Jan 22, 2012

आत्मा के आहत होने का मौसम


जयपुर में एक बड़ा लेखकीय सम्मलेन शुरु हो गया है और विवाद भी । जब चार बर्तन एक जगह होते हैं तो खड़कते ही हैं, तो ये तो बुद्धिजीवी हैं । इनके पास झूठे अभिमान के अलावा और है ही क्या ? कर्म करके कुछ कमाते तो झूठा अभिमान दूर होता, मिलकर कोई सत्कार्य करते तो प्रेम-भाव पनपता । मगर ये सब तो अपने-अपने कूप के मेंढक हैं । तुलसीदास ने तो रामचरित महाकाव्य लिखा मगर विनम्रता का हाल यह कि कहते हैं- इसमें मेरा कुछ भी नहीं है यह तो मैनें विभिन्न पूर्ववर्ती ग्रंथों से प्रेरणा पाकर लिखा है - नाना पुराण निगमागम....

और एक ये महान लेखक हैं कि अपनी एक-दो किताबें लिए घूमते हैं जिन्हें इन लोगों ने खुद ही एक दूसरे की किताब को नहीं पढ़ा होगा । और आशा यह करते हैं कि सब कहें कि उन्होंने उसकी किताब को पढ़ा है और वह उसे आज तक लिखी गई सब किताबों से श्रेष्ठ लगी । जहाँ जनता के पढ़ने का सवाल है तो जनता ने इनका नाम ही नहीं सुना होगा ।

इस उत्सव को एशिया का सबसे बड़ा साहित्यिक उत्सव माना जा रहा है । उत्सव शब्द से जैसी ध्वनि निकलती है यह भी उससे भिन्न नहीं है । उत्सव में तमाशा अधिक होता है । ऐसे तमाशे में खाना-पीना, स्वागत-सत्कार मुख्य होता है । इसके बाद और इसके दौरान खाने-पीने, ठहराने की व्यवस्था, उपहार आदि की चर्चा होती है । दर्शनीय स्थानों के भ्रमण की योजना बनती है । पत्नी या बच्चों की बताई लिस्ट के अनुसार खरीददारी होती है । यदि शौक हुआ, और बुद्धिजीवी हैं तो होना ही चाहिए, तो राजस्थान की रजवाडी दारू की कुछ बोतलें खरीदी जाएँगी । जिन्होंने बुलवाया है उन्हें अपने यहाँ भी ऐसे ही आयोजन करके बुलवाने का आश्वासन दिया जाएगा । जहाँ तक किताबों को खरीदने की बात है तो कोई किसी की किताब नहीं खरीदेगा और यदि किसी ने भेंट स्वरूप चिपका ही दी तो उसे बिना पढ़े ही होटल के कमरे में ही छोड़ दिया जाएगा । यदि किसी नामी आदमी की हुई तो साथियों को दिखाकर रौब ज़माने के लिए रख लिया जाएगा । यदि कोई प्रकाशक आया होगा तो लेखक उससे चिपकने की कोशिश करेंगे । यदि किसी प्रसिद्ध लेखक ने लिफ्ट दे दी तो अपनी किताब छपवाने का जुगाड़ करेंगे । सुन्दर लेखिकाओं के भाषण पर अधिक तालियाँ बजेंगी । और इस तरह से साहित्य और साहित्यकारों के मिलन और विकास का उत्सव समाप्त हो जाएगा ।

जैसा कि हमेशा होता है कुछ लोगों के आत्मसम्मान को ठेस लगेगी यदि उन्हें उनकी मनपसंद की दारू नहीं मिलेगी या बोलने के लिए अधिक समय नहीं दिया जाएगा या उनकी आशानुरूप प्रशंसा नहीं होगी । वास्तव में ऐसे आयोजन चर्चित और दर्शनीय लोगों के होते हैं । इनमें अनुकरणीय होना आवश्यक नहीं होता । जहाँ तक अभिव्यक्ति की बात है तो यह लिखकर ही नहीं होती दिखकर और दिखाकर भी हो सकती है । जब ऐसे उत्सवों का विस्तार वहाँ तक हो जाएगा तो पूनम पांडे, मल्लिका सेरावत और राखी सावंत भी मुख्य आकर्षण हो जाएँगी ।

