Feb 23, 2014

पृष्ठभूमि का प्रदर्शन

ज़नाब आज़म खान,
अस्सलाम वालेकुम । आप वजीर हैं और आज़म भी फिर पता नहीं इस देश ने आपको वज़ीरेआज़म क्यों नहीं बनाया ? वैसे बनाने से क्या होता है । आदमी में दम हो तो पद न होते हुए भी हर हालत में खुद को साबित कर ही देता है । आपने बार-बार खुद को साबित किया है और जमकर साबित किया है । 


कश्मीर में राष्ट्र गान का अपमान किया जाता है, तिरंगा झंडा जलाया जाता है, वज़ीरेआज़म मनमोहन सिंह जब वार्ता करने के लिए कश्मीर जाते हैं तो उनको बैरंग लौटा दिया जाता है, फिर भी वे कुछ नहीं बोलते, उलटे कश्मीर के नेताओं और आतंकवादियों को जेब खर्च के लिए हजारों करोड़ का पॅकेज दे आते हैं । वे जानते हैं कि कश्मीर में उनकी वज़ीरेआज़मी नहीं चलती फिर भी सच नहीं कह सकते हैं लेकिन आपने स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट कर दिए कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है । इसे कहते है जिगरा और कड़वा सच बोलने की हिम्मत । अगर आपमें दम नहीं होता तो क्या मुलायम आपको निकाल कर फिर मनाकर वापिस लाते ?

जब 'रामपुर का लक्ष्मण' फिल्म बनी तो हमें लगा कि ये निर्देशक ऐसी ऐतिहासिक गलतियाँ क्यों करते हैं ? अरे, 'लक्ष्मणगढ़ का लक्ष्मण' नाम नहीं रख सकते थे क्या ? और मान लो यदि रामपुर से इतना ही प्रेम था तो 'रामपुर का राम' नाम रख सकते थे लेकिन नहीं, कुछ सरप्राइज़ होना चाहिए ना । जन्म स्थान से यदि इतना ही प्रेम था तो पिताजी आपका नाम राम खान रख सकते थे । आजकल तो सब चलता है । लेकिन कोई हिन्दू अपना नाम ज़हूरबक्श रख सकता है लेकिन सच्चे मुसलमान के लिए यह संभव नहीं है । तो फिर रामपुर का नाम ही बदल आज़मगढ़ रख देते । लोकतंत्र में नाम बदलने से ही बड़ा जनकल्याण हो जाता है जैसे पूना का पुणे, कलकत्ता का कोलकाता, बनारस का वाराणसी, बंबई का मुम्बई, गाज़ियाबाद का गौतम बुद्ध नगर और फिर गाज़ियाबाद । यदि यह संभव नहीं था तो आपकी पैदाइश के समय आज़मगढ़ चले जाते । खैर, नाम में क्या रखा है ? बेईमानी तो 'हरिश्चंद्र' नाम रखकर भी की जा सकती है ।

कुछ दिनों पहले आपकी सात भैंसें खो गई थीं या घूमने चली गई थीं लेकिन आपका सुशासन देखिए कि दो दिन बाद ही वापिस लौट आईं । लालू जी वैसे तो बहुत तड़ी मारते हैं लेकिन उनकी 'चारा युग' की दुधारू भैंसें ऐसे गायब हुईं कि आज तक नहीं मिल पाईं । हमें याद है १९८१ में बंगाल के राज्यपाल गोविन्द नारायण सिंह की इज़राइली नस्ल की एक बकरी चोरी हो गई लेकिन आज तक नहीं मिली । अज्ञात व्यक्तियों के नाम रिपोर्ट लिखवाई गई । कुछ दिनों बाद चारखाने की एक लुंगी बरामद करके फ़ाइल दाखिल दफ्तर कर दी गई । ऐसे 'सिंहों' का क्या ? आपके नाम के साथ इस्लाम के कारण 'सिंह' तो नहीं लगाया जा सकता लेकिन 'शेर' तो लगा सकते हैं । आज़म खान शेर या शेरे रामपुर आज़म खान । वैसे इसके बिना भी आपका रुतबा धाँसू है ।

अब देखिए, आज ही यू.पी. असेम्बली में कुछ जनसेवकों (एम्.एल.ए.) ने कपड़े उतार दिए । लोग कहते हैं कि इससे लोकतंत्र शर्मिंदा हुआ । अरे मियाँ, लोकतंत्र का शर्मिंदगी से क्या वास्ता ? जितना नंगा, उतना ही बड़ा नेता । आजकल तो छोटा मोटा वार्ड मेम्बर और सरपंच तक सड़क से संसद तक निर्वस्त्र घूमता है । किसी के बाप में दम नहीं कि उसका कुछ बिगाड़ ले । सबको चुनाव लड़ना है तो इन्हें बर्दाश्त करना सब की मज़बूरी है । आपने इस घटना पर अपने लोकतांत्रिक विचारों को आगे बढ़ाते हुए जो वक्तव्य दिया वह आपके अलावा और कोई क्या खाकर दे सकता था । आपने कहा- 'नीचे वाले कपड़े उतार देते तो पीछे से भी दर्शन हो जाते । मर्दानगी का पता चल जाता' । वैसे आप उनकी पृष्ठभूमि देखकर ही क्या करते । लोकतंत्र में सबकी पृष्ठभूमि लगभग एक जैसी ही होती है । कपड़े उतारें या नहीं, हमें तो इस हम्माम में सब एक जैसे ही नज़र आते हैं ।
जहाँ तक पृष्ठभूमि के प्रदर्शन का प्रश्न है तो काबिल लोग वह काम शब्दों से भी कर दिखाते हैं ।

आदाब ।
१९ फरवरी २०१४


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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