पार्टी प्रवक्ता और कुत्ता शास्त्री
टी वी पर जिस प्रकार की बहस होती है वह जान बूझ कर ऐसी बनाई जाती है जिससे दर्शकों को योजनाबद्ध तरीके से मूर्ख, आक्रामक और एकांगी बनाया जा सके. और एंकर किसी न किसी पार्टी का पालतू होता है जो एक ख़ास तरीके से बहस में किसी को उखाड़ता है और किसी जो जमने और बकवास करने का मौका देता है.
इस बारे में हमें आज से साठ सत्तर बरस पहले की शादियाँ और रिश्तेदारियाँ याद आती हैं. लड़की वाले लड़के वालों से भद्दे मजाक किया करते थे. गालियाँ निकाल कर अपना संबंध व्यक्त करते थे. गाँव का जँवाई सारे गाँव का जमाई होता था. सबका उसे गाली निकालने का रिश्ता बनता था.
उस ज़माने में बारातें लड़की वाले के यहाँ कम से कम तीन दिन तो रहती ही थीं. अब तीन दिन बिना किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के कटते भी नहीं. सो दोपहर के जीमण होने के बाद मध्याह्न की चाय-नाश्ता और फलाहार से पहले गालियों और मज़ाक का एक नितांत फूहड़ सेशन चलता था. लड़की वाले की तरफ से गाँव के छंटे हुए लफंगे इकट्ठा होकर आते थे. उनके आते ही वर पक्ष के लफंगे भी धर्मशाला के चबूतरे पर जम जाते थे. और फिर जो दृश्य बनता था वह आजकल के भारतीय संस्कृति के मसीहाओं की चुनाव सभा से कम नहीं होता था. दूसरे पक्ष की सात पीढियां लपेट ली जाती थीं.
हमें लगता है यह वैदिक काल में प्रचलित शास्त्रार्थ की परंपरा का ही लोकतांत्रिक और तद्भव रूप हैं. इसीलिए उस जमाने में भले ही घर के किसी बच्चे को बारात से वंचित कर दिया जाए लेकिन दो-चार गाली निकालने वाले लफंगों को बारात में ज़रूर ले जाया जाता था. आखिर लड़की वालों के बीच अपनी इज्जत का सवाल जो ठहरा. यह भी याद है जब ब्राह्मणों की बारात के संस्कृत ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए कन्या-पक्ष के कुछ लोग श्लोक सुनाते और सुनते थे. लेकिन कम |ऐसे में पिताजी द्वारा हमें रटाए गए श्लोक बहुत काम आते थे.
गत दिनों टी वी पर एक नितांत घटिया बहस देखी जो निश्चित रूप से एक पार्टी के प्रवक्ता और एंकर की मिलीभगत थी. उसका परिणाम बहुत दुखद हुआ. हो सकता है- यह 'काकतालीय न्याय' (कौए के बैठते ही डाल का टूटना ) की तरह संयोग हो लेकिन सारे कार्यक्रम को घटिया बनाने में एंकर का ही मुख्य रोल रहा. अन्यथा हमने तो बहुत शालीन बहसें भी देखी हैं और उनसे ज्ञानवर्द्धन भी हुआ.
आज जब इस बारे में जब तोताराम से बात चली तो बोला- मास्टर, इन एंकरों और प्रवक्ताओं से तो अपने 'शास्त्री जी' हजार गुना अच्छे थे.
हमने कहा- अपने गाँव में तो कई शास्त्री हुए हैं जैसे लंठ शास्त्री, लार्ड शास्त्री, कुत्ता शास्त्री, भोला शास्त्री आदि. कौन सा शास्त्री ?
बोला- इनसे तो सभी शास्त्री अच्छे थे. 'कुत्ता शास्त्री जी' को ही ले ले. आज़ादी से पहले के सभी गाँव वाले जानते हैं कि शास्त्री जी सातवीं फेल हैं. बस, अखबार पढ़ लेते हैं, बहस कर लेते हैं और मौका आने पर लट्ठ भी चला लेते हैं. लेकिन गाँव के लड़के उनके बारे में इतना ही जानते हैं कि वे शास्त्री जी हैं और बिना संस्कृत जाने ही अपनी आक्रामकता के बल पर शास्त्रार्थ जीत सकते हैं.
