ओबामा जी,
नमस्ते । पहले ग्रामोफोन हुआ करता था । अपने समय का एक बहुत ही चमत्कारी आविष्कार । किसी इक्के-दुक्के के पास ही हुआ करता था । बड़ा तामझाम था । कोई दस किलो की मशीन तिस पर उसके रिकार्ड (डिस्क),सुई जिसे दस-पाँच गानों के बाद बदलना पड़ता था और बीच-बीच में हेंडल घुमा कर चाबी भरना । इन सब के बावजूद क्या जलवा होता था ग्रामोफोन का ! लोग शादी-विवाह में लाउड स्पीकर पर रिकार्ड बजवाया करते थे । आप सोच रहे होंगे कि यह मास्टर किस लिए अमरीका के राष्ट्रपति को इस पुराने ग्रामोफोन के बारे में बता रहा है जब कि आज के युवकों ने न तो इसे देखा है और न ही गाने सुनने के लिए इसके मोहताज हैं । आज तो एक बीस ग्राम का मोबाइल फोन जेब में रखा और दो तार कान में घुसेड़े और हो गए चालू । मजे से इस भरी दुनिया से अलग । गाने सुनो, गर्दन हिलाओ, अँगुलियों से घुटने पर तबला बजाओ, और ज्यादा ही मन-पसंद गाना आ जाए तो कमर भी मटकाओ । कुछ पुराने लोग भले की समझें कि कहीं इस छोकरे को मिर्गी का दौरा तो नहीं पड़ने वाला है ?
बात यह है मियाँ, कि इस ग्रामोफोन में एक बड़ी खराब बात थी कि जब इसका रिकार्ड खराब हो जाता था तो फिर वह सुई उसकी कुंडली में घूम कर गाना सुनाने के बजाय बार-बार घूम कर एक ही जगह आती रहती थी तो गाना आगे बढ़ने की बजाय एक-दो शब्दों को ही दुहराने लगता था जैसे- 'एक दिल के..दिल के..दिल के...' जिससे दर्द भरे गीत को सुनते हुए भी लोगों को हँसी आ जाती थी । तब माइक पर रिकार्ड बजाने वाला दौड़कर आता और उसे आगे बढ़ाता या उस रिकार्ड की साइड बदलता था ।
अब हमें मुख्य बात पर आ ही जाना चाहिए वरना हो सकता है आपको गुस्सा ही आ जाए । बात यह है कि उस रिकार्ड की तरह हर आदमी, देश, सिद्धांत या धर्म के रिकार्ड भी, बिना नई और प्रगतिशील सोच के खराब हो जाते हैं और फिर जब चाहे वे किसी एक जगह पर आकर फिर दिल के..दिल के.. दिल के ..गाने लगते हैं जो पहले तो हास्य पैदा करता है और फिर चिढ़ । अमरीका का भी बार-बार अपने बच्चों को बैंगलोर और बीजिंग का डर दिखाना, बुश साहब के ज़माने का, खराब हुआ रिकार्ड है । आप इसे बार-बार बजा कर क्यों तमाशा करते हैं ? पर जब कोई नया कार्यक्रम नहीं होता या कुछ करते हुए नज़र आने की मज़बूरी आ पड़ती है या फिर आदमी बोर होने लगता है तो ऐसे समय में यह पुराना रिकार्ड ही काम आता है । जैसे कि कोई मेहमान आ जाए और उससे बात करने को कुछ नहीं हो तो मेजबान उसे कोई शादी या किसी कार्यक्रम का एल्बम पकड़ा देता है कि देखता रह बेटा और होता रह बोर । सो ऐसे पुराने रेकार्डों को भी कभी फेंकना नहीं चाहिए, पता नहीं कब काम आ जाएँ ?
