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Feb 29, 2012

नकद नारायण

प्रणव दादा,
नमस्कार । हालाँकि कुछ पत्रकारों ने आपके अगले राष्ट्रपति बनने के कयास उछाल दिए हैं पर हम उसके बारे में आपको यह पत्र नहीं लिख रहे हैं क्योंकि अब आपके लिए यह पद भी कोई बड़ा नहीं रहा गया है । आप वित्तमंत्री रहते हुए भी देश की अमूल्य सेवा कर रहे हैं ।

अभी आपने २० फरवरी २०१२ को ओरिएंटल बैंक ऑफ कामर्स के ७० वें स्थापना दिवस पर गुडगाँव में कहा कि देश की जन कल्याणकारी योजनाओं में गरीबों को सब्सीडी देकर जो वस्तुएँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वितरित की जाती है उसमें एक लाख करोड़ की वस्तुएँ वितरित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं । सब्सीडी की यह राशि सीधे ही उन लोगों के बैंक खातों में भेज दी जाए तो फिर हर साल यह खर्चा नहीं लगेगा । हाँ, एक बार ज़रूर ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए लगेंगे मगर इस राशि की भरपाई एक साल में ही हो जाएगी । फिर तो हर साल या तो ६०-७० हज़ार करोड़ की बचत होगी या गरीबों को और ६०-७० हज़ार करोड़ सहायता के रूप में दिए जा सकेंगे ।

क्या गज़ब का आइडिया है उस्ताद ! एक पंथ दो काज नहीं, एक पंथ नौ काज समझो । बस, हमें तो यही चिंता है कि फिर बँटवारे के इस धंधे में लगे नेताओं और दलालों का क्या होगा ? हालाँकि ये चतुर लोग 'आप डाल-डाल हैं तो वे पात-पात' हैं फिर भी उनको अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में कुछ समय तो लगेगा ही ।

हमारा मानना है कि जब से दुनिया में राज-काज का विकास हुआ है तब से सारा झगड़ा बाँटने या वितरण का ही रहा है । लोग उत्पादन से ज्यादा वितरण या बाँटने में ही रुचि लेते हैं क्योंकि ' बाँटन वारे को लगे ज्यों मेहँदी को रंग' और सेवक कहलाते हैं मुफ्त में । बाँटने के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध कहानी एक बंदर की है जिसे पहली-दूसरी के हर बच्चे को पढ़ाया जाता है मगर मज़े की बात है कि कोई इससे शिक्षा नहीं लेता और बार-बार उसी बंदर के पास जाता हैं बँटवारे के लिए और बंदर मज़े से आज तक सारी रोटी खाता आ रहा है । गोरे उपनिवेशवादियों ने तो सभी जगह जहाँ भी वे गए इसी 'बाँटो और राज करो' की नीति को अपनाया और मज़े किए । जब उपनिवेश खत्म होने लगे तो उन देशों को बाँट दिया, एक के चार देश बना दिए । अब उन्हें आपस में लड़ा कर हथियारों का धंधा करके खरबों कमा रहे हैं । उनसे स्वतंत्र हुए देशों के नेता भी अब उनकी ही तरह अपनी जनता को जाति-धर्म के नाम पर बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ।

इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है-

मुखिया मुख सो चाहिए खान पान को एक ।
पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक ॥
मगर कहाँ मिलते हैं ऐसे मुखिया ? लोग तो जब भी कुछ बाँटने का मौका मिलता है तो अंधे की तरह सारी रेवड़ी अपनों को ही बाँट देते हैं । और इन अपनों में कौन होते हैं- अपने ही परिवार के लोग । उनका पेट भरे तो किसी और का नंबर आए ना । अपनी जाति वाले तक टापते रह जाते हैं ।

खैर, अब आपकी यह योजना बहुत बढ़िया है । इससे हमें एक किस्सा याद आगया । हुआ यूँ कि मुर्गीखानों का निरीक्षण करने के लिए एक अधिकारी गया । उसने एक से पूछा- मुर्गियों को क्या खिलाते हो ? एक ने ज़वाब दिया- बाजरा । अधिकारी ने कहा- यह ठीक नहीं है । इससे मुर्गी को दस्त लग सकते हैं । फिर दूसरे से पूछा- तुम क्या खिलाते हो ? उसने कहा- ज्वार । अधिकारी ने उसको लताड़ा- इससे मुर्गी को कब्ज हो सकती है । तीसरा व्यक्ति सब देख सुन अनुभवी हो गया था । उसने कहा- साहब, मैं तो मुर्गी को कुछ नहीं खिलाता । सबको पाँच-पाँच रुपए दे देता हूँ । इनका जो मन होता है बाजार में जाकर खा आती हैं ।

