अभी दो-चार दिन पहले खाने की वस्तुओं के बदले अंडमान के जारवा आदिवासियों का अर्द्ध नग्न नृत्य देखते हुए विदेशियों का वीडियो लीक होने से आदिवासी शोषण के विरुद्ध मानवीय करुणा का जो ज्वार सा उठा दिखाई दे रहा है वह शीघ्र ही बैठ जाएगा । स्थानीय प्रशासन ने इस कृत्य के लिए कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है, जाँच के लिए हो सकता है दिल्ली से भी कोई टीम जाए मगर अंततः न तो कोई परिणाम निकलेगा और न ही भविष्य के लिए कोई सार्थक कदम उठेगा और न ही सुविधाभोगी, तथाकथित सभ्य लोगों की मनोवृत्ति में कोई अंतर आएगा ।
इस बहाने आदिवासी जनसंख्या की स्थिति, परिस्थिति पर नज़र डाली जा सकती है । अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह में छः प्रकार के आदिवासी रहते हैं जिनमें चार ग्रेट अंडमानी, ओंगी, जारवा और सेंटीनल नेग्रितो नस्ल के और दो निकोबारी और शोम्पेन मंगोल नस्ल के हैं । ग्रेट अंडमानी और निकोबारी कपड़े पहनते हैं और शेष चार केवल गुप्तांगों पर घास-फूस बाँधते हैं ।
ग्रेट अंडमानी- कोई दो सौ बरस पहले दस हजार की संख्या में थे । अब ये ग्रेट अंडमान द्वीप में रहते हैं । इनकी संख्या के घटने का करण बाह्य लोगों के संपर्क से मिली यौन व्याधियाँ माना जाता है । आज इनकी संख्या कोई ४० है ।
ओंगी- ये लिटिल अंडमान में इनके लिए बसाई गई बस्ती में रहते हैं । इनकी संख्या कोई एक सौ है । इनके लिए एक सहकारी समिति भी बनाई गई है मगर उसका फायदा संचालकों को ही अधिक हो रहा है ।
जारवा- ये साउथ और मिडिल अंडमान में रहते हैं । इस इलाके में सड़क निर्माण भी किया गया जो इन्हें पसंद नहीं आया था । इनकी संख्या ४०० के लगभग है । प्रशासन के निरंतर प्रयत्नों के कारण ये लोगों के कुछ निकट आए हैं ।
सेंटीनल- इनका एक अलग द्वीप है जिस कारण ये अधिक सुरक्षित हैं और इनका कोई बाह्य संपर्क नहीं है । इनकी संख्या अनुमानतः २५०-३०० है ।
शेष दो निकोबारी और शोम्पेन मंगोल नस्ल के हैं । शोम्पेन संख्या में कोई ४०० हैं । इनमें अधिकतर शांत और शर्मीले हैं । कुछ आक्रामक भी हैं मगर अब ये निकट की बस्ती के लोगों के संपर्क में आ रहे हैं ।
निकोबारी जनसंख्या में सबसे अधिक ५४००० हैं । इनके गाँव, बस्तियाँ हैं, ये स्कूल जाते हैं और कुछ सरकारी नौकरियों में भी हैं । इन्हीं के एक प्रतिभाशाली बालक रिचर्डसन को अंग्रेजों ने पढ़ने के लिए बाहर भेजा गया जो बड़ा होकर पादरी बना और उसी के प्रभाव से सभी निकोबारी ईसाई बन गए । बाद में रिचर्डसन को स्वतंत्र भारत की संसद के लिए सदस्य भी मनोनीत किया गया ।
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यहाँ के आदिवासियों का बाहरी दुनिया से संपर्क कोई एक सौ साल पुराना है । इसके परिणाम भी, जो कोई बहुत सुखद नहीं रहे, इन्हें भोगने पड़े । समाजशास्त्रीय विकास का एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि किसी का विकास करने के लिए उसे आवश्यक औजारों की सुविधा उपलब्ध कराई जाए । उसके जीवन में अधिक हस्तक्षेप नहीं किया जाए और यह सारी प्रक्रिया धीमी, लंबी, स्वाभाविक और समय-साध्य होनी चाहिए अन्यथा आधुनिकीकरण की तीव्र आँधी में सब कुछ गड़बड़ हो सकता है और उससे नुकसान ही अधिक होता है ।
अफ्रीका में पश्चिमी देशों ने वहाँ मूल निवासियों का या तो शोषण किया या फिर धर्मान्तरण जो उनके लिए लाभदायक नहीं रहा । यहाँ के नीग्रो नस्ल के निवासी संसार के सबसे पुराने मानव हैं और इनके अपने परिवेश में विकसित हुई अपनी संस्कृति, सामाजिक जीवन, मूल्य और कला-कौशल रहे हैं मगर विकसित औजारों, सेनाओं और शक्ति-संपन्न नस्ल के शासकों ने इन्हें मानव का दर्ज़ा भी नहीं दिया । योरप ने अफ्रीका के खनिज पदार्थों और कृषि उत्पादों का अपने विकास के लिए शोषण किया और यही करण है कि यह महाद्वीप आज भी विपन्न बना हुआ है । वहाँ की बुश-मैन जाति के लोगों का तो अंग्रेज लोग एक जंगली जानवर की तरह शिकार तक किया करते थे ।
