मनमोहन जी,
सत् श्री अकाल । बधाई हो । आप सोच रहे होंगे कि हम किस बात की बधाई दे रहे हैं जब कि इस समय तो आफतें ही आफतें चल रही हैं । कश्मीर में दुनिया भर के पैकेज देने के बाद भी लोग हैं कि मान ही नहीं रहे हैं । पहले कश्मीरी पंडितों को निकाल बाहर कर दिया और अब सिक्खों को कश्मीर से निकालने की धमकियाँ दे रहे हैं । कल को कहेंगे कि सारे हिंदू भारत छोड़कर चलें जाएँ । अब यह तो नहीं हो सकता कि देश की सारी जी.डी.पी. ही इन्हें दे दें और तब भी ये नहीं मानें । उधर अमरीका कह रहा है कि वार्ता करो और इधर ये अलगाववादी हैं कि वार्ता करने जाओ तो बड़ी असभ्यता से मना कर देते हैं । बड़ी आफत में जान है । इधर दिल्ली में राष्ट्र मंडल खेलों का तमाशा । टाइम नजदीक आ रहा है और तैयारी कुछ नहीं । भाई लोगों ने काम की बजाय बिल बनाने, ठेके देने, कमीशन खाने में ही सारा समय निकाल दिया । आदत के मुताबिक ३१ मार्च रात १२ बजे तक का टाइम समझ लिया जो कि बिल पास करने की डेड लाइन है । माल भले ही आए या नहीं । अब खेल वाले बिल देखेंगे या खेलने की जगह चाहेंगे । स्टेडियमों में पानी टपक रहा है । कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने टेनिस की जगह स्विमिंग पूल बनाने का विचार कर लिया हो । इधर संसद में लालू छाया मंत्रीमंडल की तर्ज पर प्रधान मंत्री बन बैठे हैं । सांसद तनख्वाह के मामले में अम्बानी से तुलना करने लग गए हैं ।
जब राजनीति में आ ही गए हैं तो इन सब खुराफातों और दुष्टों से जूझना भी पड़ेगा ही । बच कर विदेश यात्रा पर भी कितना जाया जा सकता है । जरदारी बाढ़ से बच कर ब्रिटेन चले गए मगर कितने दिन । आखिर आना ही पड़ा । सो आप इन बातों की चिंता ना करें और हमारे बधाई देने के कारण को पढ़ें और आनंदित हों । बाराती को, लड़की वाले की चिंता न करके, जब तक टाँगों में जान है भंगड़ा पाते रहना चाहिए ।
सो भाई जान, बधाई के दो कारण हैं- पहला यह कि आपको खुशवंत सिंह जी ने सबसे अच्छा प्रधान मंत्री मान लिया है और दूसरा वाशिंगटन की पत्रिका ने आपको 'दुनिया के लीडरों का चहेता लीडर' का खिताब दिया है । मतलब कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों मान्यताएँ एक दिन के आगे-पीछे । १८ अगस्त को खुशवंत जी वाली और १९ को वाशिंगटन वाली । हमें अखबार से एक दिन बाद मिली हैं, प्रेस वालों को एक दिन पहले और आपको हो सकता है उससे भी पहले मिल गई हों । पर आप इतने संकोची हैं कि किसी को बताया भी नहीं वरना लोग तो जरा सी बात को भी आपने खर्चे से अखबारों में छपवाते हैं । एक सज्जन अपने खर्चे से सिंगापुर घूमने गए और वहाँ से आने पर अपने ही खर्चे से समाचार छपवा दिया कि 'अमुक जी का सिंगापुर घूम कर भारत आने पर हार्दिक स्वागत' । खैर, अब हमारी तरफ से बधाई स्वीकार करें ।
