रूढ़ अर्थों से परे व्यवहार और आचरण
भरत राम के प्रति अगाध और अनन्य श्रद्धा रखते थे |उनकी अनुपस्थिति में कैकेयी ने उनके लिए दशरथ से अयोध्या का राज्य और राम के लिए वनवास माँगा |ननिहाल से अयोध्या आने पर उन्हें जो मर्मान्तक पीड़ा हुई और स्वयं पर एक कलंक सा अनुभव हुआ उससे स्वयं को विलग सिद्ध करते हुए वे कौशल्या से कहते हैं-
हे माता, माता,पिता और पुत्र हत्या करने वाले, स्त्रियों और बालक का वध करने,गायों और ब्राह्मणों से आवासों को जलाने,मित्र और राजा को ज़हर देने जैसे जो भी पातक (महापाप) उपपातक हैं मुझे हों यदि राम के वनवास मेरी सहमति रही हो |
मुझे ज्ञान बेचने और धर्म का दोहन करने वाले, चुगली करने वाले, कपटी, कुटिल,क्रोधी,कलहप्रिय,वेदों की निंदा करने वाले,सम्पूर्ण विश्व से विरोध मानने वाले,दूसरों के धन और स्त्री पर कुदृष्टि रखने वाले, परमार्थ विमुख पथ पर चलने वाले,श्रुति विरुद्ध आचरण करने वाले, वेश बदलकर दूसरों को छलने वाले की जो गति होती है, भगवान शिव वही गति (दुर्गति) मुझे दें |
ये सभी पाप या अपराध समस्त सृष्टि के लिए हानिकारक और सच्चे धर्म के विरुद्ध हैं |सच्चा धार्मिक इनसे बचने की कोशिश करता है | देश शब्द में अर्थात देश भक्ति में ये सभी कृत्य बाधक हैं |देश किसी व्यक्ति की अपने स्वार्थ से रचित धारणा नहीं है बल्कि किसी क्षेत्र विशेष की शताब्दियों के सामूहिक चिंतन, संवाद, सहजीवन से उपजी वह धारणा और एक प्रकार की अदृश्य आत्मिक सहमति की ऐसी अवधारणा है जिसके विरुद्ध जाने की उसका कोई सदस्य सोच भी नहीं सकता |यदि इस भाव का विस्तार करें तो यह मनुष्य का सबसे बड़ा जीवन मूल्य है |
देशद्रोह सबसे बड़ा अपराध और देशद्रोही सबसे बड़ी गाली है तथा सापेक्ष राजासत्ता का सबसे बड़ा क्रूर ब्रह्मास्त्र है जिसका बहुर विवेक और निःसंगता की अपेक्षा रखता है |
जिस प्रकार अधिकांश लोग यह समझते हैं कि देश पर आक्रमण की स्थिति में मरना-मारना ही देश प्रेम है ऐसा नहीं है |युद्ध तो कभी कभी होते हैं और दोनों ही पक्षों को घायल कर जाते हैं लेकिन जीवन के सतत शांत प्रवाह में इसकी सच्ची परीक्षा होती है |मरना तो एक क्षण की चरम साहसिक अभिव्यक्ति है लेकिन निरंतर किसी भाव के लिए प्रयत्न करना,जीना, कष्ट सहना, धैर्यपूर्वक उसे गढ़ना शहादत से छोटी तपस्या नहीं है |यदि कर्ण, अभिमन्यु, भगत सिंह,सुभाष, चन्द्र शेखर आदि मृत्यु के कलाकार हैं तो महावीर, बुद्ध, ईसा, नानक, कबीर, गाँधी,विनोबा जीवन के कलाकार हैं |हम अपनी सभ्यता,संस्कृति, शिक्षा से जीवन की कला सीखते हैं और जिसकी हर क्षण ज़रूरत पड़ती है |गंगा की सफाई केवल गंगा की आरती और गुणगान से नहीं होगी वह सगुण कर्म और व्यवहार की अपेक्षा रखती है |रोटी की तस्वीर और रोटी की कविता से पेट नहीं भरता |
