प्रिय राहुल जी,
नमस्ते । पूर्व प्रधान मंत्री और आपके पिता राजीव जी के हत्यारों की रिहाई के समाचार ने आपको ही नहीं पूरे देश के संवेदनशील लोगों को क्षुब्ध और निराश किया है । आपके दुःख को समझना अत्यंत सरल है । केवल २१ वर्ष की आयु में सर से पिता का साया उठ जाना कितना बड़ा सदमा होता है यह कोई भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकता है । कहावत है- जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई । मीरा ने भी कहा है- घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होय । हमारी पूरी संवेदना और सहानुभूति आपके साथ है ।
आपने कहा- जब एक पूर्व प्रधान मंत्री को न्याय नहीं मिल सका तो एक सामान्य आदमी का क्या हाल होता होगा । सामान्य आदमी के सच को जानने के बाद और उसे ईमानदारी से अनुभव करने के बाद आदमी राजा नहीं रह पाता, सिद्धार्थ की तरह राज-पाट छोड़कर बुद्ध हो जाता है । आपने सामान्य आदमी के जीवन का सच जाना ही नहीं । कैसे जानते, जानने का मौका ही नहीं मिला । आजकल राम, कृष्ण, चन्द्रगुप्त के समय जैसे राजा कहाँ होते हैं जो ऋषियों के आश्रम में रहकर, भिक्षाटन करके, जनता के बीच रहते हुए सिंहासन तक पहुँचते थे । आजकल तो राजकुमार महलों में रहकर, विदेशों में पढ़कर, बिना जनता को जाने गद्दी पर स्थापित कर दिए जाते हैं । आज देश में सभी पार्टियों में नेताओं के परिवार वालों को देख लीजिए । सभी बिना किसी अनुभव, योग्यता और सामान्य जन के संपर्क में आए बिना ही राजनीति और लाभ के पदों पर जमे हुए हैं । उनके पास समाधान के रूप में ब्रेड की जगह केक का विकल्प है । जो नीचे से उठकर ऊपर पहुँचे हैं उनमें भी अधिकतर अपने गुणों के बल पर कम और औद्योगिक घरानों और गुंडों के बल पर ज्यादा आश्रित रहे हैं । जो अपने बल पर पहुँचते हैं उन्हें भी भ्रष्ट राजनीति भ्रष्ट होने के लिए विवश कर देती है या वे खुद ही दुखी होकर छोड़ जाते हैं । भले और वास्तव में जन के बीच से निकले, संवेदनशील आदमी का राजनीति में बने रहना असंभव है ।
हम आपकी व्यक्तिगत बात नहीं कर रहे हैं लेकिन यह सच है कि हर आदमी की दृष्टि को उसका व्यवसाय प्रभावित अवश्य करता है । सच्चे सेवकों की बात हम नहीं करते । सुरेश आमटे आदिवासियों के बीच निस्वार्थ भाव से काम करते हैं । उनका धर्म है कि सभी लोग स्वस्थ रहें लेकिन जिसने पैसे कमाने के लिए दवाई का कारखाना लगाया, अस्पताल खोला है या जिसने केवल पैसे कमाने के लिए डाक्टरी पढ़ी है वे सभी यही चाहेंगे कि अधिक से अधिक लोग बीमार हों, उन्हें महँगी और अनावश्यक दवा लिखी जाए और अधिक से अधिक धन कमाया जाए । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ वर्षों पहले स्वाइन फ्लू का डर फैलाया और फिर एक विशेष कम्पनी की महँगी दवाइयाँ विभिन्न देशों को भेजी गई । इसकी सिफारिश करने वाले वे अधिकारी थे जिनके इन दवा कंपनियों में शेयर थे या वे इन कंपनियों में मैनेजर रह चुके थे । गरीब आदमी यदि उनके सामने तड़प रहा है लेकिन उसके पास देने को पैसे नहीं हैं तो वे उसका इलाज नहीं करेंगे । संवेदना गई भाड़ में । ट्यूशनिया मास्टर स्कूल में नहीं पढ़ाएगा । यदि ऐसा करेगा तो ट्यूशन कौन पढ़ेगा ? राजनीति वाले भी जीतने या विपक्षी को बदनाम करने के लिए मुद्दे ढूँढ़ते हैं, सामान्य आदमी की पीड़ा का उनके लिए इतना ही महत्त्व है वरना सहानुभूति और जन-कल्याण की खाज चुनाव के दिनों में ही क्यों चलती है ।
गाँधी जी इसीलिए कांग्रेस में शामिल होना चाहने वाले हर व्यक्ति को पहले कुछ महीनों अपने आश्रम में रखते थे जिससे वह सामान्य आदमी बन सके । आज की तरह यह नहीं कि जिधर भी पद और पैसा दिखा उसी दल की टोपी पहन ली और नाम दे दिया 'आत्मा की आवाज़' ।
हमने तो देश की स्वतंत्रता से लेकर आज तक यही देखा है कि न्याय, सुविधाएँ और मानवाधिकार सब कुछ शक्तिशालियों, नेताओं, सेठों और गुंडों के लिए है । सामान्य आदमी को कोई भी छोटा-मोटा कर्मचारी, अधिकारी और नेता गरिया देता है जब कि गुंडों, नेताओं पर कोई कानून नहीं चलता । नेताओं को पुलिस बड़े आदर से जेल में ले जाती है । जेल में ऐसे नेताओं के पैर छूते हुए पुलिस अधिकारियों के फोटो आपको भी याद होंगे । जेल में नेताओं को उनके मनपसंद भोजन, फोन, अखबार की सुविधा, जन्म दिन मनाने और रंडियाँ नचवाने की सुविधा मिलती है । सामान्य आदमियों को ऐसा नहीं तो कम से कम दुर्व्यवहार तो न मिले । क्या कभी इतनी गारंटी भी मिलेगी ?