पहले खुशवंत सिंह जी वाली बात- उन्होंने अपने कालम में लिखा है कि १९९९ में जब मनमोहन सिंह जी ने दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा तो उनके दामाद मुझसे दो लाख रुपए उधार ले गए थे जो चुनाव हार जाने के दो-चार दिन बाद ही मनमोहनजी ने खुद जाकर वापिस कर दिए । लेन-देन नकद हुआ था । मतलब कि कोई सबूत नहीं । ऐसे तो हम भी जैन डायरी वाले सज्जन की तरह कह सकते हैं कि हमने भी राव साहब को सरकार बचाने के लिए खर्च किए गए चार करोड़ उधार दिए थे मगर तब चिदंबरम जी हमारा गला पकड़ लेते कि इतने रुपए कहाँ से आए ? और इतनी आमदनी थी तो टेक्स क्यों नहीं दिया ? पर खुशवंत सिंह जी की बात और है वे जो कुछ भी लिख देते हैं वह छप ही जाता है क्योंकि इलस्ट्रेटेड वीकली के ज़माने के संपर्क हैं । उनके पास एक-दो लाख रुपए ऐसे ही पड़े रहना कोई बड़ी बात नहीं ।
हम तो दोनों को ही महान मानते हैं । उन्होंने माँगते ही दे दिए और आपने जल्दी ही वापिस कर दिए । हमें लगता है कि आपको अंदाज हो गया था कि जीतना मुश्किल है सो आपने फालतू पैसा खर्च नहीं किया । वैसे हम तो कहते हैं कि चुनाव क्या आदमी को फ़ार्म भरने का भी पैसा खर्च नहीं करना चाहिए । आदमी चुनाव जीतने के लिए जितना पैसा खर्च करेगा, चुनाव जीतने के बाद जल्दी से जल्दी उस पैसे को वसूल करना चाहेगा । चुनाव में ज्यादा पैसा खर्च करने वाले ही ज्यादा भ्रष्टाचार करते हैं । इसीलिए आपने बिना खर्च का राज्य सभा वाला रास्ता अपनाया । हमें तो लगता है कि आपने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से मिला पैसा भी खर्च नहीं किया होगा और वापस लौटा दिया होगा ।
खुशवंत सिंह ने तो केवल लिखा और पढ़ा है पर हम तो उस समय आपके चुनाव क्षेत्र में थे- सदर बाज़ार दिल्ली केंट में । आप सदर बाजार वाले गुरुद्वारे में मत्था टेकने के लिए आए थे और उसके बाद पालम एयर पोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क पर ट्रक में खड़े होकर जा रहे थे । आपके पीछे छः-सात लोग और खड़े थे । हमें लगा कि आप चुनाव तो नहीं जीतेंगे पर हम आपकी सादगी पर जरूर फ़िदा हो गए । वह ट्रक भी हमें लगता है कि बिना पैसे का होगा जो किसी काम से इधर आया होगा और उसने आपको लिफ्ट दे देगी होगी । भले ही आप चुनाव न जीतें हों पर आपका अपने चुनाव का विश्लेषण बिलकुल ठीक था । अच्छा है बिना बात पैसा खर्च नहीं किया वरना फिर कैसे लौटाते ।
नहीं खर्च किया तो तत्काल लौटा दिया और ईमानदार व्यक्ति का खिताब पा लिया । यदि खर्च कर देते तो लौटाने में कुछ टाइम तो लग ही जाता । तब हो सकता है कि यह ख़िताब न मिलता । मगर खुशवंत जी ने इस बात को इतना बड़ा कैसे मान लिया ? लगता है कि उनके नेताओं के बारे में विचार अच्छे नहीं है । या तो पहले भी कोई नेता उनसे पैसे ले गया होगा और लौटाए नहीं होंगे । क्या किसी नेता की ईमानदारी केवल दो लाख रुपए के बराबर ही है ? आप पर तो उन्हें विश्वास रहा होगा तभी दे दिए बिना किसी लिखा-पढ़ी के । वरना बिना कोई चीज गिरवी रखे कौन देता है । देगा तो चार गवाह और बनाएगा । चाणक्य नीति में भी कहा गया है कि किसी को दो पैसे भी दो तो किसी न किसी बहाने चार लोगों के सामने दो और लौटने वाले के लिए भी कहा गया है कि चार लोगों के सामने लौटाओ । पर यहाँ तो दोनों तरफ विश्वास था सो किसी तरह की लिखा-पढ़ी की जरूरत नहीं पड़ी । पर जब इतना ही विश्वास था तो अब किस लिए उस गड़े मुर्दे को उखाड़ रहे हैं ? आपकी ईमानदारी या अपनी दरियादिली दिखाने के लिए ?
