Aug 7, 2010

काणती को काजळ - कलमाड़ी का क्लेश


कलमाड़ी जी,
आपने पायलट की रूप में भारतीय वायुसेना में सेवा की । भारत पाक युद्ध में १९७१ में भाग लिया । आपके पिताजी भी फ्रीडम फाइटर रहे और आप भी । हम भी जीवन भर दो रोटी के लिए फाइट करते रहे । आपने रेल मंत्रालय भी सँभाला मगर तब जब रेल मंत्रालय घाटे में चलता था और ज़्यादातर रेलें बैलगाड़ी की चाल से चलती थीं । आज तो रेल मंत्रालय का यह हाल है कि सब मंत्री रेल के लिए मरे जा रहे हैं । ममता दीदी को यदि रेल मंत्रालय नहीं दिया जाता तो शायद सरकार ही गिरा देतीं । रेलें आज कल लाखों करोड़ का विभाग है और फिर हर साल लाखों समर्थकों को एडजेस्ट कर सकने का अवसर भी ।

अपने से आधी उम्र के छोकरों को कमाई वाले विभागों का मंत्री बना दिया गया है । और तपे-तपाये लोगों को काम भी दिया तो क्या, खेल खिलाने वाला । यह काम तो कोई भी कर सकता था । स्कूलों में हो नहीं रहे हैं क्या खेल ? क्या है इसमें- किसी पेड़ के नीचे बैठकर थोड़ी-थोड़ी देर पर सीटी बजाते रहो और बच्चे खेलते रहेंगे । अब किसी को पदक लाना होगा तो भिवानी में किसी अखाड़े में मिट्टी खूँदता रहेगा या अपनी निजी शूटिंग रेंज में चलाता रहेगा पिस्टल । इसमें किसी को क्या करना है ।

पर ये जो खेल आपको करवाने का काम दिया गया है वह जरा टेढ़ा है । खेलने का ही नहीं, खिलाड़ियों के खाने और ऐय्याशी का भी इंतज़ाम करो । सुना है कि इन खिलाड़ियों की खेल क्षमता बढ़ाने के लिए इधर-उधर से सेक्स वर्कर भी लाई जा रही हैं । कंडोम उगलने वाली मशीनें लगाई गई हैं । पता नहीं कब, किस अनुशासित खिलाड़ी या अधिकारी को इस खेल उपकरण की ज़रूरत पड़ जाए और उपलब्ध न होने पर देश की प्रबंधन क्षमता का कचरा हो जाए । और ऊपर से इन सब की वी.आई.पी. सुरक्षा का भी इंतज़ाम करो तिस पर स्टेडियमों का निर्माण भी करवाओ । और फिर यह बरसात । और सबसे ऊपर अपने मणि शंकर जी की शुभकामनाएँ । आदमी को एक कमरा बनवाने में पसीना आ जाता है, यहाँ तो इतना निर्माण करवाना है । इन सबके बावज़ूद पुछल्ला यह भी कि विदेशी खिलाड़ियों और अधिकारियों को यहाँ की गरीबी नज़र नहीं आनी चाहिए इसलिए भिखारियों और झुग्गी-झोंपडी वालों को भी कहीं न कहीं ले जाकर पटको ।

खेल अपने ज़माने में भी होते थे । मास्टर जी बीस-तीस बच्चों को बस में भर कर जिला मुख्यालय ले जाते थे और स्कूल के किसी कमरे में सबको ठहरा दिया जाता था । सभी बच्चे मिलकर खाना बना लेते थे । दिशा-मैदान के लिए स्कूल के पास ही किसी सूने स्थान पर निबट लेते थे । किसी कुएँ या तालाब में नहा लेते थे और यदि सर्दी के दिन हुए तो नहाए बिना भी काम चला लिया जाता था । यदि कभी टीम जीत जाती थी तो मास्टर जी हनुमान जी का प्रसाद लगा कर सब को एक-एक लड्डू बाँट देते थे । सच, कितना मज़ा और रोमांच था उन खेलों में । अब तो इन खिलाड़ियों का कुछ पता नहीं लगता कि कब नशे की दवा ले लें या कब किसी पब में जाकर नशे में पिट या पीट कर आ जाएँ या कब कोई कोच किसी महिला खिलाड़ी का स्टेटमेंट ले ले । ज़माना कितना बदल गया है । अब खेल न तो आनंद के लिए रह गए हैं और न ही प्रेम बढ़ाने के लिए । अब तो पत्रकार इन्हें एक युद्ध या महाभारत के रूप में प्रस्तुत करते हैं और व्यापारी कमाई करने का एक मौका समझते हैं भले ही लड़कियाँ ही सप्लाई करनी पड़ें ।