जब आप सत्ता में आए थे तब आपको लगा होगा कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं मगर अब आपको समझ में आ गया कि किया तो कुछ जा नहीं सकता तो समय बिताने के लिए यह बुश वाले रिकार्ड की अन्त्याक्षरी ही शुरु कर दी जाए । हमारे पड़ोस में भी जब कोई समस्या आ जाती है तो कश्मीर का पुराना रिकार्ड शुरु हो जाता है । जब चुनाव आते हैं तो कोई मंदिर और राष्ट्रीय संस्कृति और अस्मिता का रिकार्ड बजाना शुरु कर देता है तो कोई धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता-विरोध का अपना रिकार्ड शुरु कर देता है । किसी का अपना दलितों और मनुवादियों को जूते मारने का रिकार्ड है जिसे चुनाव के समय पर निकाल लिया जाता है । किसी को चुनाव के समय देश के विकास के लिए किसी दलित को प्रधान मंत्री बनाने की आवश्यकता अनुभव होती है मगर किसी दलित का नाम सुझाने की बात आती है तो पता चलता है कि उनके अलावा भारतीय राजनीति में कोई दलित है ही नहीं । जब अटल जी पहली बार विदेश मंत्री बने तो कहा करते थे कि अब वे भारत की विदेश नीति बदल देंगे पर फाइलें देखने पर पता चला कि संभव नहीं है सो उसी नेहरू जी वाली नीति पर ही चलते रहे । यह बात और है कि अब मनमोहन जी ने भाजपा वाली सारी दक्षिणपंथी नीति ही अपना ली तो अब भाजपा के पास कोई कार्यक्रम रहा ही नहीं ।
तो आप भी बुश जी वाला ही रिकार्ड बजा रहे हैं कि पढ़ो, नहीं तो तुम्हारी नौकरियाँ भारत और चीन के युवक ले जाएँगे । अरे भाई, ये भारत और चीन के बच्चे तो पहले यहाँ सारे सुख और जवानी की मौज-मस्ती छोड़ कर कठोर परिश्रम करके पढ़े और फिर अपने माँ-बाप की खून पसीने की कमाई खर्च करके आपके वहाँ पढ़ने गए । वहाँ भी इन्होनें छोटे-मोटे काम किए, बहुत सादगी से रह कर पढ़े और जब नौकरी की बात आई, तो वहाँ के मालिकों को ये ज्यादा मेहनती और सस्ते लगे, सो रख लिया । अब आप समझते है कि चीन और भारत के ये युवक आपके बच्चों की नौकरियाँ खा जा रहे हैं । अगर अमरीका के गोरे बच्चे भारत और चीन के बच्चों के बराबर पैसे लेकर वैसा ही काम करने को तैयार होंगे तो किसी भी अमरीकी मालिक को भारत और चीन से कोई लगाव नहीं है । उसे तो काम और कमाई चाहिए । पहले बुश और अब आप, जब भारत और चीन का नाम लेकर बात करते हैं तो उससे अच्छा सन्देश नहीं जाता । इससे अमरीकी बच्चे भारत और चीन के बच्चों को अपना दुश्मन समझने लग जाते हैं जो कि किसी देश की सामाजिक समरसता के लिए ठीक नहीं है । हमें लगता है कि कहीं न कहीं आस्ट्रेलिया में भारतीय युवकों के प्रति घृणा का यह भी एक कारण हो । छोटे नेता तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए ऐसे ओछे स्टेटमेंट देते रहते ही हैं । बड़े नेता भी इससे अछूते नहीं हैं । आपका इरादा ऐसा नहीं है मगर बार-बार ऐसे वक्तव्यों से यह सन्देश जाना असंभव नहीं है ।
कुछ शिक्षाएँ या कौशल तो ऐसे हैं जो किसी भी जीव को उसके माता-पिता उसे सिखाते ही हैं । पशु-पक्षियों में यह प्रवृत्ति सहज होती है । वे अपने शिशुओं को भोजन ढूँढ़ना, शिकार करना, अपना बचाव करना, आवास खोजना या बनाना आदि सिखाते हैं और कुछ बच्चे अपने परिवेश से सीखते हैं । जो नहीं सीखते वे नष्ट हो जाते हैं । मानव समाज उनसे कुछ अधिक संलिष्ट हो गया है इसलिए वह दूसरों के लिए काम करके अपनी नौकरी या जीविका अपनाता है । आज आदमी यह नहीं सोचता कि उसे अपने लिए क्या चाहिए बल्कि यह सोचता है कि कौन सा काम सीखकर नौकरी मिलेगी । इस प्रकार वह अपने लिए नहीं सीखता और एक प्रकार से गुलाम हो रहा है । भले ही उसे उपभोक्तावादी संस्कृति 'स्वतंत्रता' का नाम दे । मगर इस