Jan 22, 2012

बाल-विकास की एक क्रूर अवधारणा


बाल विकास की एक क्रूर अवधारणा
नार्वे में बच्चों के कल्याण के नाम पर बनी एक संस्था है- 'बालक बचाओ संस्थान' । १९ जनवरी २०१२ को एक समाचार पढ़ाने को मिला कि इस संस्थान ने नार्वे में कार्यरत एक बंगाली दंपत्ति अनुरूप भट्टाचार्य और सागरिका भट्टाचार्य से उनके तीन वर्षीय और एक वर्षीय बच्चे को अलग करके उक्त संस्थान द्वारा नियुक्त व्यक्ति के पास भेज दिया गया है ।

दंपत्ति की गलती या अपराध यह था कि वे अपने बच्च्चों को गोद में बैठाकर हाथ से खाना खिलाते थे और रात को बच्चों को अपने साथ सुलाते थे । संस्था की मान्यता है कि हाथ से खाना खिलाने पर बच्चे को अधिक खाना खिलाए जा सकने की संभावना है । उन्हें चम्मच से खाना खिलाया जाना चाहिए था । इसी तरह पता नहीं गोद में बैठाने और साथ सुलाने से कौन सी यौन-मनोवैज्ञानिक समस्या पैदा हो सकती थी । पता नहीं, जब योरप में चम्मच का आविष्कार नहीं हुआ था तब योरप में बच्चों को खाना कैसे खिलाया जाता था और हाथ से खाना खाकर पता नहीं बच्चे कितने मोटे हो जाते होंगे । उनकी निगाह में पशु इसलिए पशु है कि वह अपने बच्चों को चम्मच से खाना नहीं खिलाता और माताएँ अपने बच्चों को अपने साथ सुलाती हैं ।

मानव को सामाजिक प्राणी या सोशियल एनिमल कहा जाता है क्योंकि उसका अपने बच्चों के साथ अधिक से अधिक संसर्ग और सान्निध्य रहता है । माता-पिता विशेषकर माता के अधिक निकट रहने से बच्चे में सुरक्षा की भावना आती है । माँ के प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह अधिक संवेदनशील बनता है । और बड़ा होकर समाज के अन्य सदस्यों से सद्व्यवहार करता है । इसके विपरीत तलाकशुदा माता-पिता या माता-पिता के प्यार और संसर्ग से वंचित बच्चे अधिक कुंठित, संवेदनहीन, खूँख्वार, और झगड़ालू होते हैं । अमरीका में घर से बंदूक लाकर स्कूल या बाजार में अंधाधुंध गोली चलने वाले सब बचपन में माता-पिता के प्यार से वंचित रहे बच्चे थे ।

बाल विकास की नार्वे जैसी अवधाराणाओं वाले पश्चिमी देशों में ही आजकल ऐसे शोध भी हो रहे हैं कि जिन बच्चों को माता का साथ, प्यार और संसर्ग बचपन में अधिक मिला होता है वे अधिक योग्य, शांत, सुखी और सुखी वैवाहिक जीवन जीने वाले होते हैं और उनमें कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएँ और कुंठाएँ नहीं होतीं । वे अवसाद से भी कम ग्रसित होते हैं । ये सभी शोध कोई नई बात नहीं हैं वरन ये विश्व के लगभग सभी परम्परागत समाजों के अनुभूत तरीके रहे हैं । पता नहीं, मानव विकास के तथाकथित ठेकेदार संस्थान सहज बाल-विकास में क्यों बाधा डालना चाहते हैं ?

बाल-विकास या मानव-विकास का सबसे मज़बूत घटक है सुखी, संतुष्ट, जिम्मेदारीपूर्ण पारिवारिक और वैवाहिक जीवन जो कि संयुक्त परिवार के टूटने और जीवन में उपभोक्तावादी, बाजारवादी धारणा आने से समाप्त सा हो चला है । उसे बचाने का प्रयत्न होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि विवाह को मात्र यौनेच्छा के लिए होने वाला एक सामान्य मिलन नहीं माना जाना चाहिए । यह पशुओं जैसी एक सामान्य प्रक्रिया नहीं है बल्कि समाज को एक जिम्मेदार नागरिक देने की एक जटिल, श्रम और समय-साध्य प्रक्रिया है ।