शास्त्री जी के इस नाम की भी एक कहानी है. बचपन में टी वी तो दूर, पूरे गाँव में रेडियो सेट भी केवल दो थे और रेडियो स्टेशन पर किसी कार्यक्रम में जा पाना तो लोगों के लिए स्वप्न के समान था. ऐसे में वे अपनी प्रतिभा के बल पर मोहल्ले के कुत्तों का दल बनाकर दूसरे मोहल्ले के कुत्तों से शास्त्रार्थ के लिए ले जाते थे. कई देर तक ऊँची आवाज़ में बहस होती थी. रास्ते आते-जाते लोग रुककर आनंद लेते थे. उस शास्त्रार्थ में संलग्न कुत्तों ने कभी किसी को काटा नहीं. उस युग के कुत्ते भी शालीन हुआ करते थे. कुछ समय बाद शास्त्री जी अपने शिष्यों को लेकर मोहल्ले में लौट आते थे.
हमने कहा- तो फिर ये अपने को पढ़ा-लिखा और अनुशासित पार्टी के प्रवक्ता कहते हैं और आचरण शास्त्री जी के कुत्तों से भी गया गुजरा करते हैं.
बोला- शास्त्री जी भी सच्चे स्वयंसेवक थे और उनके शिष्य भी. उन्हें किसी प्रकार का कोई लालच नहीं था. न धन का, न पार्टी में किसी पद का |वे जो कर रहे थे वह शुद्ध सांस्कृतिक कार्यक्रम था. लेकिन ये तो लालच में लुच्चापन कर रहे हैं. जितनी गन्दगी फैलाएंगे उतना चर्चित होंगे. जहां तक तथ्यों और इतिहास की बात है तो जब इनके नेताओं को ही पता नहीं है तो इनसे क्या आशा करना. बस, मामला उस गाने की तरह है-
'तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़तम' की तरह सब कुछ
'हमारे नाम से शुरू, हमारे नाम पे ख़तम'.
हमने कहा- छुटभैय्यों की तो हम नहीं कह सकते लेकिन उस्ताद लोग सब जानते-समझते हैं. याद रखो, ताला बनाने वाले इंजीनीयर से ताले की नकली या डुप्लीकेट चाबी बनाने वाला अधिक चतुर होता है.
टी वी पर जिस प्रकार की बहस होती है वह जान बूझ कर ऐसी बनाई जाती है जिससे दर्शकों को योजनाबद्ध तरीके से मूर्ख, आक्रामक और एकांगी बनाया जा सके. और एंकर किसी न किसी पार्टी का पालतू होता है जो एक ख़ास तरीके से बहस में किसी को उखाड़ता है और किसी जो जमने और बकवास करने का मौका देता है.
इस बारे में हमें आज से साठ सत्तर बरस पहले की शादियाँ और रिश्तेदारियाँ याद आती हैं. लड़की वाले लड़के वालों से भद्दे मजाक किया करते थे. गालियाँ निकाल कर अपना संबंध व्यक्त करते थे. गाँव का जँवाई सारे गाँव का जमाई होता था. सबका उसे गाली निकालने का रिश्ता बनता था.
उस ज़माने में बारातें लड़की वाले के यहाँ कम से कम तीन दिन तो रहती ही थीं. अब तीन दिन बिना किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के कटते भी नहीं. सो दोपहर के जीमण होने के बाद मध्याह्न की चाय-नाश्ता और फलाहार से पहले गालियों और मज़ाक का एक नितांत फूहड़ सेशन चलता था. लड़की वाले की तरफ से गाँव के छंटे हुए लफंगे इकट्ठा होकर आते थे. उनके आते ही वर पक्ष के लफंगे भी धर्मशाला के चबूतरे पर जम जाते थे. और फिर जो दृश्य बनता था वह आजकल के भारतीय संस्कृति के मसीहाओं की चुनाव सभा से कम नहीं होता था. दूसरे पक्ष की सात पीढियां लपेट ली जाती थीं.
हमें लगता है यह वैदिक काल में प्रचलित शास्त्रार्थ की परंपरा का ही लोकतांत्रिक और तद्भव रूप हैं. इसीलिए उस जमाने में भले ही घर के किसी बच्चे को बारात से वंचित कर दिया जाए लेकिन दो-चार गाली निकालने वाले लफंगों को बारात में ज़रूर ले जाया जाता था. आखिर लड़की वालों के बीच अपनी इज्जत का सवाल जो ठहरा. यह भी याद है जब ब्राह्मणों की बारात के संस्कृत ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए कन्या-पक्ष के कुछ लोग श्लोक सुनाते और सुनते थे. लेकिन कम |ऐसे में पिताजी द्वारा हमें रटाए गए श्लोक बहुत काम आते थे.