यदि हम अपने यहाँ के आदिवासियों की बात करें तो पाएँगे कि यहाँ के शहरी लोगों ने इनके भोलेपन का फायदा उठाकर इनके उत्पादों को सस्ता ख़रीदा, खूब धन कमाया और इनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा किया और इन्हें विस्थापित होने और शहरों में सस्ते मजदूरों के रूप में भटकने के लिए विवश कर दिया । वर्तमान में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की समस्या के मूल में भी यही कारण है भले ही आज इस समस्या का रूप विकृत और विशाल हो गया है ।
जिन तथाकथित आदिवसियों का आरक्षण के कारण विकास हो गया है, जो संगठित हो गए हैं वे अब लगातार लाभ उठाए चले जा रहे हैं और अपने वोट-बैंक के बल पर सत्ता का भयादोहन कर रहे हैं मगर शेष आदिवासियों की हालत अच्छी नहीं है । उनके नाम पर योजनाएँ बनती हैं, बजट आता है जिसे नेता और अधिकारी खा जाते हैं ।
कोई चार दशक पहले मध्य प्रदेश के एक अधिकारी ब्रह्मदत्त शर्मा ने अधिकारियों द्वारा आदिवासियों के शोषण का मामला उठाया था मगर कोई कार्यवाही तो दूर उसी को चतुर अधिकारियों ने मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित करवा दिया । आज भी भोले-भाले और भले आदिवासियों के श्रम, संसाधन और यौवन का शोषण जारी है । इनके नाम पर भेजी गई वस्तुएँ भी इन्हें नहीं मिलतीं । यह भी किसी से छुपा नहीं है आज भी आदिवासी इलाकों की लड़कियाँ शहरों के वेश्यालयों में बेची जाती है ।
इन इलाकों में जाने वाले कोई न तो तीर्थयात्री हैं और न ही कोई अध्यात्मिक प्राणी या समाज-शास्त्री वरन तमाशबीन, चक्षु-भोग करने वाले या फिर आदिवासियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को सस्ते में खरीद कर धंधा करने वाले लोग हैं ।
ठीक है कि विदेशों में यह वीडियो लीक होने से हमें शर्म अनुभव हो रही है परन्तु क्या इन आदिवासियों के प्रति हमारी स्वयं की दृष्टि भी मानवीय है ? या हम भी इनको एक तमाशे के रूप में ही देखते हैं । क्या हम भी इनके उत्पाद, चित्र, वीडियो बेचकर या इन पर किताब लिखकर कहीं रोमांच तो नहीं बेच रहे ?
इस प्रसंग में सत्तर के दशक में प्रशासन द्वारा संपर्क के दौरान पोर्ट ब्लेयर लाए गए और बाद में अपने इलाके में पहुँचा दिए गए, दो-तीन जारवा युवकों की जीवन शैली का एक उदाहरण विचारणीय है । इन्हें जब खाने के लिए कुछ केले दिए गए तो इन्होंने वे अपने में सब से बड़े व्यक्ति को दे दिए और फिर उसी ने सब को केले वितरित किए । इनमें से एक को जब दस्त लगने लगे तो उन्होंने केले के छिलके भून कर खाए जिससे दस्त ठीक हो गए । इससे हमें समझना चाहिए कि इनकी भी अपनी एक समाज-परिवार व्यवस्था है, जीवन-मूल्य और समस्याओं के समाधान हैं जिनसे यदि चाहें तो हम भी स्वावलंबन, अस्तेय, अपरिग्रह और सहयोग सीख सकते हैं ।
ये कोई हिंस्र, जंगली जानवर या तमाशा नहीं है ।
फ़िलहाल तो अनुभव यही है कि जिन-जिन के भी विकास या संरक्षण की योजनाएँ बनीं हैं उनका हश्र कोई अच्छा नहीं हुआ - चाहे राष्ट्रीय पक्षी हो, राष्ट्र भाषा हो, पर्यावरण हो, गंगा हो, गिद्ध हो, बाघ हो, शिक्षा हो, राष्ट्रीय एकता हो, संस्कृति हो, धार्मिक और जातीय सद्भाव हो या ऐसा ही कुछ और ।
[1979 से 1985 तक लेखक पोर्ट ब्लेयर में हिन्दी अध्यापन में संलग्न था ]
१४ जनवरी २०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
मान्यवर, सबसे घटिया मानसिकता के लोग और नैतिक पतन से ग्रसित हो चुके हैं हम. सबसे महान होने का नारा जरूर गढ़ लिया है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी।
ReplyDeletei have been an admirer and regular reader of your blog. i am in Uk and Guardian had published this report first. your blog is very true and also informative. i am sure you had a good time in Andman in 80s
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