जब हम कोई विशेष प्रकार का बीज, वृक्ष या जीव विकसित करना चाहते हैं तो बड़ी सावधानी से नर और मादा घटकों का चयन करते हैं और नियंत्रित और विशिष्ट परिवेश में उन्हें तैयार करते हैं तो मनुष्य के विकास के लिए ऐसी सावधानी क्यों नहीं बरतना चाहते ? इसी बात को ध्यान में रखते हुए मानव समाज में अच्छे और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए विवाह का विधान किया गया था और उसके लिए बहुत से पथ्य और परहेजों का विधान किया गया था अन्यथा संतानोत्पत्ति तो सभी जीवों में होती ही रहती है । कौन मक्खी-मच्छरों के जीने, मरने, पैदा होने और नस्ल की फ़िक्र करता है पर मानव की बात और है क्योंकि उसे मच्छर-मक्खी की तरह महत्त्वहीन नहीं माना जा सकता । मानव अपने हर निकृष्ट और उत्कृष्ट रूप में दुनिया को किसी भी हद तक प्रभावित कर सकता है ।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए मनुस्मृति में कई प्रकार के विवाहों का विधान किया गया है और उनके संस्कारों, पारिवारिक पृष्ठभूमि, विचार, कर्म आदि के मेल या बेमेल होने के करण पड़ने वाले संभावित परिणामों के आधार पर उन्हें श्रेष्ठ और निकृष्ट बताया गया है । जब भी इन नियमों का उल्लंघन किया गया है तो कोई न कोई असामान्य स्थिति ही पैदा हुई है । आजकल युवक-युवतियाँ केवल बाहरी आकर्षण, कद-काठी, पद, वेतन आदि देखकर शादी कर लेते हैं मगर जब शारीरिक आकर्षण कम होना शुरु होता है तब बेमेल वैचारिकता के दुष्प्रभाव प्रकट होने शुरु होते हैं और ऐसे अधिकतर विवाहों का अंत तलाक में होता है ।

आजकल विवाहों का असफल होना ही समाज में नई पीढ़ी में बढ़ती हुई विकृतियों, हिंसा, संवेदनहीनता, कुंठा और अपराधों का करण है । सभी बच्च्चों को आपसी समझ से प्रेमपूर्वक रहकर उनका पालन-पोषण करने वाले माता-पिता चाहिएँ । सिंगल पेरेंट्स के बच्च्चों में ऐसी समस्याएँ अधिक मिलती हैं और ऐसी स्थिति अधिक तलाकों वाले देशों और समाजों में सबसे अधिक है । जब कि यह भी सच है कि ऐसे देशों में भी सामान्य समाज उसी नेता को पसंद करता है जिसका वैवाहिक जीवन आदर्श हो क्योंकि सभी लोगों की आंतरिक कामना तो यही होती है कि उनका पारिवारिक जीवन शांत और सुखी हो । तभी भले ही अंदर खाने कुछ भी हो गया हो मगर कभी भी, किसी भी राष्ट्रपति ने अपने पारिवारिक छिद्र प्रकट नहीं होने दिए । इसीलिए हिलेरी ने सब कुछ जानते हुए भी अपने पति का साथ दिया । अमरीका में स्थानीय चुनावों में उम्मीदवार अपनी योग्यताओं में इस बात को शामिल करते हैं कि वे पिछले 'इतने' वर्षों से सफल वैवाहिक जीवन जी रहे हैं ।

अब यह बात और है कि हर बार परिवार नामक संस्था को बचाने की बात करते हुए भी किसी राष्ट्रपति ने भी इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया बल्कि लगता है कि तलाक को अधिक स्वाभाविक और सरल बनाया जा रहा है । अमरीका में अपने भूतपूर्व पार्टनर को दी जाने वाली भरण-पोषण की राशि स्थानीय प्रशासन के पास जमा करवानी पड़ती है । फिर स्थानीय प्रशासन उसमें से अपना दो-चार प्रतिशत कमीशन काट कर संबंधित पक्ष के पास भिजवाता है । सरकारों और वकीलों ने मिलकर यह आमदनी का एक धंधा बना रखा है । अमरीका में सबसे अधिक वकील तलाक के धंधे में ही लगे हुए हैं । और यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि सभी देशो की सरकारों में वकील ही सबसे ज्यादा होते हैं क्योंकि कानून को जानने वाला ही उसकी ऐसी-तैसी करने की योग्यता रखता है । अपराधियों और वकीलों की दोस्ती स्वाभाविक होती है ।

अमरीका में गुलामी के लिए नीग्रो को पकड़ लाया गया । उनसे पैदा होने वाले बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करके किसी एक बुढ़िया के पास रखा जाता था क्योंकि उनके मालिकों का मानना था कि साथ रहने से बच्चों और माता-पिताओं में पैदा होने वाला लगाव कहीं इतनी एकता न बढ़ा दे कि उनकी सम्मिलित शक्ति उस गुलाम प्रथा के लिए खतरा बन जाए । इस ज़बरन तोड़ी गई परिवार प्रथा और संतान और माता-पिता के स्वाभाविक संबंधों का अभाव गुलामों की संततियों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण बना । आज अमरीका की जेलों में अस्सी प्रतिशत कैदी काले ही हैं । और मज़े की बात यह है कि आगे चलकर इन्हीं गोरे मालिकों ने इन काले लोगों को, मूल कारणों का विश्लेषण किए बिना, इन्हीं कमियों के आधार पर एक घटिया नस्ल सिद्ध करने का प्रयास किया ।

