Jul 25, 2010
मास्टरों की दाल-रोटी
आज की सुबह बड़ी उदास है । पोते-पोतियाँ गरमी की छुट्टियाँ मानाने अपने ननिहाल चले गए हैं ।
बेटा-बहू ड्यूटी पर । रात को बिजली चली गई थी सो दूध फट गया था फिर चाय कैसे बनती । रात की दो रोटियाँ बची थीं । उन्हीं का नाश्ता करने बैठे थे कि तोताराम आ गया । उसने थैले में से चार शीशियाँ निकाल कर हमारे सामने रख दीं । दो खाली थीं और दो में पता नहीं क्या रखा था । हाँ, ढक्कनों पर टेप चिपका कर पक्की पेकिंग कर दी गई थी । जैसे ही पहला कौर तोड़ा, उसने हमारा हाथ कुछ इस अदा से पकड़ा लिया जैसे रुक्मिणी ने कृष्ण को हाथ पकड़ कर सुदामा के चावल की तीसरी मुट्ठी खाने से रोक लिया था ।
बोला- क्या दो रोटियाँ और बचीं है या यह क्लीयरेंस सेल है ? हमने कहा- थीं तो सही पर तेरी भाभी ने खा लीं । रात का दूध फट गया, नहीं तो दूध के साथ ही खाने का मन था । आज तो तुम्हारे लिए चाय का इंतज़ाम भी नहीं है ।
कहने लगा- आज मैनें भी दाल और रोटी का नाश्ता करने की सोची थी पर मैनें भी वह कार्यक्रम केंसिल कर दिया । तू भी इस कार्यक्रम को केंसिल कर दे ।
हमने उन शीशियों को हाथ में लेकर ध्यान से देखा तो पाया कि एक में रात की दाल और दूसरी में दो रोटियाँ ठुंसी हुई थीं । दाल वाली शीशी पर चिट चिपकी थी और उस पर लिखा था- लैला और रोटीवाली पर लिखा था- मजनूँ,और नीचे तोताराम के हस्ताक्षर मय तारीख़ । तब तक उसने हमारी रोटियाँ और दाल भी शीशियों में भर कर, पैक करके उन पर चिट चिपका कर एक पर लिख दिया शीरीं, और दूसरी पर फ़रहाद । और बोला- साइन करके लगा दे नीचे तारीख़ । हमारी उत्सुकता चरम पर, पर समझ में कुछ नहीं आया । बहुत पूछने पर उसने समाधान किया- चर्चिल की साठ साल पुरानी सिगारें जिन्हें किसी कंपनी ने नाम दिया था- ‘रोमियो-जूलियट’, अब नीलाम होने वाली हैं । लाखों में बिकेंगीं । इसको देखते हुए हो सकता है इस शताब्दी के अंत तक ये दाल और रोटियाँ भी पुरामहत्व की वस्तुओं के रूप में नीलाम हों । तब लोग इन्हें इस आश्चर्य से ही लाखों में खरीद लें कि २०१० में 'भारत निर्माण' और 'तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था' के युग में भी हिन्दी के दो सेवा निवृत्त अध्यापक दाल-रोटी खा सकने वाला विलासितापूर्ण जीवन बिताते थे । अरे, हम नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को ही एक बड़ी रकम एक साथ मिल जाएगी । चल, सुरक्षा की दृष्टि से इन्हें किसी बैंक के लॉकर में रख आते हैं ।
तोताराम को क्या उत्तर देते पर हमारे मन में भी कहीं यह विचार आया कि जब माडलों के कुत्तों की जूठी ब्रेड लाखों में बिक सकती है तो समय का क्या ठिकाना, क्या करवट ले ले और मास्टरों की दाल-रोटी भी नीलाम हो जाए । जैसे दाल-रोटी दुर्लभ हो रही है, उसे देखते हुए यह असंभव भी नहीं है ।
१३-५-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
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सच्चाई को वयां करता अच्छा व्यंग्य ,बधाई
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