संस्कृति में किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती जब कि गुलाम के प्रति भी उसके मालिक की कोई न कोई जिम्मेदारी तो होती ही है, भले ही वह अपने स्वार्थ के लिए ही हो । इस दृष्टि से यह आज की तथाकथित मुक्त अर्थव्यवस्था बहुत गैरजिम्मेदार है जो स्वतंत्रता का केवल भ्रम देती है । पहले जब किसान मिश्रित खेती करता था और अपने समाज के साथ मिलकर रहता था तब वह आत्मनिर्भर और सामाजिक था मगर अब औद्योगीकरण और बाज़ार ने उसे भी किसी बड़ी कंपनी का बंधुआ मजदूर बना दिया है ।
इस व्यवस्था में न तो कारीगर को अपने कार्य की सम्पूर्णता और कर्ता होने का सुख मिलता है और न ही उसे समाज में वह सम्मान मिलता है जो एक सर्जक को मिलना चाहिए । उत्पाद कंपनी के नाम से बिकता है और उसके असली निर्माता की पहचान ही समाप्त हो गई है । खैर, काम कोई भी हो, जीविका का कोई भी साधन हो मगर फिर भी आदमी को आदमी की ज़रूरत होती है । मानव का विकल्प रोबोट नहीं हो सकता । पुत्र-पुत्री द्वारा की गई सेवा का विकल्प किराये की नर्स नहीं हो सकती । माँ के हाथ के खाने की बात ही कुछ और होती है । मेकडोनाल्ड उसका स्थान नहीं ले सकता । यद्यपि बाजार कहता है कि तू किसी की चिंता क्यों करता है 'मैं हूँ ना' । पैसा फेंक और जो चाहे हाजिर है ।
पुरानी जीवन शैली में कहा गया है कि अनुशासन ही सभी गुणों, शिक्षाओं और समाज के सुखी होने का आधार है । हमारे यहाँ भी कहा गया है-
लालयेत् पंच वर्षाणि, दस वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥
अर्थात पाँच वर्ष तक बच्चे को लाड़-प्यार दो, अगले दस वर्ष तक अनुशासन में रखो और सोलह वर्ष का होने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करो । मतलब कि बच्चे को मित्र के समान समझदार बनने के लिए पाँच वर्ष तक प्यार और दस वर्ष तक अनुशासन चाहिए । इसका मतलब यह नहीं है बाद में प्यार समाप्त हो जाना चाहिए । प्यार तो जीवन भर रहता है । उसके बिना तो जीवन से बड़ा कोई दंड नहीं रह जाएगा । मगर लाड़-प्यार को नियंत्रित किए बिना अनुशासन सिखाना मुश्किल हो जाता है । इसीलिए राजा लोग भी अपने राजकुमारों को किसी ऋषि के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजते थे जहाँ रहकर वह आज्ञा-पालन, कठिन परिश्रम करना, खेती करना, पशु-पालन करना, भिक्षा माँगने के बहाने समाज की सही स्थिति जानना सीखता था । आज के धनवानों के बच्चों को अपने सुख और मौज-मज़े के अलावा दीन-दुनिया की खबर ही नहीं रहती । वह अपने सुख के लिए सारी दुनिया को फूँकने में भी नहीं हिचकता । ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात तो बहुत दूर की है । जहाँ-जहाँ भी उपभोक्तावाद की अति होती है वहाँ ऐसे ही हृदयहीन लोग पैदा होंगे । महलों में रहकर अनावश्यक लाड़-प्यार में पलने वाले ही कौरव बन कर निकलते हैं । पांडव तो वन में घूम-घूम कर, विघ्न-बाधाओं को चूम-चूम कर ही बनते हैं । यही अनुशासन है ।
उपभोक्तावाद नहीं चाहता कि कोई भी इस प्रकार से संवेदनशील बने । यदि लोग संवेदनशील बन गए तो अपनी सारी तनख्वाह अपने लिए फूँकने से पहले, आदमी परिवार के बारे में दस बार सोचेगा । बस, यही आदमी उपभोक्तावाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है । हमारे बचपन में माता-पिता बच्चे को स्कूल छोड़ने जाते तो गुरुजी से कहते थे- गुरुजी, मांस-मांस आपका और हड्डी-हड्डी हमारी । इसका मतलब यह नहीं था कि गुरुजी कोई मांस का व्यापार करने वाले होते थे । इसका मतलब यह होता था कि गुरु जी बच्चे को अनुशासित बनाने के लिए जो भी कठिन जीवन का विधान करें, उससे माता-पिता को कोई ऐतराज नहीं होता था ।
