Aug 8, 2010

जयपाल रेड्डी के खेल और शादी


जयपाल रेड्डी जी,
नमस्कार । आप कांग्रेस, जनता पार्टी, तेलगू देशम पार्टी में रहे और अब पुनः कांग्रेस में है । आप सभी पार्टियों के प्रवक्ता रहे हैं और प्रवक्ता की बोलने की मज़बूरी होती है जैसे कि सुप्रीम कोर्ट वकील, कांग्रेस प्रवक्ता, बेचारे अभिषेक मनु सिंघवी की । भले ही हड़बड़ाहट में कुछ भी मुँह से निकल जाए । सो आप को भी कलमाड़ी और मणिशंकर अय्यर के विवाद में बोलना ही पड़ा । वैसे आप बोले बहुत समझदारी से । कोई भी नाराज़ नहीं और बात का कोई मतलब भी नहीं । मणिशंकर अय्यर ने भी बिना बात ही उछालकर पत्थर अपने सर ले लिया । हो सकता है कि चुप रहते तो कहीं न कहीं जुगाड़ भिड़ भी जाता पर अब तो कोई भविष्य नज़र नहीं आता ।

आपने कहा- 'आयोजन सफल रहेगा । यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखिरी क्षणों में करते हैं चाहे वह परिवार में शादी हो या कुछ और' । इस बयान में चतुराई है । आप कहीं भी नहीं फँस सकते । मगर आपने भारतीय संस्कृति के हवाले से जो बात कही है उससे हम सहमत नहीं हैं । आपके अनुसार भारतीय संस्कृति 'आग लगने पर कुआँ खोदने' की है, कि भारतीय संस्कृति दूरदर्शी नहीं है ।

हो सकता है कि आप आज की और विशेष रूप से राजनीति की संस्कृति की बात कर रहे थे मगर भारत की शाश्वत संस्कृति कभी भी अंतिम क्षण का इंतज़ार करने की नहीं रही । आखिरी क्षण में काम करने को टालना या टरकाना कहते हैं । वह राजनीति में हो सकता है, आफिसों की, बाबुओं की आदत में हो सकता है । सामान्य रूप से आज भी आदमी पानी से पहले पाळ बाँधने की कोशिश करता है । किसी को बेटी हो जाती है तो माँ उसी दिन से दहेज जोड़ने लग जाती है । बरसात से पहले ही गाँवों में तालाबों, बावड़ियों और छतों की सफाई करने लग जाते थे । किसान आज भी बरसात से पहले खेत को जोत कर तैयार कर लेता है । अगले साल के लिए समझदार किसान पहले से ही बीज छाँट कर रख लेता है, वह किसी कारगिल या मोसेंटो कंपनी के अमरीका से बीज भेजने का इंतज़ार नहीं करता । पुराने लोग तो अपने अंतिम संस्कार का सामान भी पहले ही तैयार करके रख लेते थे । डोंगरे जी महाराज कहा करते थे कि अपनी मौत को सँवारो और आज लोग हैं कि देह को ही चुपड़ने में जीवन बिता देते हैं और फिर ऊपर जाकर भगवान से मुँह छुपाना पड़ता है । इसलिए भारतीय संस्कृति की आड़ में आज की काम को टरकाने की प्रवृत्ति का पक्ष मत लीजिए ।

हाँ, आज की संस्कृति क्या, विकृति कहें तो ज्यादा ठीक है, ज़रूर टरकाने की है । इसी टरकाने की संस्कृति का परिणाम हैं नक्सलवाद, पाकिस्तान और बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ, कश्मीर समस्या, जातिवाद आदि । आजतक न तो हम भाषा की समस्या सुलझा सके और न ही शिक्षा के मामले में कोई नीति बना सके । आज इसी कारण से हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र विकसित नहीं हो सका । भारत क्या है यह आज कोई भी नहीं समझा सका । ऐसे कोई देश नहीं बनता । टरकाने और अंतिम समय का इंतज़ार करने की मनोवृत्ति ने इस देश को एक भीड़ बना कर रख दिया है ।

जहाँ जाइए, अंतिम समय का इंतज़ार किया जा रहा है । बिल पास करने वाला अधिकारी ३१ मार्च को रात बारह बजे तक कमीशन का इंतज़ार करता है और यदि कमीशन पहले ही आ गया हो तो सामान आने का इंतज़ार किए बिना ही बिल पास कर दिया जाता है । कोई नेता आने वाला होता है तो उसी दिन सवेरे सफाई की जाती है । जहाँ सफाई नहीं हो पाती वहाँ कूड़े के आगे कनाते तान दी जाती हैं । सीकर में हमारे घर के पास ही कृषि मंडी है । वहीं मुख्यमंत्री का हेलीकोप्टर उतरता है । पिछले चुनावों में जब सोनिया गाँधी सीकर आईं थीं तब उनका हेलीकोप्टर भी यहीं उतरा था । मंडी के आधे भाग में बहुत स्थायी गंदगी है सो उसका एक तय उपाय है- उस दिशा में कनातें तान देना । कोई भी उस कूड़े को ठिकाने लगाने की नहीं सोचता है । इसे सफाई नहीं कहते मगर यह आपकी इस अंतिम क्षण में काम करने की सोचने की संस्कृति के कारण है । गद्दे के नीचे गन्दगी दबा कर कब तक सफाई का नाटक चलेगा । पोल तो खुलनी ही है । मेकअप से कब तक काम चलेगा ?