देश को हर पल सँवारने, हर देशवासी के हित को सोचते हुए अपने आचरण को संयमित करते हुए जीना, जिसकी परिधि में देश की भौगोलिक सीमा ही नहीं बल्कि उसके लोग , सजीव-निर्जीव, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़,जंगल, हवा-पानी सब आ जाते हैं |और जो निरंतर विकसित होते रहते हैं वे देश से बाहर निकलकर समस्त विश्व और ब्रह्माण्ड तक अपनी चेतना और शुभाशंसा का विस्तार कर लेते हैं |वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः उसी विराट चिंतन के विस्तार हैं लेकिन इस विस्तार का क्रम ब्रह्माण्ड से व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्ति से से ब्रह्माण्ड तक जाता है |शिक्षा भी ज्ञात से अज्ञात की ओर जाती है, अज्ञात से ज्ञात की ओर नहीं |
इसलिए बेहतर हो हमारी अंतर्राष्ट्रीयता हवाई न होकर पारिवारिकता, सामाजिकता और राष्ट्रीयता से होती हुई अंतर्राष्ट्रीयता तक जाए |
समस्त राष्ट्र और उसके सगुण रूप के हित चिंतन को बिसराकर केवल प्रतीकात्मक राष्ट्रीयता कट्टरता और अधिनायकवाद और अंततः विखंडन को जन्म दे सकती है |अतः प्रतीकों से साथ-साथ व्याहवारिक स्वरुप और आचरणगत कर्मों को भी पुष्ट किया जाना चाहिए |और इसके लिए सभी प्रकार के संवाद-विवाद,शास्त्रार्थ,जुलूस -आन्दोलन हों, कोई फर्क नहीं पड़ता |चौदह रत्नों के लिए देवों और दानवों ने समुद्र मंथन किया था और उसमें कल्प-वृक्ष ही नहीं हलाहल विष भी निकला था और उसे भी किसी ने पिया ही था |राष्ट्र के जीवन में ऐसे विष पीने वाले ही महादेव और महाकाल होते हैं |
और यह देश तो महाकाल की भूमि है |
भरत राम के प्रति अगाध और अनन्य श्रद्धा रखते थे |उनकी अनुपस्थिति में कैकेयी ने उनके लिए दशरथ से अयोध्या का राज्य और राम के लिए वनवास माँगा |ननिहाल से अयोध्या आने पर उन्हें जो मर्मान्तक पीड़ा हुई और स्वयं पर एक कलंक सा अनुभव हुआ उससे स्वयं को विलग सिद्ध करते हुए वे कौशल्या से कहते हैं-
हे माता, माता,पिता और पुत्र हत्या करने वाले, स्त्रियों और बालक का वध करने,गायों और ब्राह्मणों से आवासों को जलाने,मित्र और राजा को ज़हर देने जैसे जो भी पातक (महापाप) उपपातक हैं मुझे हों यदि राम के वनवास मेरी सहमति रही हो |
मुझे ज्ञान बेचने और धर्म का दोहन करने वाले, चुगली करने वाले, कपटी, कुटिल,क्रोधी,कलहप्रिय,वेदों की निंदा करने वाले,सम्पूर्ण विश्व से विरोध मानने वाले,दूसरों के धन और स्त्री पर कुदृष्टि रखने वाले, परमार्थ विमुख पथ पर चलने वाले,श्रुति विरुद्ध आचरण करने वाले, वेश बदलकर दूसरों को छलने वाले की जो गति होती है, भगवान शिव वही गति (दुर्गति) मुझे दें |
ये सभी पाप या अपराध समस्त सृष्टि के लिए हानिकारक और सच्चे धर्म के विरुद्ध हैं |सच्चा धार्मिक इनसे बचने की कोशिश करता है | देश शब्द में अर्थात देश भक्ति में ये सभी कृत्य बाधक हैं |देश किसी व्यक्ति की अपने स्वार्थ से रचित धारणा नहीं है बल्कि किसी क्षेत्र विशेष की शताब्दियों के सामूहिक चिंतन, संवाद, सहजीवन से उपजी वह धारणा और एक प्रकार की अदृश्य आत्मिक सहमति की ऐसी अवधारणा है जिसके विरुद्ध जाने की उसका कोई सदस्य सोच भी नहीं सकता |यदि इस भाव का विस्तार करें तो यह मनुष्य का सबसे बड़ा जीवन मूल्य है |
