Nov 23, 2015

वैज्ञानिकता : भविष्य के धर्म का आधार

 वैज्ञानिकता : भविष्य के धर्म का आधार 

जिस तरह अंतरिक्ष में सभी पिंडों को अंतरिक्ष ने घेर रखा है |इन पिंडों के लिए अंतरिक्ष के अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं है |जल के समस्त जीवों के लिए जल में ही उत्पत्ति, जीवन और समापन हैं |उनके लिए इसके अतिरिक्त कोई गति नहीं है वैसे ही समस्त जीवों के लिए इस सृष्टि के अतिरिक्त कहीं कोई गति नहीं है |यदि जीवों के लिए इसके अतिरिक्त किसी लोक की कोई बात की जाती है तो वह विवादास्पद और अप्रामाणिक है |

अन्य जीवों की चेतना का पता नहीं लेकिन मनुष्य के लिए सुरक्षा, जीवनयापन के उपादान और विनाश के  सभी दृश्य/अदृश्य कारक इसी सृष्टि में व्याप्त हैं | वह उसके विनाशक, आश्चर्यकारक, मोहक सभी रूपों को समय-समय पर देखता और अनुभव करता है |वही उसके लिए परमशक्तिशाली और अनन्य है | उसने अपने इन अनुभवों, कृतज्ञता और भय को भांति-भांति से अभिव्यक्ति प्रदान की है |वेदों में विशेषरूप से सामवेद में प्रकृति/सृष्टि के इसी गीत-संगीत का भावलोक है |

इसके नियंता के रूप में जिस परम आत्म की संकल्पना है वह भी इस सृष्टि/प्रकृति से परे नहीं है |विभिन्न देवों और शक्ति केन्द्रों  (ब्रह्मा, विष्णु और शिव ) की कल्पना/स्थापना भी इसी ज्ञान/विज्ञान के रूप  हैं | सभी समाजों में यह सब किसी न किसी रूप में विद्यमान है | इसी क्रम में दृश्य के साथ अदृश्य जगत की अवधारणा भी सामने आती है |और इस अदृश्य लोक में वैचारिक लोगों की मनमानी चलती है जिसमें उनका अपना अज्ञान और स्वार्थ भी शामिल होता है |

चूंकि संचार और आवागमन के  साधनों के अभाव में तथा प्राकृतिक बाधाओं के कारण अलग-अलग द्वीपों में बंटे इस धरती के विभिन्न समाजों ने अपना-अपना  विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान विकसित किया | इसमें उनके विशिष्ट रिवाज, खान-पान, पहनावा भी शामिल थे जो उनके परिवेश और परिस्थितियों की उपज थे |उनका यह ज्ञान पूर्ण नहीं था लेकिन नितांत गलत भी नहीं था |विभिन्न समुदायों के संवाद के अभाव में उनका ज्ञान सीमित और एकांगी रहा आया |इसी कारण कालांतर में उसमें रूढ़ता, कट्टरता आती गई जिसे उन समुदायों ने अपनी अस्मिता और पहचान बना लिया और उसे कायम रखने के लिए संघर्ष करने को  ही धर्म मान लिया |ऐसे धर्म-युद्धों के अनेक वर्णन विश्व के सभी भागों से मिलते हैं |

जिस प्रकार आज बड़े आर्थिक व वर्चस्व के  हितों के लिए विभिन्न देशों में संघर्ष हैं वैसे अतिप्राचीन काल में भी पशुधन, खाद्य सामग्री, चारागाह अदि के लिए संघर्ष होते थे |विजित और विजेता होते थे |उनके अपने-अपने मनोविज्ञान होते थे |विजेता अपने को श्रेष्ठ और विजित को सब प्रकार से निकृष्ट सिद्ध करते थे |उनके साथ गुलाम और मालिक का रिश्ता रखते थे |विजित उनके प्रति घृणा और उपेक्षा भाव को जीवित रखने के लिए उन कुंठाओं को अपने धर्म और संस्कृति के मूल तत्त्वों में शामिल कर लेता था |कहीं -कहीं इन्हें संहिता-बद्ध भी कर दिया गया |

वास्तव में इनका मानव के विकास और सुख-दुःख से कोई संबंध नहीं होता |हाँ, अपने वर्चस्व, नेतृत्त्व के बल पर अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि करने वालों के लिए ये अस्मिताएं/धर्म अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं |सामान्य जन का कहीं भी, कभी भी , किसी से भी संघर्ष का कारण यदि रहा है भी तो वह जीवन यापन के सामान्य साधनों को लेकर ही रहा है अन्यथा सामान्य जन शांति और प्रेम से ही रहना चाहते हैं |उनकी जीवन से बहुत बड़ी आशाएँ और अपेक्षाएं नहीं होतीं |इसलिए वे किसी भी अशांति या युद्धों के कारण नहीं होते |उनके लिए तो धर्म का अर्थ कर्त्तव्य, जीवन का सहज उल्लास और उत्सव होता है |वे मिल बांटकर जीवन के सुखों-दुखों को भोगना चाहते हैं |अब यह समाज के विचारशील लोगों पर निर्भर है कि वे अपने समाज के सामने कैसे मूल्य और धर्म का कैसा स्वरुप प्रस्तुत करते हैं ?


