Oct 14, 2018

ना उम्र की सीमा हो...



 ना उम्र की सीमा हो .....

नाम न छापने की शर्त पर एक नेता ने बताया है कि पार्टी ने ७५ वर्ष से अधिक आयु के नेताओं के चुनाव न लड़ सकने का कोई आधिकारिक नियम नहीं बनाया गया है |पार्टी इसमें कुछ ढील भी दे सकती है क्योंकि कुछ बुज़ुर्ग नेताओं का अपनी सीट ही नहीं बल्कि आसपास के एक बड़े इलाके में भी प्रभाव है |

हमने तोताराम से कहा- बन्धु, यह क्या ? तुम्हारी पार्टी तो बड़ी सिद्धांतवादी पार्टी है |तो फिर 'पराक्रम-पर्व' के बाद यह 'पलटी-पर्व' वाला क्या मामला है ?

बोला- देख मास्टर, जैसे युद्ध और प्रेम में सब कुछ चलता है वैसे ही चुनाव में भी सब कुछ चलता है |यह भी एक तरह का महाघटिया युद्ध है |हमारी तो छोड़ महाभारत जिसे शुरू में धर्मयुद्ध कहा गया था, क्या वास्तव में अंत तक धर्मयुद्ध रह पाया ? गीता के उपदेश से शुरू हुआ महाभारत अश्वत्थामा द्वारा सोते हुए पांडु-पुत्रों की हत्या तक पहुँच गया |फिर यह तो अपने ही बुजुर्गों को चुनाव में उतारने का मामला है |एक मामूली सी बात |

हमने कहा- यह तो वैसे ही हुआ जैसे कि सीढियों के नीचे खाट पर पड़े बूढ़े को पेंशन के लिए बैंक में जीवन-प्रमाण-पत्र दिलवाने के लिए लोकलाज के चक्कर में नहला-धुलाकर ले जाया जाता है |या फिर प्रोपर्टी के कागजों पर दस्तखत करवाने के लिए बूढ़े को च्यवनप्राश का डिब्बा लाकर दिया जाता है | नहीं तो त्रिपुरा के मुख्यमंत्री के शपथ-ग्रहण समारोह में बुजुर्गों के हाथ जोड़कर नमस्ते करने तक का उत्तर नहीं दिया जाता |अपने विशाल पुष्पहार को हाथ लगाए हुए बेशर्मी से उनका फोटो खिंचवाया जाता है | 

बोला- बन्धु, यह तलब का मामला है |हमारे कवियों ने भी तो कहा है-
नींद न देखे टूटी खाट, प्यास न देखे धोबी घाट |
इसी तरह भूख में किवाड़ भी पापड़ |जन्म के रंडवे को काणी-खोड़ी बुढ़िया भी अप्सरा नज़र आती है |बलात्कारी को एक साल की बच्ची से लेकर अस्सी साल की बुढ़िया तक सभी चलती है |

हमने कहा- हो सकता है इससे यशवंत सिन्हा का कुछ हृदय-परिवर्तन हो जाए |और फिर जब अमित शाह के अनुसार अगले ५० साल तक भाजपा को ही जीतना है तो आज नहीं तो २०२५ में राष्ट्र के विकास की तीव्रगति को बनाए रखने के लिए मोदी जी की सेवाएं लेने के लिए नियम में छूट देनी ही पड़ेगी तो अब सही |बाद में लोगों को बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा |वैसे राजनीति में लोगो की बातों की परवाह की भी नहीं जाती |ऐसे ही रांडें रोती रहती हैं और पावणे जीमते रहते हैं | 

यदि सुनना चाहे तो तलब पर एक किस्सा सुन ले |एक बहुत बड़ा भोज था |और बड़े भोजों में तुम जानते हो कड़ाह इतने बड़े होते हैं कि आदमी  उनमें उतरकर फावड़ों से हलवा निकालते हैं |एक ऐसा ही बड़ा भोज जब समाप्त हुआ तो जिस आदमी का फावड़ा था वह कुछ ढूँढ़ रहा था |पूछने पर पता चला कि उसके फावड़े का फच्चर (हत्थे को टाईट करने के लिए फँसाया गया लकड़ी का टुकड़ा)नहीं मिल रहा था |इधर-उधर पूछने पर एक भोजन भट्ट ने कहा- भई पता नहीं, लेकिन हलुआ निगलते हुए कुछ रड़का तो था |हो सकता है तुम्हारा फच्चर ही रहा हो |

कहा भी गया है- अर्थी दोषं न पश्यति- स्वार्थ और लालच में आदमी भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी खा जाता है | यह तो अपने ही ७५ साल से ऊपर वालों को स्वार्थ के लिए और वह भी कुछ दिन के लिए ही तो झेलना है, तो चलेगा |वैसे चार साल निर्देशक मंडल में पड़े-पड़े बूढ़ों को भी कुछ अक्ल आ ही गई होगी | फिर काम निकल जाने के बाद दुबारा निर्देशक मंडल में पटकने से कौन रोक लेगा ?  




 


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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