अब तो महान मनीषी सलमान रुश्दी जी के पधारने और न पधारने पर सस्पेंस चल रहा है । आखिर किसी भी साहित्यिक उत्सव की सफलता ऐसे ही महान लोगों की उपस्थिति पर निर्भर करती है । उनके जैसे लोगों से प्रेरणा लेकर ही तो महान रचनाएँ लिखी जाती हैं । तुलसीदास जी ने इतनी रचनाएँ कीं मगर न तो किसी बुकर ने पुरस्कार दिया और न ही किसी खुमैनी ने फतवा दिया । तुलसीदास जी ने तो जो कुछ लिखा, वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि इधर-उधर पुराणों से लेकर छपवा लिया । जब कि रुश्दी जी ने तो सब कुछ मौलिक लिखा है । और मौलिक भी इतना कि उसकी कल्पना तक उनके अलावा और कोई नहीं कर सकता । जिस तरह कि कुछ लोग एक खास सर्ग के लिए 'कुमारसंभव' को पढ़ते हैं उसी तरह अधिकतर लोग रुश्दीसाहब की 'शैतानी आयतों' को एक खास प्रसंग की लीला के लिए पढ़ते हैं भले की अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें पूरा-पूरा आनंद आए या नहीं । पता नहीं, जनता की साहित्यिक समझ बढ़ाने के लिए ऐसे साहित्यिक उत्सवों के आयोजकों ने अपने कार्यक्रमों में ऐसे महान ग्रंथों का विश्व की अधिकांश भाषाओं में अनुवाद करवाने का प्रावधान रखा है या नहीं ? वैसे होना तो चाहिए साहित्य के विकास के लिए ।

जहाँ तक हमारी थोड़ी सी जानकारी है वहाँ तक रुश्दी साहब विख्यात कम और कुख्यात अधिक हैं । उन्होंने चार-पाँच औरतों या लड़कियों को फँसाया । कुछ लोग कहते हैं कि उन लड़कियों या औरतों ने ही कुछ दिन मुफ्त के पैसे पर ऐश करने के लिए रुश्दी को उल्लू बनाया । ऐसे रसमय कृत्यों में रुचि लेने वाले लोगों के लिए तो रुश्दी जी हीरो से कम नहीं है । औरतें यह देखने के लिए कि उसमें ऐसा क्या है जो औरतें टूटी पड़ रही हैं और पुरुष यह देखने के लिए कि यहाँ तो एक भी पटाना संभव नहीं हो पाया और यह पट्ठा पाँच-पाँच कबाड़ बैठा । यह कोई नहीं सोचता कि इसे पाँच-पाँच उल्लू बनाकर भाग गईं ।

सुना है कि इस आयोजन में कुछ आत्माएँ रुश्दी जैसे इस्लाम विरोधी को बुलाए जाने से आहत हो रही हैं और कुछ आत्माएँ उनके न आने के दुःख से आहत हो रही हैं । उनके न आने से न तो धर्म के रक्षकों का रुतबा बढ़ेगा और न ही आ जाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हो जाएगी । वैसे रुश्दी के आने से धर्म कोई संकट में नहीं पड़ जाएगा और न ही न आने से साहित्य का कोई अपकार हो जाएगा । २००८ में भी इस उत्सव में कुछ हिंदी और राजस्थानी आत्माएँ आहत हुई थी । सुना कि उनको बोलने का समय कम दिया गया या नहीं दिया गया । हमें विश्वास है कि वे आत्माएँ आहत होने के बावज़ूद फिर इस कार्यक्रम में अवश्य आई होंगी । ठंड में दारू का पाना महत्त्वपूर्ण होता है और फिर ऐसे उत्सवों में शामिल होने से ही तो व्यक्ति मान्यता प्राप्त लेखक और बुद्धिजीवी प्रमाणित होता है ।

