Oct 31, 2010

अनाज भले सड़े, पर तुम तो अड़े रहो मुन्ना भाइयो


मोंटेक सिंह जी,
सत् श्री अकाल । हम तो समझ रहे थे कि देश की इस प्रगति के पीछे केवल नरसिंह राव और मनमोहन सिंह जी का ही प्रताप और प्रयत्न है मगर अब जब आप बोले तो पता चला कि इस प्रगति में आपका भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इतना बड़ा काम एक दो आदमियों के बस का हो भी नहीं सकता । ठीक भी है, सब को अपने कर्मों के अनुसार मान्यता और यश मिलना ही चाहिए । अब जब भी इस देश की प्रगति का इतिहास लिखा जाएगा तब आपका नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाएगा ।

वैसे तो हम आपसे उम्र में कुछ बड़े ही हैं और बी.ए. में अर्थशास्त्र भी पढ़ा है पर हमें लगा कि यह महान विषय कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं है । इसमें तो आदमी को शांत भाव से कठोर निर्णय लेने वाला होना चाहिए । सो हमने इसे छोड़ ही दिया और एम.ए. में हिंदी साहित्य ले लिया । हम छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो अमरीका की समृद्धि के बारे में भी पढ़ते थे कि अमरीका एक समृद्ध देश है, वहाँ अन्न बहुत पैदा होता है । वहाँ जब बहुत ज्यादा अन्न पैदा हो जाता है तो अन्न के भाव नहीं गिर जाएँ इसलिए अन्न को समुद्र में फेंक दिया जाता है । वाह, क्या समृद्धि है और उसका क्या सदुपयोग है ! हमारे यहाँ तो अन्न को ब्रह्म माना जाता है और उसका सदुपयोग किया जाता है । यदि घर में खाने के बाद कुछ बच भी जाता है तो उसे किसी भूखे को देने की कोशिश की जाती है क्योंकि अन्न व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । अन्न की सार्थकता इसी में है कि वह किसी भूखे के पेट में जाए । आपको जो किताबें पढ़ाई जाती थीं उनमें पता नहीं कुछ और होता होगा क्योंकि वे साधारण आदमी नहीं बल्कि बड़े अर्थशास्त्री बनाने वाली होती हैं ।

पहले भूखे को भोजन करना सबसे बड़ा पुण्य माना जाता था । आजकल की बात और है जब बहुत से सिख दाढ़ी रँगने और उसे ट्रिम कराने लग गए हैं, शराब और मांस का भयंकर रूप से सेवन करने लग गए हैं और गालियों का भी जम कर प्रयोग करने लग गए हैं । गुरुद्वारों के चुनावों में सब तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं । हम तो उस समय को याद करते हैं जब भले ही सिख फैशनेबल नहीं थे, बातचीत में अक्खड़ थे मगर दिल से बड़े प्यारे इंसान थे । गुरुद्वारों में जम कर सेवा करते थे और बड़े प्यार से लंगर में लोगों को खाना खिलाते थे । अब समय यह आ गया है कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जी कहते हैं कि भले ही अनाज गोदामों में या खुले में पड़े-पड़े खराब हो जाए मगर उसे गरीब और भूखे लोगों को मुफ्त नहीं बाँटा जा सकता । सर्वोच्च न्यायालय को राजनीति में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए । पता नहीं, भूखों के रहते अनाज को सड़ाना कौन सी 'नीति' है और कौनसा 'राज' है । वैसे ठीक भी है, ये सब बातें धर्म का विषय हो सकती हैं मगर अर्थशास्त्र का नहीं । अर्थशास्त्र में तो दो पैसे कमाने की बात होती है भले ही लोग मर जाएँ । आप भी कहते हैं कि महँगाई इसलिए बढ़ रही है कि गाँवों में लोगों की क्रय शक्ति बढ़ गई है ।