ले दे कर आप एक तो काम करवा रहे हैं उसमें भी अपने वाले ही समस्या बन रहे हैं । राजस्थानी में एक कहावत है- 'काणती को तो काजळ ही गाँव नै कोनी सुहावै' । कह रहे हैं यदि खेल कामयाब रहे तो उन्हें खुशी नहीं होगी । ठीक है, खुशी नहीं होगी, कोई बात नहीं मगर यार, असफलता की कामना तो मत करो । और अब ये मीडिया वाले शोशा छोड़ रहे हैं कि निर्माण कार्यों में करोड़ों का घोटाला हुआ है । भाई, जब हज़ारों करोड़ का खेला है तो अब किस-किस को रोका जा सकता है । ओबामा द्वारा मनमोहन सिंह जी दिए गए भोज में क्या बिना बुलाए मेहमान सलाही दंपत्ति नहीं घुस आए थे क्या ? इतने बड़े काम में अगर कोई कुछ बोरी सीमेंट उठा ले जाए या सीमेंट में रेता ज्यादा मिला दे तो आप क्या कर सकते हैं । एक आदमी और इतना सारा काम । कहाँ-कहाँ सँभाले कोई । दाढ़ी बनाने तक की तो फुर्सत नहीं मिल रही है आपको और लोग हैं कि मीन-मेख निकालने से ही बाज नहीं आते । अरे भाई, यह तो सारे देश की इज्ज़त का सवाल है । अगर टाँग ही खींचनी है तो बाद में खींच लेना । एक बार काम तो निबट जाने दो । हम कोई भाग कर थोड़े ही जा रहे हैं कहीं । और फिर ट्रांसपोर्टेशन में अस्सी प्रतिशत तक खर्च हो जाने की तो राष्ट्रीय परम्परा है । रही बात कहीं निर्माण कार्य के ढह जाने या टाइलों के उखड़ जाने की, तो आदमी के हाथ में तो निर्माण करवाना ही है अब वह कितने दिन चलेगा यह तो ऊपर वाला ही जानता है । अरे, फेरों में ही दूल्हा या दुल्हन मर जाए तो पंडित को फाँसी दे दोगे क्या ?

आप तो अपना काम जारी रखिए । भगवान सब भली करेगा । पहले कई बूढ़ी औरतें टोटका करके शादी से पहले आँधी और बरसात को बाँध दिया करती थीं । और बहुत बार ऐसा होता था कि शादी सही सलामत निबट जाती थी । सो यदि आपको विश्वास हो तो कोई ऐसी सयानी बुढ़िया ढूँढें । अंधविश्वास की चर्चा से घबराइए मत । जर्मनी वाले ओक्टोपस पर सारी दुनिया ने विश्वास किया तो हम अपने तंत्र-मन्त्र को बढ़ावा क्यों न दें । और फिर जब नाचने-गाने वालों पर करोड़ों खर्च किया जा रहा है तो फिर इस टोटके पर कुछ लाख खर्च करने में ही क्या बुराई है ।

और बरसात क्या मणिशंकर जी के हाथ में है ? और यदि ऐसा है तो उन्हें जल संसाधन मंत्रालय दिलवा देते हैं । जहाँ जितनी बरसात की ज़रूरत हो उतनी करवा दें बरसात । न सूखे का झंझट और न ही बाढ़ का डर । हाँ, इससे एक समस्या आ सकती है कि फिर बाढ़ सहायता और सूखा राहत के सहारे जिन्दा रहने वाले जन सेवकों का क्या होगा ?

खैर, आप तो हनुमान जी का ग्यारह हज़ार रुपए का प्रसाद बोल कर काम चालू रखिए और हाँ, रोज ग्यारह ब्राह्मणों से सुन्दर कांड और संकटमोचन का अखंड पाठ करवाना भी चालू रखियेया । और यह भी कि यह सारा अनुष्ठान गुप्त रखा जाए नहीं तो धर्मनिरपेक्षता वाले कुचरनी करने लग जायेंगे ।

अब मणिशंकर जी ने कहा है कि वे १५ अक्टूबर के बाद मुँह खोलेंगे । खोलते रहें मुँह । बाद में लीक पीटने से क्या होता है । किस का क्या बिगड़ गया जो आपका कुछ होगा ।

इसके बाद आप तो ओलम्पिक की सोचिए । मुख्य बात तो आयोजन और खेल भावना है । जहाँ तक खेलों के स्तर और मेडलों की बात है तो वही मुर्गे की डेढ़ टाँग ही रहने वाली है चाहे आयोजक मणि शंकर जी को ही क्यों न बना दिया जाए । तो फिर आप में ही क्या काँटे लगे हुए हैं ।

३०-७-२०१०

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Jhootha Sach

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