जाति, आरक्षण-व्यवस्था और पार्टी पोलिटिक्स के चलते कितने लोगों के साथ और कैसा अन्याय होता है, उन्हें कैसी पीड़ा झेलनी पड़ती है इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते । ट्रांसफर, प्रमोशन और नौकरी में कैसे-कैसे और किस तरह के भेद-भाव और अन्याय होते हैं उसका पता तो आपको तब चलता जब आप सामान्य आदमी के रूप में नौकरी कर रहे होते । हमने १९८१ में जयपुर में अजमेरी गेट पर पुलिस कार्यालय के सामने एक यातायात अधिकारी को एक सिरे से वाहनों को रोकते और एक जाति विशेष के लोगों के अतिरिक्त शेष सभी वाहन वालों को परेशान करते देखा है । आपको इसकी कोई कल्पना नहीं है । कभी, वास्तव में इस तरह वेश बदलकर कि कोई पहचान न सके, जनता में जाइए और फिर देखिए कि देश की क्या हालत है । इस समय देश, गरीब, सामान्य आदमी, विकास, सेवा आदि की जो बातें चल रही हैं उसका एक कारण तो है चुनाव की मजबूरी और दूसरा यह केजरीवाल का 'आम आदमी' वरना किसे फुर्सत है धन सूँतने और ऐश करने से ।
'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे'
हम तो चाहते हैं कि भगवान आपको वह सौभाग्य प्रदान करे कि आप वास्तव में 'वैष्णव जन' बनें और लोगों की पीड़ा को समझें । तब आपको कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । सच्चा प्रेम तो पशु भी समझता है । और देश का आदमी अभी पशु से भी गया बीता नहीं हो गया है ।
जहाँ तक न्याय की बात है तो छोटे मियाँ, बस इतना समझ लीजे कि सामान्य आदमी के लिए न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बँधी हुई है लेकिन जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति सामने आता है तो वह चुपके से पट्टी खिसका कर, तिरछी नज़र से भाँप लेती है कि कैसे व्यवहार करना है । और फिर उसका तराजू बिना किसी बाट (वज़न का माप) रखे हुए एक तरफ झुका हुआ है । जब साला तराजू में ही पासंग हो तो पूरा कैसे तुलेगा ?