ठीक भी है, गाँव के लोग क्या खाने-खर्चने और मौज-मजा करने के लिए हैं ? उनका काम तो अनाज, दूध, फल उगा कर शहर के व्यापारियों को सस्ते में बेचना है जिससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो और शहरों में संस्कृति का विकास हो । नाच-गानों के प्रोग्राम हों, सौंदर्य प्रतियोगिताएँ हों, हजारों करोड़ के तरह-तरह के खेल-कूद हों, पार्टियाँ हों, पेज-थ्री जगमगाता रहे । पहले गाँव के लोग अधनंगे रहते थे, रूखा-सूखा खा कर रह लेते थे तो देश सोने की चिड़िया था । वैसे जो बहुत गरीब होते थे उनके लिए भी पेट भरने के लिए तरह-तरह की व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं । जैसे पहले गाँवों में एक जाति हुआ करती थी 'मुसहर' । यह जाति चूहे मार कर खाया करती थी, इससे इनका पेट भी मुफ्त में भर जाता था और सेठ जी के गोदाम में चूहों से नुकसान भी कम होता था । इस व्यवसाय में इन लोगों को शतप्रतिशत आरक्षण भी मिला हुआ था । कभी किसी ने इनके चूहे पकड़ने पर कोई ऐतराज नहीं किया । और ये मजे से अपना पेट फ्री में भरते रहे । एक और जाति हुआ करती थी 'गुबरहा' । यह जाति भी हमेशा मुफ्त का खाती रही । जब खेत में बैलों से गहाकर अनाज निकला जाता था तो इस दौरान बैल मालिक के न चाहने पर भी बहुत सा अनाज खा ही जाया करते थे । इतना अनाज बैलों को पचता नहीं था सो अधिकतर उनके गोबर में साबुत का साबुत आ जाता था । ये 'गुबरहे' कहलाने वाले लोग उस गोबर में से यह अनाज बीन कर उसे धोकर खा लिया करते थे । मालिक इन लोगों से कुछ नहीं लिया करता था और इस प्रकार इनका पेट मुफ्त में भर जाया करता था । कितनी अच्छी व्यवस्था थी ?

हमें लगता है आपमें और मनमोहन सिंह जी में इतनी भी उदारता नहीं है कि इस सड़ रहे अनाज को ही इन लोगों को दे दिया जाए । ऐसे लुटाने के लिए आपको योजना आयोग का उपाध्यक्ष थोड़े ही बनाया गया है । वैसे ये गरीब लोग होते बड़े लीचड़ हैं । नए ज़माने और नए रहन-सहन का इन पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता । ये हजारों साल से वही अनाज खा रहे हैं । रोटी के साथ दाल मतलब कि अनाज के साथ अनाज खाना । यदि सब मनमोहन सिंह जी की तरह से वैकल्पिक भोजन करने लग जाएँ तो कुछ तो महँगाई कम हो । मनमोहन सिंह जी चाहें तो रोजाना बादाम-पिश्ते खा सकते हैं, मगर खाते क्या हैं - खरबूजे के बीज । और वे भी फंगस लगे हुए । यह भी कोई खाना है । खरबूजा खाने वाला गरीब आदमी भी खरबूजे के बीज और छिलके नहीं खाता । वह भी उन्हें फेंक देता है । कोई गाय बकरी खा लेती है । इससे ज्यादा सादगी और क्या हो सकती है ? आप भी ऐसी ही कोई सादगी अपनाते होंगे । वैसे बड़े लोग खाते क्या हैं, सूँघते हैं । खाते तो ये गाँव के गरीब लोग हैं । पता नहीं, पिंडली तक पोले हैं क्या ? और मजे की बात यह है कि इस तरह अधभूखे रह कर भी इनकी जनसंख्या कम नहीं होती । जब कि आप और मनमोहन जी द्वारा लाई गई इस नई अर्थव्यवस्था ने कितने विकल्प दे दिए हैं । उनकी तरफ भी तो ध्यान दिया जा सकता है । कितनी मदिरा की दुकानें हैं, जगह-जगह कोल्ड ड्रिंक की दुकानें है । और फिर सारे दिन अखबारों, टी.वी. विज्ञापनों और सिनेमा में ऐसे-ऐसे चेहरे सारे दिन दिखाई देते रहते हैं जिन्हें देखते ही भूख भागती है । इंटरनेट पर वर्चुअल रीयल्टी में एक गुडिया-बच्ची को दूध पिलाने और उससे खेलने के खेल में एक कोरियाई दंपत्ति इतने मशगूल रहने लगे कि अपनी असली बच्ची को सँभालना ही भूल गए कि बेचारी कुपोषण का शिकार होकर मर ही गई मगर भारत के ये गरीब लोग हैं कि किसी भी बहकावे में नहीं आते और किसी भी तमाशे को देखकर रोटी-रोटी चिल्लाना नहीं छोड़ते ।

