Jul 19, 2010
खरबूजे के बीज - फंगस और फफूँद
आदरणीय मनमोहन प्ह्राजी,
सत सिरी अकाल ।
आप ३ जुलाई २०१० को आई.आई.टी.कानपुर के दीक्षांत समारोह में गए । जाना भी चाहिए । नेताओं के आशीर्वाद के बिना शिक्षा पूरी भी कहाँ होती है । अब वो ज़माना गया जब ऋषि-मुनि दीक्षा दे दिया करते थे । अब तो दीक्षा-वीक्षा की कोई ज़रूरत भी नहीं रही । बस डिग्री होनी चाहिए । भले नकली ही क्यों न हो ? कौन पूछता है । बस एक बार नौकरी मिल जाए जैसे कि बस एक बार राजनीति में घुस जाओ फिर कौन पूछता है कि भैया, रात भर में यह करोड़ों का तामझाम कैसे खड़ा हो गया । वैसे अब अपने को इस डिग्री-विग्री से क्या लेना । आपके पास तो पहले से ही कई डिग्रियाँ हैं । और चाहेंगे तो कोई भी अमरीकी यूनिवर्सिटी तैयार बैठी है । जब लालू जी को ही पटना यूनिवर्सिटी डाक्टरेट देने वाली थी तो आप तो पहले से ही क्वालीफाइड हैं । हम तो रिटायर हो गए । अब सरकार नौकरी देने से रही और प्राइवेट नौकरी हमें करनी नहीं । अब तो जो डिग्रियाँ थीं उन्हें भी हमने रद्दी कागजों में रख दिया है । भगवान तो कर्म देखता है उसे डिग्रियों से क्या लेना ।
हम जब भी आपको पत्र लिखते हैं तो बहुत भावुक हो जाते हैं । विदुर की पत्नी की सी हालत हो जाती है । कृष्ण को खिलाने तो थे केले और भली मानुष खिलाने लगी छिलके । और कृष्ण को भी देखिए, छलिया बड़े मज़े से खा गया ।अब हम बात तो करने चले थे आपके आई.आई.टी .कानपुर में खाने में खरबूजे के बीजों में लगी फंगस की और मूँग की दाल पर चढ़े रासायनिक रंग की और कहाँ ले बैठे डिग्री की बात ।
अपना तो खाना है मक्के की रोटी और सरसों का साग और ऊपर से दो-चार चम्मच मक्खन डाल लो बस फिर क्या । देवता भी ईर्ष्या करें ऐसे खाने से । आपको हार्ट की बीमारी है इसलिए हो सकता है डाक्टरों ने यह खरबूजे के बीज और मूँग की दालवाला बीमारों का खाना बताया हो । वैसे जहाँ तक खरबूजे की बीजों की बात है तो हमारे यहाँ तो खरबूजे के ही क्या मतीरे, ककड़ी, लौकी, कद्दू, पेठे आदि बहुत सी सब्जियों और फलों के बीज खाए जाते थे । किसी भी चीज को बेकार न जाने देने का सिद्धांत था । अंग्रेजी पढ़े लोग उन्हें पिछड़ा कहते थे और आज खुद उन पुराने लोगों द्वारा प्रयोग की जानेवाली जाने कौन-कौन सी चीजें नए नाटकों के तहत महँगे दामों में खरीद कर खा रहे हैं । खरबूजे के बीज भी हमें तो ऐसा ही नाटक लगता है । खैर, आपको तो डाक्टर ने प्रिसक्राइब किया है ।
बचपन की बात बताते हैं । घरों में ये ही पदार्थ हुआ करते थे- मतीरा, तरबूज, कद्दू, लौकी, पेठा, कुम्हड़ा, खरबूजा आदि । दादी और माँ इनके कच्चे बीज तो सब्जी में डाल देती थी और जो बीज नहीं चबाए जा सकते थे उन्हें ऐसे ही चबूतरे पर डाल दिया करती थी । बीज यूँ ही सूखते रहते थे । मतीरे के बीजों को छीलना बहुत मुश्किल होता था सो माँ इन्हें सेक कर गुड़ मिलकर लड्डू बना दिया करती थी । बाकी बीज जब कभी खाना बनने में देर होती या फिर हम बच्चों को हीले से लगाना होता तो कह देती थी कि बीज छील कर खालो । यदि किसी को बड़े प्यार से भूखा मारना हो तो उसे खरबूजे के बहुत सारे बीज दे दो और कह दो- भैया, तेरा जितना मन हो छील और खा । वास्तव में यदि वह सारे दिन बीज छीलता रहे और खाता रहे तो भी उसका पेट नहीं भर सकता । यह तो एक प्रकार का मनबहलाव था और गरीब को थोड़ा बहुत उत्तम पोषण पहुँचाने का ग़रीबों का सस्ता तरीका था ।