गत दिनों टी वी पर एक नितांत घटिया बहस देखी जो निश्चित रूप से एक पार्टी के प्रवक्ता और एंकर की मिलीभगत थी. उसका परिणाम बहुत दुखद हुआ. हो सकता है- यह 'काकतालीय न्याय' (कौए के बैठते ही डाल का टूटना ) की तरह संयोग हो लेकिन सारे कार्यक्रम को घटिया बनाने में एंकर का ही मुख्य रोल रहा. अन्यथा हमने तो बहुत शालीन बहसें भी देखी हैं और उनसे ज्ञानवर्द्धन भी हुआ.
आज जब इस बारे में जब तोताराम से बात चली तो बोला- मास्टर, इन एंकरों और प्रवक्ताओं से तो अपने 'शास्त्री जी' हजार गुना अच्छे थे.
हमने कहा- अपने गाँव में तो कई शास्त्री हुए हैं जैसे लंठ शास्त्री, लार्ड शास्त्री, कुत्ता शास्त्री, भोला शास्त्री आदि. कौन सा शास्त्री ?
बोला- इनसे तो सभी शास्त्री अच्छे थे. 'कुत्ता शास्त्री जी' को ही ले ले. आज़ादी से पहले के सभी गाँव वाले जानते हैं कि शास्त्री जी सातवीं फेल हैं. बस, अखबार पढ़ लेते हैं, बहस कर लेते हैं और मौका आने पर लट्ठ भी चला लेते हैं. लेकिन गाँव के लड़के उनके बारे में इतना ही जानते हैं कि वे शास्त्री जी हैं और बिना संस्कृत जाने ही अपनी आक्रामकता के बल पर शास्त्रार्थ जीत सकते हैं.
शास्त्री जी के इस नाम की भी एक कहानी है. बचपन में टी वी तो दूर, पूरे गाँव में रेडियो सेट भी केवल दो थे और रेडियो स्टेशन पर किसी कार्यक्रम में जा पाना तो लोगों के लिए स्वप्न के समान था. ऐसे में वे अपनी प्रतिभा के बल पर मोहल्ले के कुत्तों का दल बनाकर दूसरे मोहल्ले के कुत्तों से शास्त्रार्थ के लिए ले जाते थे. कई देर तक ऊँची आवाज़ में बहस होती थी. रास्ते आते-जाते लोग रुककर आनंद लेते थे. उस शास्त्रार्थ में संलग्न कुत्तों ने कभी किसी को काटा नहीं. उस युग के कुत्ते भी शालीन हुआ करते थे. कुछ समय बाद शास्त्री जी अपने शिष्यों को लेकर मोहल्ले में लौट आते थे.
हमने कहा- तो फिर ये अपने को पढ़ा-लिखा और अनुशासित पार्टी के प्रवक्ता कहते हैं और आचरण शास्त्री जी के कुत्तों से भी गया गुजरा करते हैं.
बोला- शास्त्री जी भी सच्चे स्वयंसेवक थे और उनके शिष्य भी. उन्हें किसी प्रकार का कोई लालच नहीं था. न धन का, न पार्टी में किसी पद का |वे जो कर रहे थे वह शुद्ध सांस्कृतिक कार्यक्रम था. लेकिन ये तो लालच में लुच्चापन कर रहे हैं. जितनी गन्दगी फैलाएंगे उतना चर्चित होंगे. जहां तक तथ्यों और इतिहास की बात है तो जब इनके नेताओं को ही पता नहीं है तो इनसे क्या आशा करना. बस, मामला उस गाने की तरह है-
'तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़तम' की तरह सब कुछ
'हमारे नाम से शुरू, हमारे नाम पे ख़तम'.
हमने कहा- छुटभैय्यों की तो हम नहीं कह सकते लेकिन उस्ताद लोग सब जानते-समझते हैं. याद रखो, ताला बनाने वाले इंजीनीयर से ताले की नकली या डुप्लीकेट चाबी बनाने वाला अधिक चतुर होता है.
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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