तो आप भी अनुभवी हो गए हैं सो गरीबों को सब्सिडी देकर फ्री हो जाइए । उनकी मर्जी जो चाहें, जहाँ से चाहें लें और मौज करें । बाज़ार की जैसी मर्जी वैसा वह करे । आपकी तरफ से तो हो गया कल्याण । न कोई जाँच और न कोई घपला । और फिर नकद का मज़ा ही कुछ और है । तभी नकद को 'नारायण' कहा गया है । नारद शायद इसीको हर समय अपनी वीणा पर भजते रहते हैं । और भी कहा गया है- 'नौ नकद, न तेरह उधार' ।

अब सोचिए कि जब पहले सब्सीडी की चीजें दुकान पर खरीदने जाते थे तब कभी तो दुकान खुली नहीं मिलती थी, खुली होती थी तो सामान नहीं होता था, यदि सामान हुआ तो सड़ा गला होता था और तोल में भी कम । अब सीधा बैंक में पैसा पहुँच जाएगा । जब मर्जी हुई निकाल लिया । वरना पहले गेहूँ खरीदो, सिर पर उठा कर ले जाओ फिर किसी को कम भाव में बेचो और तब कहीं शाम को दारू की थैली का इंतज़ाम होता था । अब आप ही सोचिए इतने झंझटों के बाद क्या मज़ा रह जाता होगा पीने का ।

अब सीधे बैंक जाओ, पैसा निकालो, ठेके वाले के आगे फेंकों, थैली लो और मज़े करो ।

आप तो सब्सीडी की सारी वस्तुओं का ही नहीं बल्कि जननी सुरक्षा योजना, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या के हिसाब से मध्याह्न भोजन का पैसा, वृद्धावस्था पेंशन का पैसा, मुफ्त दवाओं की राशि और भी कुछ बनता हो तो उसका भी नकद पैसा सीधे बैंक में भिजवा दीजिए ।

जय नकद नारायण ।

और फिर उसके बाद तो दारू के ठेकेवाले बैंक के पास ही अपने आप ही दुकान लगा लेंगे और फिर सारा नहीं तो आधा पैसा तो आबकारी टेक्स के रूप में फिर सरकार के पहुँच ही जाएगा । वैसे जनता को इसी तरह भिखमंगा और बेवड़ा बनाए रखना ज़रूरी है । यदि इसे आत्मनिर्भर बना दिया गया तो फिर ये न तो किसी की सुनेंगे और न किसी का वोट बैंक बनेंगे । फिर नेता-राजा , युवराजों को कौन पूछेगा ।

नारायण, नारायण । बोल सच्ची सरकार की जय । सच्चे दरबार की जय ।

२४-२-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 23, 2012

तोताराम का विज्ञान प्रधान देश

भारत एक 'प्रधान' देश है इसलिए वह जब चाहे, जिस क्षेत्र में चाहे प्रधान बन जाता है । पहले वह एक कृषि प्रधान देश था । उस समय देश में भुखमरी थी । अनाज विदेशों से आता था । किसी तरह कृषि विश्वविद्यालय खुले, खाद के कारखाने खुले, बीजों में भी सुधार हुआ और कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भरता आई । मगर उसे तो एक विकसित देश बनना था सो इतना विकसित हुआ कि अनाज निर्यात किया जाने लगा और इतना निर्यात किया गया कि फिर से उसी अनाज को, उन्हीं देशों से महँगे भावों पर फिर आयात करना पड़ा । अब हालत यह है अनाज गोदामों में सड़ रहा है और लोग भूखे मर रहे हैं । अब उसे यंत्रीकरण में उन्नति करनी थी सो यंत्रीकरण शुरु हुआ और हालत यह हो गई कि कारें बढ़ गईं और सड़कें कम पड़ गईं । कान कम पड़ गए और मोबाइल ज्यादा हो गए । मोबाइल कानों को ढूँढते फिर रहे हैं ।