इन लोगों का कोई इलाज भी तो नहीं है । अब तो सरकार वोट बैंक के लिए, और अधिक लोगों को सस्ता अनाज देने वाली है । क्या बताया जाए आपकी और मनमोहन जी की कोई सुन भी तो नहीं रहा । आपको और मनमोहन जी को कौनसा चुनाव लड़ना है पर जिन्हें चुनाव लड़ना है उन्हें ये सब नाटक करने ही पड़ते हैं । पर आप चिंता मत कीजिए । बाजार भी उनके ‘मनरेगा’ वाले पैसे झटकने के लिए कोई न कोई योजना बना ही रहा होगा ।

हमारे एक मित्र भी आप जितने पढ़े लिखे तो नहीं पर अपने को अर्थशास्त्री की पूँछ मानते हैं । जब हमने उनसे कहा- बंधु, जब अनाज खुले में सड़ रहा है तो ग़रीबों को क्यों नहीं दे दिया जाता । कम से कम उसे फिंकवाने का खर्चा तो नहीं लगेगा । हमारे मित्र भी आपकी तरह ज्ञानी और हिसाबी आदमी हैं सो कहने लगे- देखो, मुफ्त देने से जनता आलसी हो जाएगी और आलसी जनता इक्कीसवीं सदी में चल नहीं सकती तो बाईसवीं सदी में क्या जाएगी । सो मुफ्त देना ठीक नहीं है । इस अनाज को फिंकवाने के लिए टेंडर छूटेगा उसमें कमाई होगी । फिर उस अनाज को थोड़ा साफ़-सूफ करके और कुछ खुशबू मिलाकर कोई व्यापारी ग़रीबों को कुछ सस्ते दामों में बेच देगा तो अर्थव्यवस्था में गति आएगी और उसमें से पार्टी को चंदा देगा तो लोकतंत्र भी मजबूत होगा ।

आप और मनमोहन सिंह जी इस देश कि जड़ों से चिपके रह कर कुतरते रहिए । पेड़ बहुत बड़ा है मगर 'नित बड़ी होती है', बूँद-बूँद रिसने से घड़ा खाली हो जाता है सो आप लोग तो लगे रहिए 'मुन्ना भाई' । बड़ी मुश्किल से तो यह देश अमरीका की तरह अनाज सड़ाने लायक हुआ है अब किसी भी कीमत पर इसे उस युग में नहीं ले जाया जाने देना चाहिए जहाँ लोग अनाज को किसी भूखे के मुँह में पड़ने की चीज मानते थे ।

२३-१०-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. सुन्दर और सराहनीय प्रस्तुती ..शानदार ब्लोगिंग...

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  2. सही कह रहे हैं, इतनी मुश्किल से तो अनाज सड़ने की स्थिति में पहुंच सका है...

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  3. जिस उम्र में लोग सठिया जाते हैं उस उर्म में क्या खाक देश सभालेगे. blod pressure को कण्ट्रोल करें या महंगाई को.

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