Jul 27, 2010

तोताराम कबाड़ी


आजकल पहले की तरह सवेरे-सवेरे पक्षियों का कलरव, गाय-बछड़ों के रँभाने की आवाजों की बजाय अखबार वालों की साइकिल की घंटियों, दूधवालों की मोटर साइकलों के होर्न और पुराना लोहा, प्लास्टिक और रद्दी अखबार खरीदने वाले कबाड़ियों की आवाजें ही अधिक सुनाई देती हैं । यदि छुट्टी नहीं हो तो बच्चों को बीस-बीस, तीस-तीस किलोमीटर से उठाने वाली निजी स्कूल-बसों की घरघराहट और होर्न भी सुनाई देते रहते हैं ।

व्यंजन स्वरों के संयोग के बिना सुनाई नहीं देते । जोर से और कुछ दूरी पर लगाई गई आवाजें भी हम उनके अंतिम स्वरों से ही पहचान लेते हैं । दूधवाला 'दूध' पूरा नहीं बोलता । उसके 'दूऽऽऽ' के प्लुत स्वर से ही हम 'दूध' समझ जाते हैं । 'लोहा' और 'प्लास्टिक' आवाज़ लगाने वाले कबाड़ी की पुकार हम लोहा के 'लोऽऽ' या 'ओ' और प्लास्टिक के 'क' या 'अ' से ही समझ जाते हैं । आज जैसे ही 'लो' और 'क' की ज़ोरदार ध्वनि सुनी तो अनुमान हो गया कि कबाड़ी आ गया है ।

सभी कबाड़ी भाव में ही नहीं, तौल में भी गडबड़ी करते हैं । पर कबाड़ बेचने के लिए कहाँ ढोते फिरें । देना तो इन्हीं को है सो इनसे 'शुद्ध के लिए युद्ध' न तो संभव है और न ही फलदायक । इस बाज़ार पर इन्हीं का एकाधिकार है । कुछ लोहा देना था ( किसी से लेना तो हमारे बस का नहीं है ) सो बाहर निकल कर देखा तो एक रेहड़ी में तराजू, कुछ बाट, मापने के एक-दो और पाँच लीटर के पात्र, कुछ शीशियाँ रखे तोताराम आ रहा है । पूछा- यह कबाड़ी का धंधा कब से शुरू कर दिया ? बोला- अपने कान दिखा किसी अच्छे डाक्टर को । मैं 'लो’ प्लास्टिक' नहीं, 'जागो ग्राहक' बोल रहा था । यह अपनी 'शुद्ध के लिए युद्ध' एक्सप्रेस है । यह ले हरी झंडी और फटाफट फड़फड़ा दे तो यह ट्रेन अभियान पर जाए ।

उसने हमारे हाथ में एक खपच्ची पर हरे कपड़े की छोटी सी पट्टी थमा दी । हम उसे उलट-पलट कर देखने लगे तो बोला- टाइम खराब मत कर । यह कोई सरकारी चेतना यात्रा नहीं है जो मंत्री जी के इंतज़ार में रुकी रहेगी । यह तोताराम की 'शुद्ध के लिए युद्ध एक्सप्रेस' है । थोड़ा सा भी विलंब करेगा तो छूट जाएगी । अब तो हमने उसे चाय पीने का आग्रह करना भी ठीक नहीं समझा क्योंकि तोताराम की सनक के आगे किसी की नहीं चलती । सो झंडी दिखाने की रस्म अदा की ।

आज नाश्ता बनने में कुछ देर थी सो नाश्ता ड्रॉप करके सीधा ग्यारह बजे खाना ही खाने का कार्यक्रम बनाया । कोई साढ़े ग्यारह बजे खाना खाकर लेटे ही थे कि फोन की घंटी बजी । उठाया तो उधर से एक कड़क आवाज़ आई- मास्टर जी, हमने एक कबाड़ी को बैठा रखा है और वह कह रहा है कि आपके आने पर ही हमसे बात करेगा ।

हमारे मन में कई तरह की दुष्कल्पनाएँ आने लगीं । कहीं हमसे लोहा लेकर गए कबाड़ी के पास से कोई ज़िंदा बम तो बरामद नहीं हो गया ? कहीं उसने यह तो नहीं कह दिया कि मैं तो मास्टरजी के यहाँ से लोहा लाया था, क्या पता उस में ही यह बम आ गया हो ? वैसे सीकर के आसपास कोई फायरिंग रेंज भी नहीं है । फिर भी किस्मत का क्या पता, क्या चक्कर पड़ जाए । चिंतित और घबराए हुए चौकी में पहुँचे तो देखा, तोताराम नीचे ज़मीन पर बैठा हुआ है और तीन-चार भद्रजन थानेदार के साथ चाय पी रहे हैं ।

हमें देखते ही थानेदार ने कहा- मास्टर जी यह कबाड़ी उचित मूल्य की दुकान और सरस दूध के बूथ पर काम में बाधा डाल रहा था । इन सज्जनों की रिपोर्ट पर हमने इसे सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में यहाँ बैठा रखा है । इसने अपना पक्ष रखने और गवाही के लिए आपको बुलवाया है ।

हमने कहा- साहब, यह कबाड़ी नहीं है । यह तो एक सेवा निवृत्त अध्यापक है । हम इसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । यह तो सरकार के 'शुद्ध के लिए युद्ध' अभियान से प्रभावित होकर, जोश में आकर बाट, माप और तराजू लेकर शहीद होने निकल पड़ा । हमने तो इसे बहुत समझाया था पर यह माना ही नहीं ।

थानेदार ने कहा- ठीक है, आज तो हम आपका लिहाज़ करके इसे छोड़ देते हैं अगर फिर कभी ऐसी वीरता दिखाई तो आपको बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । हम खुद ही इसे अच्छी तरह समझा देंगे । जाइए, ले जाइए इसे ।

तोताराम कुछ तो भूख और कुछ डर के कारण निढाल हो रहा था । हमने ही धक्के मारकर रेहड़ी को धकेलना शुरू किया । जब माहौल कुछ सामान्य हुआ तो हमने कहा- क्यों, ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ के वीर, हो गया होता ना आज तो वीरगति को प्राप्त ।

कुछ देर चुप रहने के बाद बोला- मास्टर, जब तक 'तंत्र' शुद्ध नहीं होता तब तक कुछ नहीं हो सकता । अरे, वस्तुओं के तौल, माप और शुद्धता तो एक मिनट में ठीक हो सकते हैं मगर तंत्र खुद ही साठ साल तक मिलावट होते-होते अशुद्ध हो गया है । अब तो दाल में काला नहीं बल्कि इस भगोने में सब कुछ काला ही काला है । दाल अगर कहीं है तो भगवान ही जानता है । शुद्ध तंत्र के बिना सारे अभियान और वाकयुद्ध व्यर्थ हैं ।

लानत है इस तंत्र पर जहाँ मिलावट करने वाले तो थानेदार के साथ कुर्सियों पर बैठ कर चाय पी रहे हैं और एक जागरूक नागरिक तोताराम अपराधी बना ज़मीन पर सर झुकाए उकड़ू बैठा है ।

हमने कहा- तोताराम, इण्डिया को थोड़ा शाइनिंग होने दे । भारत का थोड़ा और निर्माण होने दे । तभी यह पाप का घड़ा पूरा भरेगा । अभी लगता हैं भूल से कहीं थोड़ा खाली रह गया है । भरे बिना घड़ा फूटता भी तो नहीं ।

१०-६-२०१०


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

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