नमस्कार । हालाँकि कुछ पत्रकारों ने आपके अगले राष्ट्रपति बनने के कयास उछाल दिए हैं पर हम उसके बारे में आपको यह पत्र नहीं लिख रहे हैं क्योंकि अब आपके लिए यह पद भी कोई बड़ा नहीं रहा गया है । आप वित्तमंत्री रहते हुए भी देश की अमूल्य सेवा कर रहे हैं ।
अभी आपने २० फरवरी २०१२ को ओरिएंटल बैंक ऑफ कामर्स के ७० वें स्थापना दिवस पर गुडगाँव में कहा कि देश की जन कल्याणकारी योजनाओं में गरीबों को सब्सीडी देकर जो वस्तुएँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वितरित की जाती है उसमें एक लाख करोड़ की वस्तुएँ वितरित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं । सब्सीडी की यह राशि सीधे ही उन लोगों के बैंक खातों में भेज दी जाए तो फिर हर साल यह खर्चा नहीं लगेगा । हाँ, एक बार ज़रूर ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए लगेंगे मगर इस राशि की भरपाई एक साल में ही हो जाएगी । फिर तो हर साल या तो ६०-७० हज़ार करोड़ की बचत होगी या गरीबों को और ६०-७० हज़ार करोड़ सहायता के रूप में दिए जा सकेंगे ।
क्या गज़ब का आइडिया है उस्ताद ! एक पंथ दो काज नहीं, एक पंथ नौ काज समझो । बस, हमें तो यही चिंता है कि फिर बँटवारे के इस धंधे में लगे नेताओं और दलालों का क्या होगा ? हालाँकि ये चतुर लोग 'आप डाल-डाल हैं तो वे पात-पात' हैं फिर भी उनको अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में कुछ समय तो लगेगा ही ।
हमारा मानना है कि जब से दुनिया में राज-काज का विकास हुआ है तब से सारा झगड़ा बाँटने या वितरण का ही रहा है । लोग उत्पादन से ज्यादा वितरण या बाँटने में ही रुचि लेते हैं क्योंकि ' बाँटन वारे को लगे ज्यों मेहँदी को रंग' और सेवक कहलाते हैं मुफ्त में । बाँटने के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध कहानी एक बंदर की है जिसे पहली-दूसरी के हर बच्चे को पढ़ाया जाता है मगर मज़े की बात है कि कोई इससे शिक्षा नहीं लेता और बार-बार उसी बंदर के पास जाता हैं बँटवारे के लिए और बंदर मज़े से आज तक सारी रोटी खाता आ रहा है । गोरे उपनिवेशवादियों ने तो सभी जगह जहाँ भी वे गए इसी 'बाँटो और राज करो' की नीति को अपनाया और मज़े किए । जब उपनिवेश खत्म होने लगे तो उन देशों को बाँट दिया, एक के चार देश बना दिए । अब उन्हें आपस में लड़ा कर हथियारों का धंधा करके खरबों कमा रहे हैं । उनसे स्वतंत्र हुए देशों के नेता भी अब उनकी ही तरह अपनी जनता को जाति-धर्म के नाम पर बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ।
इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है-
मुखिया मुख सो चाहिए खान पान को एक ।
पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक ॥
मगर कहाँ मिलते हैं ऐसे मुखिया ? लोग तो जब भी कुछ बाँटने का मौका मिलता है तो अंधे की तरह सारी रेवड़ी अपनों को ही बाँट देते हैं । और इन अपनों में कौन होते हैं- अपने ही परिवार के लोग । उनका पेट भरे तो किसी और का नंबर आए ना । अपनी जाति वाले तक टापते रह जाते हैं ।खैर, अब आपकी यह योजना बहुत बढ़िया है । इससे हमें एक किस्सा याद आगया । हुआ यूँ कि मुर्गीखानों का निरीक्षण करने के लिए एक अधिकारी गया । उसने एक से पूछा- मुर्गियों को क्या खिलाते हो ? एक ने ज़वाब दिया- बाजरा । अधिकारी ने कहा- यह ठीक नहीं है । इससे मुर्गी को दस्त लग सकते हैं । फिर दूसरे से पूछा- तुम क्या खिलाते हो ? उसने कहा- ज्वार । अधिकारी ने उसको लताड़ा- इससे मुर्गी को कब्ज हो सकती है । तीसरा व्यक्ति सब देख सुन अनुभवी हो गया था । उसने कहा- साहब, मैं तो मुर्गी को कुछ नहीं खिलाता । सबको पाँच-पाँच रुपए दे देता हूँ । इनका जो मन होता है बाजार में जाकर खा आती हैं ।
तो आप भी अनुभवी हो गए हैं सो गरीबों को सब्सिडी देकर फ्री हो जाइए । उनकी मर्जी जो चाहें, जहाँ से चाहें लें और मौज करें । बाज़ार की जैसी मर्जी वैसा वह करे । आपकी तरफ से तो हो गया कल्याण । न कोई जाँच और न कोई घपला । और फिर नकद का मज़ा ही कुछ और है । तभी नकद को 'नारायण' कहा गया है । नारद शायद इसीको हर समय अपनी वीणा पर भजते रहते हैं । और भी कहा गया है- 'नौ नकद, न तेरह उधार' ।
अब सोचिए कि जब पहले सब्सीडी की चीजें दुकान पर खरीदने जाते थे तब कभी तो दुकान खुली नहीं मिलती थी, खुली होती थी तो सामान नहीं होता था, यदि सामान हुआ तो सड़ा गला होता था और तोल में भी कम । अब सीधा बैंक में पैसा पहुँच जाएगा । जब मर्जी हुई निकाल लिया । वरना पहले गेहूँ खरीदो, सिर पर उठा कर ले जाओ फिर किसी को कम भाव में बेचो और तब कहीं शाम को दारू की थैली का इंतज़ाम होता था । अब आप ही सोचिए इतने झंझटों के बाद क्या मज़ा रह जाता होगा पीने का ।
अब सीधे बैंक जाओ, पैसा निकालो, ठेके वाले के आगे फेंकों, थैली लो और मज़े करो ।
आप तो सब्सीडी की सारी वस्तुओं का ही नहीं बल्कि जननी सुरक्षा योजना, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या के हिसाब से मध्याह्न भोजन का पैसा, वृद्धावस्था पेंशन का पैसा, मुफ्त दवाओं की राशि और भी कुछ बनता हो तो उसका भी नकद पैसा सीधे बैंक में भिजवा दीजिए ।
जय नकद नारायण ।
और फिर उसके बाद तो दारू के ठेकेवाले बैंक के पास ही अपने आप ही दुकान लगा लेंगे और फिर सारा नहीं तो आधा पैसा तो आबकारी टेक्स के रूप में फिर सरकार के पहुँच ही जाएगा । वैसे जनता को इसी तरह भिखमंगा और बेवड़ा बनाए रखना ज़रूरी है । यदि इसे आत्मनिर्भर बना दिया गया तो फिर ये न तो किसी की सुनेंगे और न किसी का वोट बैंक बनेंगे । फिर नेता-राजा , युवराजों को कौन पूछेगा ।
नारायण, नारायण । बोल सच्ची सरकार की जय । सच्चे दरबार की जय ।
२४-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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