हम आपकी भावनाओं को समझते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में आम आदमी के प्रति हो रहे सब प्रकार के अन्यायों के प्रति आपकी यह संवेदना और भावना बनी रहेगी । जय ललिता की छोडिए, उनकी भी अपनी राजनीतिक मजबूरी है ।
कभी समय मिले तो स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना वाले माफ़िया द्वारा मारे गए सत्येन्द्र दुबे, महाराष्ट्र के तेल माफ़िया द्वारा मारे गए यशवंत सोनवने और बिहार में सैंकड़ों लोगों से सामने मार डाले गए आंध्र के जी. कृष्णैया को मिले न्याय और नेताओं द्वारा लज्जित किए गए अशोक खेमका और दुर्गाशक्ति नागपाल के बारे में भी सोचिएगा । आपकी न्यायप्रियता क्या कहती हैं ? वैसे राजीव गाँधी जी के सामने तो ये कीड़े-मकोड़े हैं ।
चलिए, अच्छा हुआ, हमारा पात्र समाप्त होते-होते चालीस घंटे के रिकार्ड तोड़ विलंब के बाद ही सही, न्याय मिला तो ।
२१ फरवरी २०१४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
नमस्ते । पूर्व प्रधान मंत्री और आपके पिता राजीव जी के हत्यारों की रिहाई के समाचार ने आपको ही नहीं पूरे देश के संवेदनशील लोगों को क्षुब्ध और निराश किया है । आपके दुःख को समझना अत्यंत सरल है । केवल २१ वर्ष की आयु में सर से पिता का साया उठ जाना कितना बड़ा सदमा होता है यह कोई भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकता है । कहावत है- जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई । मीरा ने भी कहा है- घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होय । हमारी पूरी संवेदना और सहानुभूति आपके साथ है ।
आपने कहा- जब एक पूर्व प्रधान मंत्री को न्याय नहीं मिल सका तो एक सामान्य आदमी का क्या हाल होता होगा । सामान्य आदमी के सच को जानने के बाद और उसे ईमानदारी से अनुभव करने के बाद आदमी राजा नहीं रह पाता, सिद्धार्थ की तरह राज-पाट छोड़कर बुद्ध हो जाता है । आपने सामान्य आदमी के जीवन का सच जाना ही नहीं । कैसे जानते, जानने का मौका ही नहीं मिला । आजकल राम, कृष्ण, चन्द्रगुप्त के समय जैसे राजा कहाँ होते हैं जो ऋषियों के आश्रम में रहकर, भिक्षाटन करके, जनता के बीच रहते हुए सिंहासन तक पहुँचते थे । आजकल तो राजकुमार महलों में रहकर, विदेशों में पढ़कर, बिना जनता को जाने गद्दी पर स्थापित कर दिए जाते हैं । आज देश में सभी पार्टियों में नेताओं के परिवार वालों को देख लीजिए । सभी बिना किसी अनुभव, योग्यता और सामान्य जन के संपर्क में आए बिना ही राजनीति और लाभ के पदों पर जमे हुए हैं । उनके पास समाधान के रूप में ब्रेड की जगह केक का विकल्प है । जो नीचे से उठकर ऊपर पहुँचे हैं उनमें भी अधिकतर अपने गुणों के बल पर कम और औद्योगिक घरानों और गुंडों के बल पर ज्यादा आश्रित रहे हैं । जो अपने बल पर पहुँचते हैं उन्हें भी भ्रष्ट राजनीति भ्रष्ट होने के लिए विवश कर देती है या वे खुद ही दुखी होकर छोड़ जाते हैं । भले और वास्तव में जन के बीच से निकले, संवेदनशील आदमी का राजनीति में बने रहना असंभव है ।
हम आपकी व्यक्तिगत बात नहीं कर रहे हैं लेकिन यह सच है कि हर आदमी की दृष्टि को उसका व्यवसाय प्रभावित अवश्य करता है । सच्चे सेवकों की बात हम नहीं करते । सुरेश आमटे आदिवासियों के बीच निस्वार्थ भाव से काम करते हैं । उनका धर्म है कि सभी लोग स्वस्थ रहें लेकिन जिसने पैसे कमाने के लिए दवाई का कारखाना लगाया, अस्पताल खोला है या जिसने केवल पैसे कमाने के लिए डाक्टरी पढ़ी है वे सभी यही चाहेंगे कि अधिक से अधिक लोग बीमार हों, उन्हें महँगी और अनावश्यक दवा लिखी जाए और अधिक से अधिक धन कमाया जाए । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ वर्षों पहले स्वाइन फ्लू का डर फैलाया और फिर एक विशेष कम्पनी की महँगी दवाइयाँ विभिन्न देशों को भेजी गई । इसकी सिफारिश करने वाले वे अधिकारी थे जिनके इन दवा कंपनियों में शेयर थे या वे इन कंपनियों में मैनेजर रह चुके थे । गरीब आदमी यदि उनके सामने तड़प रहा है लेकिन उसके पास देने को पैसे नहीं हैं तो वे उसका इलाज नहीं करेंगे । संवेदना गई भाड़ में । ट्यूशनिया मास्टर स्कूल में नहीं पढ़ाएगा । यदि ऐसा करेगा तो ट्यूशन कौन पढ़ेगा ? राजनीति वाले भी जीतने या विपक्षी को बदनाम करने के लिए मुद्दे ढूँढ़ते हैं, सामान्य आदमी की पीड़ा का उनके लिए इतना ही महत्त्व है वरना सहानुभूति और जन-कल्याण की खाज चुनाव के दिनों में ही क्यों चलती है ।
गाँधी जी इसीलिए कांग्रेस में शामिल होना चाहने वाले हर व्यक्ति को पहले कुछ महीनों अपने आश्रम में रखते थे जिससे वह सामान्य आदमी बन सके । आज की तरह यह नहीं कि जिधर भी पद और पैसा दिखा उसी दल की टोपी पहन ली और नाम दे दिया 'आत्मा की आवाज़' ।
हमने तो देश की स्वतंत्रता से लेकर आज तक यही देखा है कि न्याय, सुविधाएँ और मानवाधिकार सब कुछ शक्तिशालियों, नेताओं, सेठों और गुंडों के लिए है । सामान्य आदमी को कोई भी छोटा-मोटा कर्मचारी, अधिकारी और नेता गरिया देता है जब कि गुंडों, नेताओं पर कोई कानून नहीं चलता । नेताओं को पुलिस बड़े आदर से जेल में ले जाती है । जेल में ऐसे नेताओं के पैर छूते हुए पुलिस अधिकारियों के फोटो आपको भी याद होंगे । जेल में नेताओं को उनके मनपसंद भोजन, फोन, अखबार की सुविधा, जन्म दिन मनाने और रंडियाँ नचवाने की सुविधा मिलती है । सामान्य आदमियों को ऐसा नहीं तो कम से कम दुर्व्यवहार तो न मिले । क्या कभी इतनी गारंटी भी मिलेगी ?