उसके बाद यह देश एक लोकतंत्र-प्रधान देश बन गया । उसके सारे निर्णय लोकतंत्र के अनुसार लिए जाने लगे- चाहे वह रोटी का प्रश्न हो या फिर रोजी का । अब तो हालत यह है कि भगवान के बारे में भी और यहाँ तक कि न्याय संबंधी निर्णय भी लोकतंत्र अर्थात वोट बैंक के आधार पर लिए जाने लगे हैं । अब इस देश को विज्ञान प्रधान बनाने की जी तोड़ कोशिशें हो रही हैं हालाँकि केमेस्ट्री, भौतिकी आदि किसी के साथ भी विज्ञान नहीं लगा हुआ है जब कि विज्ञान लगा हुआ होने पर भी राजनीति विज्ञान, गृह विज्ञान, भाषा विज्ञान को कोई विज्ञान मानने के लिए तैयार नहीं । अजीब विडंबना है ।

जब से तोताराम ने न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत को झूठ सिद्ध किया है तब से हमने उसे अपने छाया-मंत्रीमंडल में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त कर लिया है और विज्ञान के बारे में हम हर मामले में उसी से सलाह करते हैं । अभी कोई आठ-दस दिनों पहले कलाम साहब ने कहा कि हमारे देश में शोध और आविष्कार कम होते हैं । सो आज जैसे ही तोताराम आया हमने तोताराम के सामने समस्या रखी तो कहने लगा- कलाम साहब को देश में हो रहे आविष्कारों और खोजों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, यदि होती तो वे ऐसा नहीं कहते ।

हमने कहा- तोताराम, कलाम साहब तो बहुत अपडेट रहने वाले व्यक्ति हैं । यदि ऐसा कुछ होता तो उनसे क्या छुपा रहता ?

तोताराम ने कहा- कलाम साहब बहुत ऊँची बातें सोचते हैं । बड़ी-बड़ी जगहों पर जाते हैं इसलिए उन्हें सामान्य लोगों द्वारा किए जा रहे आविष्कारों की जानकारी नहीं है । वैसे जब कोयले की खानों का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था तब भी लोगों ने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा का चमत्कार दिखाया था । तब कागजों में जितने कोयले का उत्पादन हुआ उससे ज्यादा निर्यात कर दिया गया । यह किसी बहुत बड़े वैज्ञानिक चमत्कार से कम है क्या ?
सरकार के बैंकों में, पोस्ट आफिस में जमा करवाने पर रुपया रो-रो कर कोई आठ साल में दुगुना होता है जब कि राजस्थान में एक 'स्वर्ण-सुख' नामक कंपनी ने एक साल में रुपया पन्द्रह गुना करने का वादा किया तो क्या यह मनमोहन जी के अर्थ-विज्ञान से कम है ?

हमने प्रतिवाद किया- मगर रुपया पन्द्रह गुना कहाँ हुआ ?

तोताराम ने उत्तर दिया- पन्द्रह गुना क्या, पन्द्रह लाख गुना हो गया । पता है, कंपनी बनाने वालों ने जितना विज्ञापन और कार्यालय खोलने में खर्च किया और जितना जनता के धन की सुरक्षा करने वालों को दिया उससे तो पन्द्रह लाख गुना से भी ज्यादा हो गया । अब उससे कौन बहस करे ?

हमने विषय का एक और आयाम निकाला- कहा, यह तो धोखाधड़ी है । कोई ऐसा आविष्कार बता जिससे कोई खाने-पीने की चीज़ बढ़ी हो ।

निरुत्तर हो जाने वाला तोताराम नहीं है । कहने लगा- जिस समय देश स्वतंत्र हुआ था उस समय जितना दूध का उत्पादन होता था उससे जाने कितना गुना बढ़ गया है जब कि हमारा देश सबसे ज्यादा चमड़े का निर्यात करता है । गाएँ सड़कों पर धक्के खाती फिरती हैं, गौशालाओं में अनुदान मिलने पर भी भूखी मरती हैं । फिर भी जब कभी कोई त्यौहार आता है तो मावे और दूध की निर्बाध सप्लाई हो जाती है । जितना चाहो पनीर, बटर और घी ले लो । ऐसी घी-दूध की नदियाँ तो कृष्ण के समय में भी नहीं बहती थीं ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था सो हमने कहा- बंधु, तुम्हारी इन सूचनाओं से हमारा अत्यंत ज्ञानवर्धन हुआ है और कलाम साहब का तो पता नहीं, पर विज्ञान में देश के कम उन्नति करने के कारण हमारे मन में व्याप्त हीन-भावना समाप्त हो गई है और हमें लग रहा है कि गर्व से हमारी छाती कुछ-कुछ चौड़ी भी हो रही है ।