खुशवंत सिंह जी की इस महानता और दरियादिली के संदर्भ में एक किस्सा याद आ गया । पहले देश में बहुत गरीबी हुआ करती थी । है तो अब भी मगर दिल्ली में बैठ कर या सेंसेक्स का चश्मा लगाने के बाद दिखाई नहीं देती । सो उन दिनों लोगों के पास छोटी-मोटी चीजें भी नहीं हुआ करती थीं और उन्हें माँग कर काम चला लिया जाता था । इसे बुरा भी नहीं माना जाता था । शादी में भी बाराती तो क्या दूल्हे तक के लिए लोग कपड़े माँग कर काम चला लिया करते थे । सो ऐसे ही युग में एक ठाकुर साहब थे । कहने को ठाकुर मगर मूँछों के अलावा और कोई बड़ी संपत्ति नहीं थी । एक बार ससुराल में कोई शादी थी । सर्दी का मौसम और ठाकुर साहब के पास कम्बल भी नहीं । उनके एक पड़ोसी मित्र नाई के पास कम्बल था । था तो पुराना ही, किसी जजमान का दिया हुआ, मगर था तो । सो ठाकुर साहब ने नाई को बारात में चलने का निमंत्रण दिया, कम्बल उधार देने की शर्त पर ।
ठाकुर साहब अपने एक मरियल से टट्टू पर सवार होकर, कम्बल कंधे पर रख कर ससुराल चले । नाई ठाकुर के साथ पैदल चला । कारण दो थे- एक तो टट्टू में इतना दम नहीं था कि दो का बोझा उठा लेता । दूसरा नाई ठाकुर साहब के साथ कैसे बैठ सकता था । रस्ते में मिलने वाले लोग पूछ ही लिया करते थे कि कौन हैं, किस गाँव के हैं, कहाँ जा रहे हैं ? आजकल की तरह नहीं कि पूछ लिया तो प्राइवेसी का हनन हो गया । आज कल तो आतंकवादियों तक के मानवाधिकार हो गए भले ही वे मानव की श्रेणी में नहीं आते हों । सो लोग पूछते- कहाँ से आ रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं । ठाकुर साहब रुतबे के मारे सो जवाब देता नाई । कहता- भैया, फलाँ गाँव जा रहे हैं, ठाकुर साहब साहब के साले की शादी है । यह टट्टू ठाकुर साहब का है और इन्होंने जो कम्बल अपने कंधे पर रख रखा है वह हमारा है । साहब, साहब करते हुए भी अंत में ठाकुर साहब की इज्जत का कचरा कर देता । ठाकुर साहब अपने ससुराल में अपनी ऐसी इज्ज़त अफ़जाई नहीं चाहते थे सो कंबल वापिस देकर नाई को विदा कर दिया ।
सो आपकी ईमानदारी की चर्चा करते हुए भी खुशवंत सिंह जी ने आपकी अध्यापकी, रिजर्व बैंक की गवर्नरी, वर्ल्ड बैंक की साहबी और प्रधान मंत्रित्व की, मात्र दो लाख रुपए और वे भी दस-बीस दिन के लिए उधार देकर, मिट्टी कर दी । उन्हें पता नहीं कि रिजर्व बैंक में करोड़ों-अरबों रुपए ऐसे ही जमीन पर पड़े पैरों में रुळते रहते हैं । सो इसे कहते हैं ‘नादाँ की दोस्ती, जी का जंजाल’ । हमें तो लगता है कि आपके दामाद साहब ने रुपए आपको बताए बिना ही उधार ले लिए होंगे कि चुनाव में इतना खर्चा तो एक पञ्च का ही हो जाता है । वरना यदि वे आपसे पूछ लेते तो आप कभी भी उधार नहीं लेते । कुछ अपवादों की बात हम नहीं करते, पर अधिकतर मास्टर अपनी चादर जितने ही पैर फैलाते हैं । हमारे पिताजी कहा करते थे कि किसी से कभी उधार मत लेना और यदि कभी ऐसी मजबूरी आ भी जाए तो जितना जल्दी हो सके चुका देना, नहीं तो अगले जन्म में कोल्हू का बैल बन कर चुकाने पड़ेंगे ।