सुना है कि इस उत्सव में हिंदी, अंग्रेजी और राजस्थानी साहित्य के उद्धार का भी कोई घोषित एजेंडा है । गुप्त एजेंडे का पता नहीं । वैसे इसमें हिन्दी के भी नाममात्र के लोग आते हैं और राजस्थानी के तो पता नहीं केवल खाने भर के लिए ही बुलाए जाते हैं क्या ? आज तक किसी का भाषण या नाम तो विशिष्टता से पढ़ने में आया नहीं । और फिर ऐसे उत्सवों के आयोजकों के लिए हिंदी और राजस्थानी ही क्या सभी भारतीय भाषाएँ अछूत हैं । ऐसे आयोजकों और तथाकथित साहित्यकारों को उनके साहित्य की सामाजिक उपादेयता के लिए नहीं बल्कि भारत और भारत की सामाजिक संस्कृति को तुच्छ, उपेक्षणीय और पिछड़ी सिद्ध करने के लिए अंग्रेजी और विशेष कर ब्रिटेन के प्रकाशकों और बुद्धिजीवियों की ओर से श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता है और पैसे के बल पर बड़े और भव्य आयोजन करवाकर चर्चित किया जाता है । जिस प्रकार कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय सुंदरियों को पुरस्कृत करके भारत में विदेशी सौंदर्य-प्रसाधनों का बाजार तैयार करना है उसी तरह ऐसे आयोजनों से भारत की मूल धारा के साहित्य को बरतरफ करना है ।

आज के अखबार में लिखा है कि इस उत्सव में कबीर, मीरा और रैदास की महक भी रहेगी । हम तो यह समझ नहीं पा रहे हैं कि ढाई आखर प्रेम के पढ़ने-पढ़ाने वाले, आधी और रूखी में संतोष करने वाले और अपनी चदरिया को ज्यों की त्यों धर जाने वाले कबीर; और अपने मन के चंगेपन के कारण कठौती में ही गंगा उतार लेने वाले, पारस को भी अपने छप्पर में ही टँगे पड़े रहने देने वाले रैदास; गिरधर के रंग में रँग कर, उसके चरणामृत के नाम से विष पीकर भी अमर हो जाने वाली मीरा को ये, अपनी चादर को साफ़ दिखाने के लिए दूसरों की चादर को गन्दा करने वाले लोग, क्या समझ पाएँगे । चर्चा करके इन महान आत्माओं को कष्ट ही पहुँचाएँगे ।

वैसे ये महान आत्माएँ अपनी सार्थकता के लिए ऐसे आयोजनों और ऐसे साहित्यकारों की मोहताज भी नहीं हैं ।

२०-१-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. आपने इस मुद्दे पर लिखा तो अच्‍छा लगा। कैसा साहित्‍य का मेला है जहाँ खुलेआम सिगरेट पी जा रही है और शराब भी। क्‍या साहित्‍यकारों की यही छवि है। किसी भी देश में सार्वजनिक स्‍थानों पर धूम्रपान करने पर पाबंदी है लेकिन यहाँ उन्‍हीं देशों के लोग सरेराह कानून तोड़ते नजर आ रहे हैं। और हम खुश हो रहे हैं। शायद जयपुर के या राजस्‍थान के साहित्‍यकारों के पास निमंत्रण भी नहीं होगा और फिल्‍म सिटी न्‍यौत दी गयी है। ऐसे सम्‍मेलनों का विरोध होना चाहिए।

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  2. अब क्या टिप्पणी दूं, सब कुछ तो लिख ही दिया है आपने.

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  3. ऐसे आयोजनों से दुःख होता है जहाँ हमारी राजभाषा का अपमान होता है उसे और उसके रचनाकारों को कोई नहीं पूछता है...ऐसे ऐसे महान साहित्यकार बुलाये जाते हैं जिनका नाम आम जन ने कभी सुना नहीं होता...ये तमाशा अधिक है साहित्य सभा कम...

    नीरज

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