तोताराम ने देश की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में आगे बताया कि एक ही स्थान पर दो तरह के गुरुत्त्वाकर्षण बनाए जा सकते हैं । आज भी देश में ऐसे चमत्कारी लोग मिल जाएँगे जो सामान खरीदते समय बाट वाले पलड़े में गुरुत्त्वाकर्षण की मात्रा इतनी बढ़ा देते हैं कि पाँच किलो की जगह सात किलो सामान आ जाता है और बेचते समय सामान वाले पलड़े का गुरुत्त्वाकर्षण इतना बढ़ा देते हैं कि पाँच किलो की जगह तीन किलो सामान की ग्राहक के पल्ले पड़ता है ।

इस देश में वैज्ञानिकों ने ऐसी क्रीम बना ली है जो केवल पाँच रुपए में मिल जाती है और उपयोग करने वाली को चौदह दिन में ही इतना गोरा बना देती है कि उसे तत्काल दूल्हा मिल जाता है या किसी विमानन कंपनी में एयर होस्टेस की नौकरी मिल जाती है । आज तक कोई भी गोरा देश ऐसी क्रीम नहीं बना सका जिससे यह चमत्कार हो सके अन्यथा वे सरलता से सभी अफ्रीकियों को गोरा बना देते और जो एकता ईसाई बनाने पर भी नहीं आ सकी वह आ जाती और फिर सभी काले अफ्रीकी उन्हें अपना ही भाई समझते और गोरों को अफ्रीका से नहीं जाना पड़ता और न ही उन पर रंग भेद का आरोप लगता ।

और फिर यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि बिहार में पशु-पालन विभाग के कर्मचारियों ने नेताओं के निर्देशन में ऐसा स्कूटर बनाया था जिस पर बैठकर भैंस हरियाणा से बिहार जा सकती थीं । उसी काल में ऐसी क्षुधावर्द्धक दवा बना ली थी जिसे खाकर एक मुर्गी आठ सौ रुपए का चारा खा सकती थी । अब यह बात और है कि दो-चार दिन पहले ही बिहार के पशुपालन विभाग के कोई चालीस से अधिक कर्मचारियों को इस आविष्कार के लिए पुरस्कृत किया गया मगर पता नहीं बेचारे लालू जी और जगन्नाथ मिश्र को इस गौरव से क्यों वंचित कर दिया ?

आँगनबाड़ियों में सभी बच्चों को दो-पाँच रुपए में पौष्टिक भोजन खिला कर भी संचालक लोग स्वयं लखपति बन गए हैं । यह क्या किसी चमत्कारिक आविष्कार से कम है ? इतना तो द्रौपदी की अन्नपूर्णा वाली हंडिया से भी संभव नहीं था । कलाम साहब ने तो इतने वर्षों तक दिमाग खपाकर कुछ मिसाइलें बनाईं मगर अपने यहाँ तो ऐसे-ऐसे महापुरुष पड़े हैं जो हजारों किलोमीटर दूर बैठकर शब्दों से ही ऐसे-ऐसे गोले दागते हैं कि सामने वाले का मरण हो जाता है । बाजार ने ऐसे-ऐसे आविष्कार कर लिए हैं कि कोल्हू में डालने की ज़रूरत ही नहीं, दूर से ही चलते फिरते आदमी का तेल निकाल लेते हैं ।

हमने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा और कहा- तो फिर तोताराम, हमारे इन वैज्ञानिकों को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता ?

तोताराम ने कहा- अरे, हम ज्ञान के पुजारी हैं । न तो हम किसी पुरस्कार के पीछे भागते हैं और न ही पेटेंट लेकर किसी आविष्कार से पैसे कमाना चाहते हैं । हम तो सर्वजन-हिताय काम करते हैं ।

अब आप ही बताइए कि ऐसे ज्ञानी और तार्किक व्यक्ति से कोई कैसे जीत सकता है ? वैसे हम भी जीत कर तोताराम का मुँह बंद नहीं करना चाहते ।

१९-१-२०१२


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