Oct 5, 2010

स्वागत और धन्यवाद प्रेम पत्र


किसी भी कार्यक्रम के दो भाग होते हैं मगर वे एक दूसरे से भिन्न नहीं होते जैसे कि जन्म और मरण, आदि और अंत, रेल का गार्ड और ड्राइवर, उठाला और द्वादशा । स्कूलों में वार्षिक उत्सव के समय प्रिंसिपल स्वागत करता है और अंत में वाइस-प्रिंसिपल धन्यवाद ज्ञापन करता है । कई स्वागत करने वाले और धन्यवाद ज्ञापन करने वाले इतने महान या विनीत होते हैं कि उनके स्वागत और धन्यवाद 'कार्यक्रम' से भी लंबे हो जाते हैं जैसे कि वी.पी. सिंह की 'मंजिल से ज्यादा सफ़र' या किसी चूहे से ज्यादा उसकी लंबी पूँछ । स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक और भी महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है प्रिंसिपल द्वारा वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करना । यह स्वागत और धन्यवाद से भी अधिक रोचक होता है इसलिए संचालक पहले ही घोषणा करता है कि अभी प्राचार्य महोदय विद्यालय का वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करेंगे मगर आप कहीं जाइएगा नहीं क्योंकि उसके बाद आज का सबसे मनोरंजक कार्यक्रम अमुक-अमुक होगा ।

तो कॉमन वेल्थ गेम्स का उद्घाटन हो गया । सबसे पहले कलमाड़ी जी बोले । जिसमें स्वागत, धन्यवाद, सफाई, माफ़ी सब कुछ था । बीच-बीच में जहाँ दर्शक 'हो-हो' कर रहे थे उसके अर्थ वे और दूसरे सभी समझ रहे थे । अब इस के बाद द्वादशवें दिन कौन क्या बोलेगा पता नहीं पर ऐसा लग रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा । उद्घाटन के इस अवसर पर तो कलमाड़ी जी तथा और सब ने भी ऐसे बहुतों का उल्लेख छोड़ दिया जो बहुत ज़रूरी था । खेलों से पहले मणिशंकर जी ने कहा था कि वे इन खेलों कि असफलता की कामना करते हैं मगर जब हमने उन्हें समझाया कि आप पहले भी खेल-मंत्री रह चुके हैं और किसे पता है कि आगे इस देश में ओलम्पिक खेल भी हों और उनका भार आपको ही सँभालना पड़ जाए सो इतना ताव नहीं खाना चाहिए । उन्होंने हमारी बात को समझा और इंद्र देव को आदेश दिया कि वे खेलों के समय वर्षा करके बाधा न डालें । और चूँकि इंद्रदेव उनके अंडर में ही आते हैं सो उन्होंने वर्षा करके खेल नहीं बिगाड़ा । सो कलमाड़ी जी को सबसे पहले तो मणिशंकर जी को धन्यवाद देना चाहिए था । क्योंकि अभी तो और ग्यारह दिन बाकी हैं, सो जल्दी से भूल सुधार लें । और यह तो सब जानते हैं कि - “ब्याह बिगाड़ें दो जने, के मूँजी, के मेह” (शादी तो दो जने बिगाड़ते हैं, कंजूस या बारिश)

इसके बाद उन कुत्तों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए जिन्होंने एक हफ्ते से खेल-गाँव में प्रवेश नहीं किया । यदि प्रवेश किया भी तो बिस्तरों पर नहीं चढ़े । यदि बिस्तरों पर चढ़े भी तो पैर पोंछ कर चढ़े । टॉयलेट में गए नहीं, गए तो मल-मूत्र नहीं किया, यदि किया तो करने के बाद फ्लश चला दिया । मक्खी-मच्छरों को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिए था कि खिलाड़ियों के आने के बाद से वे किसी कमरे में नहीं घुसे । यदि घुसे भी तो बी.बी.सी. वालों की नज़र बचाकर क्योंकि इन खेलों की सारी व्यवस्था की फ़िक्र सबसे ज्यादा बी.बी.सी. वालों को ही है । तभी तो वे एक-एक कमरे में घुस-घुस कर देखते रहे कि कहाँ क्या हो रहा है । अब भी वे कल ही खबर लाए हैं कि एक खिलाड़ी को डेंगू हो गया है । हम तो कहते हैं कि यदि किसी खिलाड़ी को दस्त नहीं लगें या दो से ज्यादा दस्त लग जाएँ तो इसमें कलमाड़ी की गलती है और भारत की अक्षमता । यदि यहाँ से जाने के बाद यदि किसी खिलाड़ी को एक साल तक बुखार भी हो जाए तो यह भारत की ही अक्षमता मानी जानी चाहिए । इसलिए बी.बी.सी. वालों को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने डेंगू का एक ही मरीज ढूँढ़ा । अगर दस-बीस ढूँढ़ लेते तो कोई क्या कर सकता था ? इसी तरह से किसी कमरे से किसी मच्छर की फोटो ही ले आते तो ? वे चाहते तो किसी कुत्ते से कोई रहस्योद्घाटक साक्षात्कार भी ले सकते थे ।