जाति, आरक्षण-व्यवस्था और पार्टी पोलिटिक्स के चलते कितने लोगों के साथ और कैसा अन्याय होता है, उन्हें कैसी पीड़ा झेलनी पड़ती है इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते । ट्रांसफर, प्रमोशन और नौकरी में कैसे-कैसे और किस तरह के भेद-भाव और अन्याय होते हैं उसका पता तो आपको तब चलता जब आप सामान्य आदमी के रूप में नौकरी कर रहे होते । हमने १९८१ में जयपुर में अजमेरी गेट पर पुलिस कार्यालय के सामने एक यातायात अधिकारी को एक सिरे से वाहनों को रोकते और एक जाति विशेष के लोगों के अतिरिक्त शेष सभी वाहन वालों को परेशान करते देखा है । आपको इसकी कोई कल्पना नहीं है । कभी, वास्तव में इस तरह वेश बदलकर कि कोई पहचान न सके, जनता में जाइए और फिर देखिए कि देश की क्या हालत है । इस समय देश, गरीब, सामान्य आदमी, विकास, सेवा आदि की जो बातें चल रही हैं उसका एक कारण तो है चुनाव की मजबूरी और दूसरा यह केजरीवाल का 'आम आदमी' वरना किसे फुर्सत है धन सूँतने और ऐश करने से ।
'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे'
हम तो चाहते हैं कि भगवान आपको वह सौभाग्य प्रदान करे कि आप वास्तव में 'वैष्णव जन' बनें और लोगों की पीड़ा को समझें । तब आपको कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । सच्चा प्रेम तो पशु भी समझता है । और देश का आदमी अभी पशु से भी गया बीता नहीं हो गया है ।
जहाँ तक न्याय की बात है तो छोटे मियाँ, बस इतना समझ लीजे कि सामान्य आदमी के लिए न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बँधी हुई है लेकिन जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति सामने आता है तो वह चुपके से पट्टी खिसका कर, तिरछी नज़र से भाँप लेती है कि कैसे व्यवहार करना है । और फिर उसका तराजू बिना किसी बाट (वज़न का माप) रखे हुए एक तरफ झुका हुआ है । जब साला तराजू में ही पासंग हो तो पूरा कैसे तुलेगा ?
हम आपकी भावनाओं को समझते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में आम आदमी के प्रति हो रहे सब प्रकार के अन्यायों के प्रति आपकी यह संवेदना और भावना बनी रहेगी । जय ललिता की छोडिए, उनकी भी अपनी राजनीतिक मजबूरी है ।
कभी समय मिले तो स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना वाले माफ़िया द्वारा मारे गए सत्येन्द्र दुबे, महाराष्ट्र के तेल माफ़िया द्वारा मारे गए यशवंत सोनवने और बिहार में सैंकड़ों लोगों से सामने मार डाले गए आंध्र के जी. कृष्णैया को मिले न्याय और नेताओं द्वारा लज्जित किए गए अशोक खेमका और दुर्गाशक्ति नागपाल के बारे में भी सोचिएगा । आपकी न्यायप्रियता क्या कहती हैं ? वैसे राजीव गाँधी जी के सामने तो ये कीड़े-मकोड़े हैं ।
चलिए, अच्छा हुआ, हमारा पात्र समाप्त होते-होते चालीस घंटे के रिकार्ड तोड़ विलंब के बाद ही सही, न्याय मिला तो ।
२१ फरवरी २०१४
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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