आपके ख्याल भी कर्ज के बारे में हमारे पिताजी जैसे ही हैं । अच्छी बात है । मगर यह क्या बात है कि जब आप वित्त मंत्री बन गए तो घाटे का बजट बनाने लगे । एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि यह घाटा कैसे पूरा होगा । हमने तो बी.ए. तक ही अर्थशास्त्र पढ़ा था और पास भी राम-राम करके हुए थे सो आगे नहीं पढ़ा । और प्रेक्टिकल में तो कभी अर्थशास्त्र को नहीं आजमाया । सारी तनख्वाह लाकर पत्नी को दे दिया करते थे, वह जाने और उसका अर्थशास्त्र जाने । हमें तो राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री हीरालाल शास्त्री की याद है । उन्होंने जब बजट बनाया तो घाटा तो दूर बचत ही दिखाई । क्या पता अब मुक्त अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के कारण यह नियम बन गया हो कि प्रत्येक देश को घाटे का ही बजट बनाना पड़ेगा ।
बधाई की दूसरी बात कि वाशिंगटन की एक मैगजीन 'न्यूज़ वीक' के अनुसार आप नेताओं के चहेते नेता हैं । बुश साहब भी आपको बहुत मानते थे । ओबामा जी ने तो आपको 'गुरु' कह कर संबोधित किया था । उनका कहना है कि जब आप बोलते हैं तो दुनिया सुनती है । और इसी चक्कर में हजारों करोड़ का परमाणु समझौता कर लिया । जब टोनी ब्लेयर भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि वे बार-बार भारत आना पसंद करेंगे । और चार हजार करोड़ का बिजनेस कर गए । अब नए ब्रिटिश प्रधान मंत्री आए । पाकिस्तान को चेतावनी देकर आप को खुश कर दिया और साढ़े तीन हजार करोड़ का सौदा कर गए और उसके बाद जाते ही जरदारी जी को भोज खिलाने लग गए । उसके बाद जरदारी जी ने कहा कि गलतफहमियाँ दूर हो गईं हैं । वाह, क्या सादगी है । मगर चीन किसी का सामान खरीदने की बजाय अपना सामान उसे भिड़ाने की फिराक में रहता है । पकिस्तान के किसी नेता से कोई मिलेगा तो वह सहायता माँगने लग जायेगा । और मजे की बात यह कि जब हिसाब माँगों तो केवल बिल थमा देता है सो भी दस प्रतिशत काट कर । मजबूरी की बात और है पर वास्तव में ऐसे नेताओं को कौन पसंद करेगा ।
आपकी बात और है । बिक्री भी करवाते हैं, बोलते भी धीरे-धीरे हैं और मीठा । जब भी बुलाओ नाश्ते भर के लिए अमरीका भी चले जाते हैं । कभी खाना भी खिलाएँगे ओबामा जी तो मात्र बैंगन के भुरते और दो चपाती में ही आपका काम चल जाता है । दूसरे तो पूरा मुर्गा खाते हैं, एक बोतल दारू पी जाते हैं और कर्जा ऊपर से माँगते हैं । और अगर आते समय कोई चम्मच-छुरी न उठा लें तो गनीमत । सो उनके मुकाबले आप से अच्छा नेता और कौन होगा । पर हम तो कहते हैं कि इन लोगों का चहेता बनने की बजाय देश को दो पैसे की कमाई करवाने की सोचिए भले ही ये नेता आपको कितने ही नंबर दें । अच्छा अर्थशास्त्र वही है जिससे दो पैसे बचें । नेताओं के प्यारे बनने से बड़ी बात है अपने आम लोगों का प्यारा बनना । वैसे इन देशों ने महात्मा गाँधी जी को नंगा फकीर और इंदिरा जी को बूढ़ी चुड़ैल कहा था क्योंकि उन्होंने इन्हें दो पैसे की बिक्री करवाने की बजाय आत्मनिर्भर बनने का झंडा उठाया था ।