कार्यक्रम शांति से समाप्त होने पर पड़ोसी, पुलिस, जनता और भी कई भूले-भटके प्रेतों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए पर अभी तो कार्यक्रम शुरू ही हुआ है । हम तो इस कार्यक्रम के उद्घाटन के बारे में एक बात कहना चाहते हैं कि एक लाख किलोमीटर के करीब यात्रा करके जो बेटन लाया गया उसके बारे में कहा गया था कि इसमें महारानी का सन्देश है जिसे प्रिंस चार्ल्स पढ़ कर सुनाएँगे । बेचारे खिलाड़ी उस बेटन को बड़ी सावधानी से उठाए हुए थे कि कहीं महारानी का सन्देश गिर न पड़े । सावधानी के चक्कर में बेचारे खिलाड़ी ढंग से दौड़ भी नहीं पा रहे थे । बेटन लिए हुए दौड़ते खिलाड़ियों की वही हालत हो रही थी जैसी कि विष्णु भगवान द्वारा दिए गए तेल के कटोरे को ब्रह्मा जी तक पहुँचने में नारद जी की हो रही थी । पर जब सुशील कुमार ने बेटन प्रिंस चार्ल्स को दिया तो उन्होंने उसे एक तरफ अटका दिया और जेब से महारानी का सन्देश निकाल कर पढ़ने लगे । भाई, यदि उस बेटन में महारानी का सन्देश था ही नहीं तो पहले ही बताना चाहिए था । बेचारे खिलाड़ी बिना बात ही तनकर-अकड़कर दौड़ रहे थे । यदि पहले ही पता होता तो कम से कम खिलाड़ी ज़रूरत पड़ने पर उसे बगल में दबाकर शंका-समाधान भी कर सकते थे । बेचारे वैसे ही दाबे दौड़ रहे थे ।

वैसे अब तो टेक्नोलोजी इतनी विकसित हो गई है कि उद्घाटन के समय वे सीधा ही लन्दन से बोल सकती थीं और सभी दर्शक उसे उसी समय सुन सकते थे । मगर उस स्थिति में हमारे महाप्रभु ब्रिटेन का इतना प्रचार कैसे हो पाता ? इसी लिए सारे साधन होते हुए भी चुनावों में नेता लोग रोड़ शो करते हैं फिर चुनाव जीतने के बाद भले ही पाँच साल तक अपने कमरे में दलालों के अलावा किसी को घुसने हीं दें । अमेरिका में भी राष्ट्रपति का चुनाव नवंबर में होने के बावज़ूद राष्ट्रपति शपथ लेता है जनवरी में क्योंकि किसी समय, जब आवागमन के तेज साधन नहीं थे, तब चुने हुए राष्ट्रपति को राजधानी पहुँचने में जनवरी आ गई होगी । मगर आज जब चुना हुआ राष्ट्रपति वहीं है और नई ड्रेस पहन कर राष्ट्रपति भवन के चक्कर लगा रहा है, कि कब मौका मिले और अंदर घुसूँ, तब भी वह अंदर जनवरी में ही घुस पाएगा क्योंकि पहले की कोई मजबूरी में शुरु हुई प्रथा आजतक चल रही है । यदि हम कोई पुराना रीति-रिवाज मानते हैं तो उसे पिछड़े हुए लोगों का अंधविश्वास कहा जाएगा ।

चलो जी, भगवान की दया से सब काम ठीक-ठाक निबट जाए और बेचारे कलमाड़ी जी को फाँसी पर नहीं चढ़ना पड़ा । रही बात खेलों के संपन्न होने के बाद जाँच-पड़ताल की, तो 'जो बीत गई सो बात गई' या 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय', मतलब कि अब ओलम्पिक की सोच कि किसे, किसका ठेका मिलेगा ? अपना काम तो देश पर गर्व करना है सो अब भी कर रहे हैं और तब भी करेंगे । रही बात महँगाई की तो वह तो इन खेलों के बाद और बढ़ेगी जैसे कि बँगला देश की स्वतंत्रता के बाद बढ़ी थी । खेल देखने की बात है तो या तो वे देखेंगे जिन्हें फ्री पास मिले हैं या जिनका खर्चा सरकार भरेगी या जिन के पास दो नंबर का पैसा है । आपके-हमारे लिए तो इतनी महँगी टिकट खरीदना और फिर दिल्ली में इस समय कहीं ठहरना संभव हो नहीं सकता । कल किसी के घर जाकर उद्घाटन-समारोह देख लिया, यही क्या कम है ? और फिर शास्त्रों ने कहा है कि व्यक्ति को द्रष्टा होना चाहिए और इस दुनिया को खेल मानकर तटस्थ भाव से देखना चाहिए सो देख रहे हैं । ग़ालिब के शब्दों में- 'होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे' ।
बाज़ार से गुजरना पड़ रहा है और खरीददार हो पाना संभव नहीं है ।

४-१०-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

1 comment:

  1. बहुत करारा कटा़क्ष । मन गदगद हो गया ।धन्यवाद।
    कृ्प्या इस ब्लाग को भी देखें
    http://veeranchalgatha.blogspot.com/

    ReplyDelete