पुरानी शिक्षा पद्धति में सबसे मुख्य बात होती थी- आज्ञापालन । उपमन्यु की कथा आती है । उसे खाने में बहुत रुचि थी जो गुरु के अनुसार अनुशासन और शिक्षा में सबसे बड़ी बाधा थी । सो उन्होंने उसकी इस आदत को सुधारने के लिए उसे खाना नहीं दिया । फिर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा । पूछा तो पता लगा कि वह दुबारा भिक्षा माँग कर ले आता था । गुरु जी ने कहा कि वह दुबारा भिक्षा माँग कर नहीं लाएगा । फिर भी बालक उपमन्यु मस्त । जाँच की तो पाया कि वह गायों का दूध पी लेता है । गुरु जी उसके लिए भी मना किया क्योंकि दूध पर तो सबसे पहला अधिकार गाय के बच्चे का होता है । फिर भी बालक उपमन्यु पर कोई असर नहीं । वह बछड़ों के दूध पीते समय गिरने वाले झाग को चाट लेता था । गुरु जी ने उसके लिए भी मना कर दिया । अब तो उपमन्यु के सारे रास्ते बंद हो गए । एक दिन भूख से व्याकुल होकर उसने कोई जंगली पौधा खा लिया जिससे उसकी दृष्टि चली गई और वह रास्ता देख न पाने के कारण एक कुएँ में गिर गया । गुरु कोई जल्लाद नहीं थे । वे तो उसे अनुशासन सिखा रहे थे । शाम को जब गाएँ अकेली ही लौट आईं तो गुरु को चिंता हुई । वे उपमन्यु को खोजने के लिए अँधेरी रात में ही चल पड़े । जंगल में जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई तो एक कुएँ में से आवाज़ आई- गुरु जी मैं यहाँ हूँ । गुरु जी ने पूछा- तुम इस कुएँ में कैसे गिर गए तो उपमन्यु ने सारी बात बताई । गुरु जी ने उसे मन्त्र बताया जिसे जपने से देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उपमन्यु को एक दवा देकर कहा- इसे खालो । तुम्हारी दृष्टि वापिस आ जाएगी । उपमन्यु ने कहा- मैं गुरु जी को अर्पित किए और उनके अपने हाथ से दिए बिना कुछ नहीं खाऊँगा । इतना कहते ही उपमन्यु की दृष्टि वापिस आ गई । उसकी प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा पूरी हुई ।
खाने के बारे में इतनी बार गुरुजी की आज्ञा न मानने पर भी गुरुजी उसे माफ क्यों करते रहे क्योंकि भले ही उसकी खाने की अतिरिक्त रुचि खत्म नहीं हुई थी मगर वह सच बोल रहा था और सच बोलना मनुष्य का सबसे गुण है । तभी कहा गया है-
साँच बरोबर ताप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदय साँच है ताके हिरदय आप ॥
आपके देश का ध्येय वाक्य है- ‘इन गोड वी ट्रस्ट’ । गोड को किसने देखा है ? मगर सत्य तो साक्षात् देखा जा सकता है और इसीलिए हमने तो सत्य को ही भगवान माना है । तभी हमारा ध्येय वाक्य है- ‘सत्यमेव जयते’ । यह बात और है कि अब वह हमारे देश में भी कम ही देखने को मिलता है । सत्य और अनुशासन की शुरुआत घर से ही होती है । मगर आजकल कौन सा घर ? आपके यहाँ तो पचास प्रतिशत बच्चों को असली माता-पिता ही उपलब्ध नहीं हैं । जब माता-पिता ही असली नहीं हैं तो फिर कौन सी चीज है जो असली बची होगी । परिवार को बचाइए, बच्चों को अनुशासन सिखाइए, खुद के अलावा किसी और के बारे में भी सोचना सिखाइए । यह तो पता नहीं कब और कैसे होगा और उसे करने के लिए आपकी उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था कितनी छूट देगी मगर जहाँ तक भारत और चीन से डरने की बात है तो आप निश्चिन्त रहिए ।
