१५ अगस्त की छुट्टी के कारण १६ अगस्त को अखबार नहीं आया था । अखबार में भले ही पढ़ने, मनन करने और अनुसरण करने लायक कुछ भी नहीं हो फिर भी एक नशा है- खैनी खाने जैसा । पेट में पौष्टिक या अपौष्टिक कुछ न पहुँचे मगर चबाने और वक्तव्य, समीक्षा और विश्लेषण जैसा थूकते रहने का भी एक आनंद है । सो जैसे ही १७ अगस्त को अखबार आया हम उसे उधेड़ने लगे । भिड़ते ही खबर पर नज़र पड़ी- 'उमर अब्दुल्ला पर जूता फेंका' ।
जब से बुश पर जूता फेंका गया है तब से बेचारे जूते की तो आफत आ गई है । एक मिनट का भी समय नहीं दिया जा रहा है । बुश से निबटे तो अडवाणी, फिर चिदंबरम, जरदारी और अब उमर अब्दुल्ला । और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात होंगे जिन पर फेंका गया होगा । पात्र-अपात्र का कोई ध्यान नहीं । जूता भले ही पाँच हजार का हो मगर जोश में आकर दो टके के आदमी पर भी फेंक देंगे । अरे भाई, कुछ तो ख्याल करते जूते के स्टेंडर्ड का । उमर की खबर के आसपास ही उनके पिताजी का वक्तव्य भी छपा था कि अब उमर बुश की केटेगरी के नेता बन गए । वाकई में कितना सरल है बुश बनना ।
पता नहीं, यह बुश का अवमूल्यन था या अमरीका के राष्ट्रपति के पद का या फिर जूते का मगर खबर हमारा पीछा नहीं छोड़ रही थी । हम तो अखबार में सिर गड़ाए थे कि घर की बाउंड्री के ऊपर से होता हुआ प्रक्षेपात्र जैसा कुछ हमारे चरणों के पास आकर गिरा । जैसे महाभारत के युद्ध के शुरू में अर्जुन की तरफ से पहला बाण भीष्म के चरणों के पास आ गिरा था । देखा कि जूता था नया, भले ही कीमती नहीं था और उसके साथ एक चिट सी भी लगी थी- अध्यक्ष, बी.बी.सी. की ओर से ।
हम बी.बी.सी. नवंबर १९६२ से सुनते आ रहे हैं जब भारत पर चीनी आक्रमण हुआ था । तब हमने किस्तों पर तीन सौ रुपए का रेडियो लिया था । हमने बी.बी.सी. को कई खत भी लिखे थे पर उन्होंने हमें कोई महत्त्व नहीं दिया । और आज हमारे ६९वें जन्म दिन के पूर्व-प्रभात उनका यह उपहार और वह भी स्वयं अध्यक्ष की ओर से । जूते को लेकर परेशान और बी.बी.सी. की ओर से मिलने वाली मान्यता से प्रसन्न भी थे ।
बाहर निकल कर देखा तो तोताराम हाथ जोड़े खड़ा था । हमारे पूछे बिना ही बोला- भ्राता श्री, निशाना ठीक लगा ना ? मेरा लक्ष्य आपका सिर नहीं, चरण ही थे । जूता नया है, पुराना जूता फेंक कर आपका अपमान थोड़े ही करता । यह तो सूचना पहुँचाने का अत्याधुनिक तरीका है । पहले पत्र या सन्देश मेघ, पवन के द्वारा भेजे जाते थे फिर यह काम कबूतर से लिया जाने लगा और जो कबूतर का खर्चा नहीं उठा सकता था वह ऐसे ही कंकड में लपेट कर पत्र महबूबा की छत पर फेंक दिया करता था । यह संवाद की लेटेस्ट तकनीक है ।
हमने पूछा - पर वह बी.बी.सी. का अध्यक्ष कहाँ है ? बोला- आपका यह अनुज ही है बी.बी.सी. का अध्यक्ष, 'बुश बनाओ कंपनी' का सी.ई.ओ. । आज तक आपकी व्यंग्य प्रतिभा को किसी ने रिकग्नाइज नहीं किया तो मैंने सोचा कि दो सौ रुपए का ही तो खर्चा है क्यों न आज आपके ६९वें जन्म-दिन पर आपको भी बुश के समक्ष बना दिया जाए । और उसने दूसरा जूता भी हमारे चरणों के पास रख दिया, बोला- यह आपके जन्म-दिन पर छोटे भाई की तरफ से एक छोटा सा तोहफा ।
हमने हँसते हुए कहा- तोताराम, यह तो तेरे पास रिवाल्वर नहीं था नहीं तो तू आज हमें महात्मा गाँधी भी बना सकता था ।
तोताराम ने हमारे चरण छू लिए ।
१७-८-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
aapke lekh padh kar man khush ho jata hai.
ReplyDeleteakhbaar nasha khini aur na kuchh to khaini chba kar thookne ke aannand ki upma lajawaab aur steek hai
dhanyavaad