फिर भी सम्मान तो सम्मान ही है । वैसे राणा जी ने मीरा को कृष्ण के चरणामृत के नाम से ही जहर भेजा था । यह तो मीरा थी जो बच गई पर सब तो मीरा नहीं होते ।
चलिए पत्र खत्म करने से पहले एक छोटी सी कहानी सुनाते हैं । एक कौआ था । कई दिन तक कुछ खाने को नहीं मिला । बहुत भूखा था । एक दिन सवेरे-सवेरे सौभाग्य से रोटी का एक टुकड़ा मिल गया । जल्दी-जल्दी उड़ कर पेड़ पर जा बैठा और जैसे ही खाने लगा एक लोमड़ी वहाँ आ गई । न तो वह भूखी थी और न ही उसके पास खाने की कमी थी पर सारे जंगल का खाना वह अपने पास भरकर रखना चाहती थी । सो इस लोभ के कारण हर समय कुछ न कुछ जुगत भिड़ाती रहती । इस कारण वह बहुत चालक हो गई थी । उसने कौए को रोटी लिए देखा तो उसकी रोटी झटकने की सोची । उसने बड़े प्यार से कहा- हे महान गायक कौए जी, क्या हाल चाल है ? लगता है खाने की बड़ी जल्दी है । पर यह समय तो राग विहाग का है । और इस जंगल में आपसे अच्छा विहाग गाने वाला कौन है । वैसे भी आजकल पश्चिमी संगीत के प्रभाव के कारण शास्त्रीय संगीत लुप्तप्राय सा होता जा रहा है । अच्छे शास्त्रीय संगीत के गाने और सुनने वाले तो बस इक्के-दुक्के ही बचे हैं । कई दिनों से सम्पूर्ण राग विहग सुना ही नहीं । क्या आप कृपा करके मेरे कानों की प्यास बुझाने के लिए कुछ गुनगुना देंगे ?
कौए के लिए यह नया, रोमांचकारी और अंदर तक गदगद कर देने वाला अनुभव था । अब तक कौए को अपने गाने के लिए कभी प्रशंसा तो दूर की बात है, केवल दुत्कार ही मिली थी । हालाँकि कौआ भी कम चालाक नहीं होता पर प्रशंसा ऐसी ग्रीस होती है जो अच्छे-अच्छों को भी रपटा देती है । सो कौआ भी रपट गया और आलाप लेने के लिए जैसे ही चोंच खोली..... । अब आगे की कहानी तो सब जानते ही हैं । हमीं सुना कर क्या करेंगे । आप भी कहेंगे कि हम यह बच्चों की मामूली सी कहानी क्यों सुना रहे हैं । इसे तो सब जानते हैं । बस, इसी भ्रम में लोग मार खा जाते हैं । जानते तो सब हैं पर गुन कर समय पर काम लेना विरले लोगों का काम है । ऐसे विरले ही चाणक्य या गाँधी बनते हैं ।
शेष फिर कभी ।
२१-८-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
बढिया पोस्ट लिखी है बधाई।
ReplyDeleteवैसे प्रधान जी तो कर ही कुछ नही सकते...करता तो कोई ओर है...सभी जानते हैं....।
वैसे भी राजनीति इसी को कहते हैं कि कोई ऐसा उम्मीदवार आगे कर दो.जो तुम्हारी सभी मनमानी पर खरा उतर सके..आप का काम हो जाएगा और बाद मे ठीकरा उस के सिर फोड़ दो:))
बहुत बढिया व्यंग्य। आनन्द आया। कोवे की कहानी सटीक है।
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