देशद्रोह सबसे बड़ा अपराध और देशद्रोही सबसे बड़ी गाली है तथा सापेक्ष राजासत्ता का सबसे बड़ा क्रूर ब्रह्मास्त्र है जिसका बहुर विवेक और निःसंगता की अपेक्षा रखता है |
जिस प्रकार अधिकांश लोग यह समझते हैं कि देश पर आक्रमण की स्थिति में मरना-मारना ही देश प्रेम है ऐसा नहीं है |युद्ध तो कभी कभी होते हैं और दोनों ही पक्षों को घायल कर जाते हैं लेकिन जीवन के सतत शांत प्रवाह में इसकी सच्ची परीक्षा होती है |मरना तो एक क्षण की चरम साहसिक अभिव्यक्ति है लेकिन निरंतर किसी भाव के लिए प्रयत्न करना,जीना, कष्ट सहना, धैर्यपूर्वक उसे गढ़ना शहादत से छोटी तपस्या नहीं है |यदि कर्ण, अभिमन्यु, भगत सिंह,सुभाष, चन्द्र शेखर आदि मृत्यु के कलाकार हैं तो महावीर, बुद्ध, ईसा, नानक, कबीर, गाँधी,विनोबा जीवन के कलाकार हैं |हम अपनी सभ्यता,संस्कृति, शिक्षा से जीवन की कला सीखते हैं और जिसकी हर क्षण ज़रूरत पड़ती है |गंगा की सफाई केवल गंगा की आरती और गुणगान से नहीं होगी वह सगुण कर्म और व्यवहार की अपेक्षा रखती है |रोटी की तस्वीर और रोटी की कविता से पेट नहीं भरता |
देश को हर पल सँवारने, हर देशवासी के हित को सोचते हुए अपने आचरण को संयमित करते हुए जीना, जिसकी परिधि में देश की भौगोलिक सीमा ही नहीं बल्कि उसके लोग , सजीव-निर्जीव, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़,जंगल, हवा-पानी सब आ जाते हैं |और जो निरंतर विकसित होते रहते हैं वे देश से बाहर निकलकर समस्त विश्व और ब्रह्माण्ड तक अपनी चेतना और शुभाशंसा का विस्तार कर लेते हैं |वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः उसी विराट चिंतन के विस्तार हैं लेकिन इस विस्तार का क्रम ब्रह्माण्ड से व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्ति से से ब्रह्माण्ड तक जाता है |शिक्षा भी ज्ञात से अज्ञात की ओर जाती है, अज्ञात से ज्ञात की ओर नहीं |
इसलिए बेहतर हो हमारी अंतर्राष्ट्रीयता हवाई न होकर पारिवारिकता, सामाजिकता और राष्ट्रीयता से होती हुई अंतर्राष्ट्रीयता तक जाए |
समस्त राष्ट्र और उसके सगुण रूप के हित चिंतन को बिसराकर केवल प्रतीकात्मक राष्ट्रीयता कट्टरता और अधिनायकवाद और अंततः विखंडन को जन्म दे सकती है |अतः प्रतीकों से साथ-साथ व्याहवारिक स्वरुप और आचरणगत कर्मों को भी पुष्ट किया जाना चाहिए |और इसके लिए सभी प्रकार के संवाद-विवाद,शास्त्रार्थ,जुलूस -आन्दोलन हों, कोई फर्क नहीं पड़ता |चौदह रत्नों के लिए देवों और दानवों ने समुद्र मंथन किया था और उसमें कल्प-वृक्ष ही नहीं हलाहल विष भी निकला था और उसे भी किसी ने पिया ही था |राष्ट्र के जीवन में ऐसे विष पीने वाले ही महादेव और महाकाल होते हैं |
और यह देश तो महाकाल की भूमि है |
No comments:
Post a Comment