आजकल तो बीज छिले-छिलाए आते हैं । जितना मन चाहे मुट्ठी भर कर खाए जाओ । अब इन बीजों में कोई आनंद नहीं रहा । जब तक थोड़ी मेहनत नहीं लगे वास्तव में खाने का आनंद ही नहीं आता । लोग कहते हैं आजकल चीजों में कोई मज़ा ही नहीं रहा । वे यह भूल जाते हैं कि मेहनत के बिना किसी चीज में कोई आनंद नहीं होता । इसी के सन्दर्भ में शायद तुलसीदास जी ने कहा है - 'सकल पदारथ हैं जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं ।।'
चबूतरे पर पड़े बीजों के फंगस भी लग जाया करती थी । पर उससे कोई फरक नहीं पड़ता था । फंगस हटा देते थे और खा लेते थे । आज लोग सोचते होंगे कि कैसे जाहिल लोग होते थे जो फंगस लगी चीजों को भी खा लेते थे । वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने हर बीज की सुरक्षा के लिए एक ऐसा कवच बनाया है जिसे भेद कर कोई भी फंगस उसे प्रभावित नहीं कर सकती । यदि कविता की भाषा में कहें तो हर संस्कृति और अस्मिता एक ऐसा कवच होती है जो किसी समाज और देश के प्राण-बीज को किसी भी अवांछित फंगस से बचाती है । उसके बीज रूपी प्राणों की रक्षा करती है । और जब किसी का बीज नाश ही हो जाता है तो फिर वह समाज और देश अपने आप ही मर जाता है । आप और नरसिंह राव द्वारा लाई गई मुक्त बाज़ार व्यवस्था एक ऐसी ही फंगस है जिसने इस देश के बीजों के सुरक्षा कवच को ही खा लिया है । जब कवच ही नहीं है तो फंगस लगने से कौन रोक सकता है । आप वाले बीजों का कवच उतार दिया गया था इसलिए फंगस लग गई ।
हमारे यहाँ गाँव की बोली में फंगस को फफूँद कहा जाता है । फफूँद की व्यंजना है ऐसी चीज या व्यक्ति जो पीछा ही नहीं छोड़ता । इस देश को यह फफूँद अंग्रेजों के समय से लगनी शुरू हुई थी मगर तब हमारे बीज-प्राणों पर हमारी संस्कृति का कवच था । और हम गुलामी की अवस्था में भी गुलाम नहीं थे । अंग्रेजों की दुष्टता और चालाकियों को समझते थे और उनका विरोध और उपाय करने की हिम्मत और समझ भी रखते थे । मगर हुजूर, अब तो हमारी हालत मदारी के बन्दर से भी गई गुजरी हो गई है । हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि तथाकथित वैश्वीकरण और मुक्त बाज़ार से बेहतर कोई व्यवस्था हो भी सकती है क्या ? हजारों बरसों से बनाई गई अपनी सफल, स्वावलंबी ग्राम-स्वराज वाली व्यवस्था को हम भूल ही गए हैं ।
आपको जो बीज परोसे जाने वाले थे वे ज़रूर भारतीय खरबूजे के बीज ही रहे होंगे क्योंकि हमने अमरीका में देखा है कि वहाँ खरबूजे में बीज निकलते ही नहीं थे । जो दो-चार बीज निकले उन्हें छील कर देखा तो उनमें कुछ भी नहीं निकला । अब जब हमारे बीजों को मुक्त-बाज़ार की यह फफूँद पूरी तरह से खा जाएगी तब हर चीज के बीज वहीं से आया करेंगे और उन बीजों के पौधों से नए बीज नहीं बनेंगे । तब फंगस या फफूँद लगने का डर तो नहीं रहेगा मगर तब फंगस लगने को बचेगा ही क्या ? क्या आपने सोचा है कि वह दिन कैसा होगा ? हम तो उस दिन को देखने के लिए ज़िंदा नहीं रहना चाहते ।
७-७-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
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बहुत सटीक व्यंग्य। बधाई।
ReplyDeleteमन जी के कान इसे सुन पायेंगे क्या..
ReplyDeleteक्या मन्नू भैया इसे सुन-पढ़ पायेंगे.
ReplyDeleteहर बार की तरह एक सटीक और करारा व्यंग्य.
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