विश्व के सभी क्षेत्रों और कालों के विभिन्न धर्मो और संप्रदायों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनमें सदाचार, नीति और कर्त्तव्य संबंधी सभी तत्त्व जैसे सहयोग, उदारता, करुणा, प्रेम आदि समान हैं |इनके बारे में कहीं विवाद और विरोध नहीं है लेकिन कुछ महत्त्वहीन मुद्दों जैसे खानपान, पहनावा, दाढ़ी-मूँछ, पर्दा प्रथा, धर्म-स्थलों, पूजा पद्धतियों आदि में बहुत भिन्नता है और प्रायः वही विवाद और झगडे का कारण भी दिखती हैं |
सभी धर्मों का अध्ययन करके उन्हें विवेक सम्मत और वैज्ञानिक बनाया जा सकता है |

सभी इस बात पर सहमत हैं कि ईश्वर एक है, उसका कोई निश्चित स्वरुप नहीं है, सभी जीव उसके उपजाए हुए हैं | इसलिए इस एकता को स्वीकार करते हुए, उसे आधार बनाते हुए, अब तक के विश्व के सभी धर्मो की कमियों को  इस ज्ञान और विज्ञान के आधार पर कसा जाना चाहिए |इसे विज्ञान ने तत्त्वदर्शन का नाम दिया है और भारत में जिसे आदि शंकराचार्य ने अपने अद्वैत-दर्शन के रूप में व्याख्यायित किया है |

रामचरित मानस के उत्तर कांड में भगवान राम काकभुशुण्डी को चेतना  की विभिन्न स्थितियों से क्रमिक विकास के बारे में बताते हुए कहते हैं- मुझे जीवों में मनुष्य, मनुष्यों में द्विज, द्विजों में वेदज्ञ, वेदज्ञों में विरक्त, विरक्तों में ज्ञानी और ज्ञानियों में विज्ञानी सबसे अधिक प्रिय हैं |इस प्रकार समस्त मानव चेतना का सर्वश्रेष्ठ और निर्विवाद रूप विज्ञान में मिलता है क्योंकि ज्ञान निरपेक्ष, निर्विवाद और सत्य होता है | वह ज्ञान की इतर, श्रेष्ट और तार्किक व्याख्या होने पर उसे बिना किसी विरोध और विवाद के स्वीकार कर लेता है |यही विज्ञान की श्रेष्ठता का आधार है |

इसी के आधार पर किसी सर्व स्वीकार्य धर्म, सिद्धांत या विचार या नियम की कल्पना की जा सकती है |संभवतः ईमानदारी से विचार किया जाए तो इसे कोई अस्वीकार नहीं करेगा |किसी के निजी या व्यक्तिगत स्वार्थों में बाधा आने की स्थिति में  बात और है जैसे कि सूर्य और पृथ्वी के बारे में तत्कालीन वैज्ञानिक स्थापनाओं में चर्च ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में दखल और अंततः अपनी सत्ता के खिसकने के डर के कारण इसका विरोध किया था |आज किसी को भी इस स्थापना के बारे में ऐतराज़ नहीं है |इसी लिएविज्ञान के सभी नियम सभी धर्मों वाले देशों में निर्विरोध स्वीकार्य हैं |कहीं की भी पुस्तकों में विज्ञान के दो तरह सिद्धांत नहीं होते |विज्ञान ईसाई,हिंदी, यहूदी, मुसलमान, जैन बौद्ध नहीं होता |वह रिलीजन या मज़हब के आधार पर किसी नस्ल, रंग, भाषा और जीवन के स्वरूप कमतर या बेहतर नहीं आँकता |वह जीवन की दृष्टि से अपने फैसले और प्राथमिकताएं निर्धारित करता है |वही सच्चा धर्म और दर्शन है |

आगे आने वाले समय में निश्चित रूप से विज्ञान का समावेश और उसे स्वीकार करके चलने वाला धर्म ही टिकेगा |अब धर्म का भविष्य अंधविश्वास, कुतर्क और धर्म के नाम पर घृणा के बल पर नहीं चल सकेगा | यह  बात और है कि सभी धर्मों के भले और शांति-प्रिय लोग आज असहिष्णुता और अपराधी वृत्ति के धर्मांध लोगों से डर कर चुप हैं लेकिन मन ही मन सभी ऐसे ही किसी विज्ञान और सत्य आधारित, तथ्यात्मक धर्म को पसंद करते हैं |इसी को मानव-धर्म भी कह सकते हैं |

आज के इस भयप्रद, अशांत और असहिष्णु समय में ऐसा विज्ञान सम्मत धर्म  ही शांति, सद्भाव और प्रेम का उजाला दिखा सकता है |ऐसे में सबको अपनी अपनी कट्टरता, पूर्वाग्रह, श्रेष्ठता और हीनता ग्रंथि, भौतिक स्वार्थ छोड़ने के बारे में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से काम करना होगा |ऐसा नहीं चलेगा कि कुछ विश्व शांति की आड़ में हथियारों के व्यापार,जोड़-तोड़ और कूटनीति के नाम अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं और अन्यों से विज्ञान सम्मत धर्म के नाम पर अतिरिक्त उदारता और छूट की आशा करें |

किसी बड़े और पवित्र वैश्विक-यज्ञ में सब को उदार भाव से अपने स्वार्थों और कुंठाओं की आहुति देनी होगी |याद रहे, किसी भी जंजीर की ताकत उतनी ही होती है जितनी उसकी किसी सबसे कमजोर कड़ी की होती है |










3 comments:

  1. really liked your blog. generally you have been writing in a lighter note but this is a serious thought and i believe Hindu dharm should start to lead on this. we should try to accommodate as much truth within and try to give away what is not true.

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    1. धन्यवाद, हमारा कुछ नहीं है, दुनिया में श्रेष्ठ लोगों द्वारा इतना कहा जा चुका है कि नया कहने को कुछ नहीं बचा |कमी शब्दों की नहीं, आचरण की है |आप आचरण की और बढ़ रहे हैं |आप धन्य हैं |

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  2. अापके लिखे ने हमारे मन को गहराई से प्रभावित किया हृै। धर्म को तो विज्ञान साम्मत होना ही चाहिये। हिन्दु धर्म को इस पेर पहल करनी चाहिये।

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