जब पालने के लिए कोई कुत्ते या तोते का बच्चा लाया जाता है तो कहा जाता है कि बच्चे को उसकी आँखें खुलने और माता-पिता के संपर्क में आने से पहले ही ले आया जाना चाहिए । इसलिए अमरीका जैसे देशों में, पता नहीं किसका पालतू बनाने के लिए, बच्चे को पैदा होते ही माता की गोद की स्वाभाविक गरमी और स्नेह से दूर पालने में सुलाया जाता है । छोटे बच्चे को भी रात होते ही माता-पिता गुड-नाइट कह कर एकांत कमरे में छोड़कर चले जाते हैं । पता नहीं, अकेला बच्चा एकांत रात में किन भयों, अवसादों और दुस्वप्नों से जूझता होगा । पता नहीं, अबोध किस पाप के फलस्वरूप बाल-विकास की इस बचकानी अवधारणा का दंड भोगता है ?

हमारे यहाँ मनुष्य को झूठे माया-मोह से बचाने के लिए ज्ञानी कहते हैं कि हंस अकेला आता और अकेला जाता है । पूर्वी देशों में यह ज्ञान लोगों को पता नहीं कितना हुआ है मगर पश्चिमी देशों में तो बच्चे को पैदा होते ही इस ज्ञान की कठिन साधना शुरु कर देनी पड़ती है । और उसी के परिणाम स्वरूप वह १८ वर्ष का होते ही सारे बंधनों से आज़ाद हो जाता है फिर चाहे माता-पिता मरें या जिएँ । इन बच्चों का इतने निरपेक्ष भाव से पालन करने वाले माता-पिता किस मुँह से बच्चों से आशा कर सकते हैं कि वे बुढ़ापे में उनका सुख-दुःख पूछें । गैर-जिम्मेदारी की इस परंपरा का प्रसाद तो सभी को भुगतना पड़ता ही है ।

सारे संबंधों से मुक्त, अकेली पीढ़ी भले ही कुंठा और अवसाद से ग्रसित हो, किसी के प्रति भी उत्तरदायी न हो मगर ऐसा समाज बाजार के बहुत काम की चीज है । बाज़ार का पालतू बनाने के लिए ही उसे अपने माता-पिता और सभी संबंधियों से दूर करके निपट अकेला बना दिया जाता है । ऐसा अकेला व्यक्ति बिना कुछ सोचे-समझे अपनी सारी आमदनी और अक्ल कभी भी विज्ञापनों के चक्कर में आकर बाज़ार पर न्यौछावर कर सकता है । जब किसी के प्रति दायित्व ही नहीं होगा तो किसके लिए बचाने और किसके सोचने की ज़रूरत है । और यही तो बाजार चाहता है । अब यह सोचना हमारा काम है कि इसमें कौन किस तरह से सहभागिता कर रहा है और उससे किस तरह से बचें । सरकारों के भरोसे रहने से कुछ नहीं होगा क्योंकि ये तो उन्हीं बाजारों के मालिकों के यहाँ गिरवी रखी हुई हैं ।

२१-१-२०१२


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. दुःख की बात यह है कि भारत में भी ऐसा ही बाजार तैयार किया जा रहा है.

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  2. नॉर्वे की यह घटना दुखद और शर्मनाक है। यूरोप के कुछ देशों के विधान आज भी बहुत संकीर्ण हैं।

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  3. आपका आलेख बहुत ही सार्थक है। अमेरिका में जब मैंने देखा कि पैदा होते ही बच्‍चे को अलग सुलाने का रिवाज नहीं कानून सा है तो मन धक सा रह गया। यह कैसा कानून है या कैसा मनोविज्ञान है? हम अपनी संतान को बड़ा कर रहे हैं या किसी दुश्‍मन को? आज भारत में इतने लाड़-प्‍यार से बच्‍चों को पाला जाता है उसके बाद भी बड़ होकर वे कमियां निकालते रहते हैं तो सोचिए ऐसे बच्‍चे तो दुश्‍मन ही बन जाएंगे ना। परिवार को तोड़ने का पूरा प्रबंध कर लिया गया है और भौतिक सुखों की चकाचौंध में हमें कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। नार्वे की घटना ने तो हिलाकर रख दिया है। किस दुनिया का निर्माण करने लगे हैं हम?

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