आखिरी क्षण में काम करनेवाले को फिर हड़बड़ी करनी पड़ती है और ज़ल्दी का काम तो शैतान का होता है । पहले तो हम यही सोचा करते थे कि ज़ल्दी करने वाले का अपना काम बिगड़ सकता है पर इसमें शैतानी कहाँ से आ गई । मगर एक बार की घटना से हमारी मान्यता बदल गई ।

कोई पच्चीसेक साल पुरानी बात है- हम कलकत्ता से दिल्ली आ रहे थे । रास्ते में इलाहबाद में एक सज्जन डिब्बे में चढ़े और एस.कुमार के सूट के कपड़े दिखाने लगे । यात्रियों से उसका मूल्य लगाने को कहा । लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में कम से कम मूल्य लगाया । किसी ने कहा - बीस रुपया । उसने सब को कपड़ा दिखाया । कपड़ा अच्छा था । सबको लगा कि बीस रुपए में तो नहीं ही देगा । जैसे ही कानपुर आने को हुआ उसने सबसे बीस-बीस रुपए इकट्ठे कर लिए और जैसे ही गाड़ी रुकी सब को एक-एक पीस देकर उतरकर चलता बना । सब खुश कि अच्छा सौदा कर लिया । लोगों ने खोलकर देखा तो पाया कि माल कुछ और ही है जो बीस रुपए का भी नहीं है । और ब्रांड भी एस.कुमार की जगह किसी 'सुकुमार' का था । पर अब क्या हो सकता था । तब से जो काम में देर करता है तो हमें उस धोखेबाज़ की याद आ जाती है । सो आप भी समझ लें कि पहले टाइम खराब करके जो अंत में ज़ल्दी करता है वह शैतान है और वह अपना नहीं, आपका काम बिगाड़ने वाला है ।

हम न तो मणिशंकर का पक्ष ले रहे हैं और न ही अकेले कलमाड़ी की आलोचना कर रहे हैं । हम तो यह कहना चाहते हैं कि चीन ने बहुत बरसों तक ओलम्पिक खेलों में भाग नहीं लिया मगर जब भाग लिया तो पूरी तैयारी से लिया और चमत्कार कर दिखाया । पिछले ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया, ठसके से किया और सबसे ज्यादा मेडल भी लिए । इसलिए अंतिम क्षण का इंतज़ार करके जैसे तैसे काम को निबटाने की बजाय पूरी तैयारी से बढ़िया काम कीजिए और पक्का काम कीजिए । न तो हथेली पर सरसों जमती है और न आकाश में फूल खिलते हैं ।

भारतीय संस्कृति न तो टरकाने की संस्कृति है और न ही विकल्पों के चक्कर में पड़ती है । यह तो संकल्पों की संस्कृति है । संकल्प कीजिए और लग जाइए और फिर देखिए कमाल । हम यह सब केवल आपसे नहीं कह रहे हैं । यह इस पूरे देश के लिए है । यह तो सामने पड़ गए सो आपको लिख दिया ।

वैसे शादी में हड़बड़ाहट रहती ही है । और जहाँ तक कुछ पैसे इधर-उधर होने की बात है तो सब चलता है । शादी में सौ की जगह दो सौ बाराती भी आ सकते हैं और दस बीस फालतू लोग भी जीम जाते हैं । कुछ बर्तन-भाँडे भी चोरी हो जाते हैं सो चिंता की कोई बात नहीं । वैसे हम मेज़बान हैं और जिमाने वाले भी हमारे ही लोग हैं । जीमने वाले अगर बादाम या काजू की बर्फी जेब में डालकर ले जाएँ तो बात समझ में आ सकती है मगर जिमाने वाले ही यदि परात की परात पार कर दें तो भद्द पिटने की पूरी संभावना रहती है । पर जब ब्याह माँड ही दिया है तो फेरे भी हो जायेंगे और बारात भी विदा हो जायेगी ।

हाँ, यदि कहीं वास्तव में ही कुछ कमी और बदमाशियाँ मिल रही हैं तो भविष्य में सावधान रहिएगा । आगे से छाछ फूँक कर पीजियेगा ।

कहीं दुबारा भी यही न हो ? अगर आगे फिर से ऐसा नहीं होगा तो भी यह देश शुक्र मनाएगा ।

धन्यवाद ।

३०-७-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

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