चीन और भारत में अभी इनकी पुरानी संस्कृति की जड़ें पूरी तरह से उखड़ी नहीं है । वैसे चीन के बारे में तो हम ज्यादा नहीं जानते पर अब पढ़ा है कि वहाँ भी तलाक दस प्रतिशत बढ़ गए हैं और वहाँ भी लड़कियाँ खुले हाथ कर्च करने के लिए सेक्स बेचने लगी हैं । भारत के बारे में हम कह सकते हैं कि आप निश्चिन्त रहिए । यह एक नंबर का नकलची देश है । जब अंग्रेज यहाँ आए तो इसने अंग्रेजों से ज्यादा अंग्रेज बनने में देर नहीं लगाई । अब रंग का तो ये क्या करें लाख फेयरनेस क्रीम लगाने पर भी प्रिंस चार्ल्स जैसा नहीं हो पा रहा है । मगर जहाँ तक अंग्रेजी और उनके तौर-तरीकों की बात है तो हम उनके भी बाप हैं । अब हम पर अमरीका बनने का नशा सवार है सो हम बहुत जल्दी ही अमीरीकी विकृतियों में अमरीका से भी आगे निकल जाएँगे । अब हमारे बच्चों को माँ के हाथ की गरम रोटी की बजाय बासी पिज्जा और बर्गर अच्छे लगते हैं । अब हम छाछ, शिकंजी की जगह कोकाकोला पीना ज्यादा पसंद करते हैं । धोती बाँधना किसी को नहीं आता । अब बच्चे माता-पिता के चरण छूने में शर्म महसूस करते हैं और दूर से ही 'हाय' करके काम चलाना चाहते हैं । अब लड़के-लड़कियों का देर से घर आना बुरा नहीं समझा जाता । बल्कि यूँ कहिए कि उनको कुछ कहते हुए माँ-बाप को डर लगने लगा है क्योंकि अब हमारे यहाँ भी माता-पिता अधिकार की जगह बाल-अधिकार अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं । न माता-पिता बच्चों को डाँट सकते हैं और न ही अध्यापक । मोहल्ले का बड़ा-बुजुर्ग तो कुछ कहने का अधिकार रखता ही नहीं । अब ब्रह्मचर्य एक पुरातनपंथी धारणा मानी जाने लगी है । अब यहाँ भी भाई-बहनों से निकटता की बजाय गर्ल और बॉय फ्रेंड का चलन चल पड़ा है । आपके यहाँ की तरह अब यहाँ भी लड़के-लडकियाँ शराब और सेक्स को एक शैक्षणिक गतिविधि मानने लगे हैं । अब देश की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों में कंडोम बेचने वाली मशीनें लग गई हैं । छोटे-छोटे कस्बों में सांस्कृतिक गतिविधियों के अंतर्गत सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ होने लगी हैं । ब्रह्ममुहूर्त में उठना पिछड़ेपन की निशानी हो गई है । समलैंगिकता की वकालत की जाने लगी है । बिना शादी किए साथ रहना प्रगतिशीलता कहा जाने लगा है ।
अब हमारे यहाँ भी शिक्षा में रटने को हटा दिया गया है जब कि एक अध्यापक होने के नाते हम कह सकते है कि शिक्षा और जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे बिना सोचे समझे रटना और मानना पड़ता है । बड़े होकर तर्क करने लायक बनने पर ही तर्क सार्थक होता है, नहीं तो वह सीखने में बाधा ही डालता है । क्या आज भी हम डाक्टर या और किसी विशेषज्ञ की बात बिना तर्क के नहीं मानते ? जीवन में बहुत कुछ अपरिवर्तनीय है । वह अपरिवर्तनीय ही सत्य और ईश्वर है । मगर आज स्वतंत्रता के नाम पर उसी पर सबसे ज्यादा प्रश्न उठाए जा रहे हैं । पहले तो हम ब्रेन ड्रेन की चिंता किया करते थे मगर अब तो ब्रेन को पूरी तरह भोग की ड्रेन में ही डाल दिया गया है । इसलिए आप भारत के ब्रेन से मत घबराइए ।
आज हमारे यहाँ भी बच्चों क्या, बड़ों को भी कोई बात समझाने के लिए फिल्मी लोगों को लाया जाता है । सो आपको इस जगद्गुरु से घबराने की ज़रूरत नहीं है । यह तो कान में मोबाइल की घुंडी ठूँसे गाने सुनने में व्यस्त है, लेडी 'गा-गा' के लटके-झटकों में लस्त-पस्त है, बीयर और बर्गर में मस्त है । अब चाहे अमरीका या कोई और कपड़े ही क्यों न उतार ले जाए ।
वैसे कहा गया है कि 'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया' ।
मगर हम तो इतने आशावादी हैं कि होश तो कभी भी आए, अच्छा ही है ! विनाश के बाद भी तो नई सृष्टि शुरु होती है कि नहीं ?
२१-९-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
किसे समझा रहे हैं. ये सब गाधी जी के वानर हैं. इनके आंख कान नाक सब बन्द हैं...
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