगा , फिलहाल मेरे लिए तो थोडा -सा दूध और चीनी मँगवा दे |

हमने कहा- तू भी क्या याद करेगा |छोड़ दूध और चीनी, ले पेड़े खा, हमारे समधी साहब ने भिजवाए हैं |




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